14 अगस्त 2017

आज़ादी, अगस्त में पैदा हुई थी इसलिए मर गई

चन्द्रिका
(मूलरूप से द वायर हिंदी में प्रकाशित)
वे छात्र हैं. वे जब आज़ादी के नारे लगाते हैं तो उन्हें जेल होती है. वे देशद्रोही कह दिए जाते हैं. वे आतंकी बता दिए जाते हैं. आज़ादी मांगती महिलाओं पर डंडे बरसते हैं. कश्मीर के लिए आज़ादी और आतंकवादी शब्द ही एक सा हो गया है. सत्तर सालों में आज़ादी जैसे कोई बुरी चीज बन गई है. शायद आज़ादी जो अगस्त महीने के बीचोबीच पैदा हुई थी, मर गई. जो बचा रह गया वह रस्म है, रिवाज है. सरकारें उसे मनाती हैं. सरकारों के संस्थान उसे मनाते हैं. वह एक राष्ट्र का पर्व है. अब सरकारें उसे एक समुदाय को मनाने के आदेश दे रही हैं. उनसे मनाने के सुबूत भी मांग रही हैं. आज़ादी के एक राष्ट्रीय पर्व पर मुस्लिम उन्हें सुबूत दें. राष्ट्रगान गाने का सुबूत. तिरंगा फहराने का सुबूत. आज़ादी तीन रंग के इसी झंडे में समेट दी गई है.
राष्ट्र के पास एक झंडा है, एक गान है, एक गीत है. सत्ता हस्तांतरण की एक तारीख़ है. 15 अगस्त की तारीख़. यही आज़ादी की तारीख़ है. हमने आज़ादी को ऐसे ही देखा है. बचपन से शिक्षा संस्थानों ने हमें यही आज़ादी सिखाई. टीवी में लाल किले पर प्रधानमंत्री का बोलना और स्कूल में मिठाई का डब्बा खोलना. याद किए हुए कुछ रटे-रटाए भाषण और देश के लिए कुछ कर गुजरने के आश्वासन. हर बार अंग्रेजों से लड़ाई के किस्से. उन्हें यहां से जाने को मजबूर करने के किस्से. क्या आज़ादी वही थी जो आज के दिन 1947 के इतिहास में गुजर गई. जिसे हम हर साल मनाते हैं. गुजरी हुई आज़ादी ही हमारी आज़ादी बना दी गयी. जिसे सरकारें और सरकारों के संस्थान हमसे मनवाते हैं. अंग्रेजों के जाने का जश्न जरूर रहा होगा. आज़ादी पाने का उत्सव भी रहा होगा. लोग उसे मानते रहे, मनाते रहे. पर अब तक आज़ादी दिवस मनाने के ऐसे आदेश नहीं रहे. अब उनके आदेश हैं कि आज़ादी का दिन मनाओ और मनाने का सुबूत उन तक पहुंचाओ. उत्तर-प्रदेश और मध्य-प्रदेश की सरकारों ने मदरसों को ये आदेश दिए हैं. मदरसों में मुसलमान पढ़ते हैं. मुसलमानों से उन्हें सुबूत चाहिए. राष्ट्रगान गाने का सुबूत. आज़ादी दिवस मनाने का सुबूत. पूरा का पूरा देशभक्त होने के सुबूत. इस सरकार को मुसलमानों से सुबूत क्यों चाहिए? वे जो आज़ादी के आंदोलन में साथ-साथ लड़े. वे जिन्होंने इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान जाने के बजाय हिन्दुस्तान को चुना. वे चुन सकते थे पाकिस्तान जाना. वे नहीं गए पाकिस्तान. उनका चुनाव था हिन्दुस्तान. इस्लाम और धर्मनिर्पेक्षता के विकल्प के इस चुनाव में उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को चुना. शायद उन्होंने बेहतरी की उम्मीद को चुना. उनका उनसे ज़्यादा हक़ है. जो धर्मनिरपेक्षता के ख़िलाफ थे. जो इस्लामिक पाकिस्तान की तरह हिन्दुस्तान को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते थे. ये उन्हीं की आवाज़ें हैं. वही इस देश के मुसलमान से देशभक्ति का सुबूत मांगते रहे हैं. वे आज भी मांग रहे हैं. वही आज़ादी दिवस मनाने के आदेश दे रहे हैं. राजशाहियों के आदेश की तरह. शक़ के बिनाह पर जैसे वे ग़ुलामों को आदेश दे रहे हैं. उस आबादी की आज़ादी थोड़ा कम हुई है. वैसे हम सबकी आज़ादी थोड़ा कम हुई है. पुरानी आज़ादी की तारीख़ो के जश्न मनाने के मायने पुराने ही रह गए. हर बरस आज़ादी के जश्न मनाने के साथ आज़ादी बढ़नी थी. पर आज़ादी दिवस की संख्या बढ़ी. प्रधानमंत्रियों के भाषण बढ़े. आज़ादी पाने के मूल्य नहीं बढ़े. दिल्ली के उस पुराने किले से हर बार उनके दावे बढ़े, उनके वादे बढ़े.
किला और किलेबंदी डर का वह प्रतीक है जहां से वे हर बरस आज़ादी का भाषण देते हैं. नए डर को पुरानी किलेबंदी ही अभी तक महफूज कर रही है. किला, झंडा, वह तारीख और उनका हर बरस बोलना सबकुछ प्रतीकात्मक है. यह एक रस्म अदायगी है. प्रतीक सच नहीं होते न ही स्थाई. वे अभिव्यक्त करने और अपनी अभिव्यक्ति में लोगों को शामिल कर लेने का एक तरीका भर हैं. इसलिए इन तारीख़ी प्रतीकों के जरिए प्रगति और विकास के गुणगान करना वर्तमान चलन बन गया है. इस रस्म अदायगी को उन्हें पूरा करना होता है. सभी देशों के सभी राष्ट्राध्यक्ष ऐसा ही करते आए हैं. वे हर बार देश की प्रगति को गिनाते हैं. इससे पहले और उससे भी पहले के प्रधानमंत्रियों को इसके लिए सुना जा सकता है, विकास और प्रगति के बारे में बताते हुए वे सब एक जैसे हैं. लगता है वह एक ही प्रधानमंत्री है जो अपने चोले और शक्ल बदल कर हर बरस घंटे भर कुछ बोलता है. उसे इस बार भी बोलना है. जब मैं यह लिख रहा हूं उसके बोले जाने वाले शब्द लिखे जा चुके होंगे. उनके बोलने में लोकतंत्र हर बार मजबूत होता है. उन्हें सुनकर इंसान हर बार मजबूर होता है. तकरीबन सत्तर बरस के बोले जाने में हर बार उनके बोलने से राष्ट्र प्रगति के रास्ते पर और बढ़ा हुआ होता है. प्रगति का यह रास्ता शायद बहुत लम्बा है, शायद कभी न खत्म होने वाला, शायद एक गहरी लंबी खांई जैसा. दुनिया के सारे राष्ट्राध्यक्षों के पास ऐसी ही तारीखें हैं. उस दिन के लिए उनके पास ऐसे ही वाक्य हैं जो उनके राष्ट्र को प्रगति के रास्ते पर आगे बढ़ा रहे हैं. उनकी बातें हमे इशारा करती हैं कि शायद वे सब एक ही रास्ते पर हैं.
हम सब इसमे शिरकत करते हैं. क्योंकि इतिहास हमारी आदतों में शामिल होता जाता है और हम ताकत की गुलामी से उबर नहीं पाते. आज़ादी के दिवस मनाते हुए भी हम उसके साथ खड़े होते हैं जो ताकतवर है. जो हर रोज हमारे हक़-हुकूक छीन रहा है. जो हमारी पहचान को एक संख्या में बदलने पर आमादा है. जो हम पर शक़ करता है और हमे कैमरे की निगरानी में ग़ुलाम बनाए रखना चाहता है. जो हमे हर रोज गुलाम बना रहा है. शासकों के आदेश पर हम उन उत्सवों में शामिल हो जाते हैं. जब राजशाहियां थी तो राजशाहियों के उत्सव भी हमारे उत्सव हो जाया करते थे. हम अपनी पुरानी पीढ़ियों से उस उत्सव में शामिल होने के आदी हो चुके हैं जो हम पर शासन करने वालों के द्वारा मनाया जाता है.
सत्ता के संस्थान बदल गए और हम राष्ट्र के बनने के साथ राष्ट्रीय पर्व में शामिल हो गए. एक व्यक्ति के तौर पर, एक समुदाय के तौर पर किसी भी राष्ट्रीय झंडे का हमारे लिए क्या मायने है. किसी राष्ट्रीय गीत का या किसी राष्ट्रीय गान के क्या मायने हैं. चाहे यह कोई भी दिन हो या कोई भी बरस. क्या ये प्रतीक राष्ट्र से प्रेम का इज़हार करा सकते हैं. क्या प्रेम पैदा करने के लिए आप किसी को डरा सकते हैं. डर से कोई प्रेम नहीं पैदा किया जा सकता है. कोई भी राष्ट्रीय उत्सव मनाते हुए हम अपने राष्ट्रजो एक बड़ी ताकत होता है उसका हिस्सा बनने की कोशिश करते हैं. उसकी ताकत के प्रदर्शनों में खुद को खुश रखते हुए. उस ताकत के साथ अपने जुड़ाव को जाहिर करने की कोशिश करते हुए. वह हमको किसी बड़ी ताकत के साथ जुड़ने का बोध देता है. जबकि लोकतंत्र इसी बोध के खिलाफ खड़ा एक मूल्य है. अपनी मान्यताओं को मानने का मूल्य देता है. समता और समानता के बोध को विकसित करने का मूल्य देता है. राष्ट्रीय उत्सवों में शामिल होने की हमारी मनसिकता और इन मूल्यों के बीच एक टकराव है. कई असमानताओं से भरे हुए एक समाज में ताकतवर के साथ खड़े होने का एहसास ताकतहीनों के खिलाफ चले जाने जैसा होता है. हमारी आदतें हैं कि सत्ताएं हमे लुभाती हैं. जो दलितों और दमितों (जिसमें आदिवासी और अल्पसंख्यक भी शामिल हैं) के साथ खड़े होंगे वे किसी भी ताकत के खिलाफ खड़े रखने की मानसिकता के लोग ही होंगे. वे किसी भी शासन के खिलाफ होंगे. वे शोषितों के साथ होंगे. सबकी आज़ादी ही हर रोज की आज़ादी होगी.  
इतिहास का कलेंडर पलटते हुए किसी दिन पर उंगली रख कर यह कहना मुश्किल है कि यह दिन आज़ादी का है. क्योंकि आज़ादी के मायने तारीखों में नहीं बंधे होते. यह एक ऐसी महसूसियत है जिसकी जरूरत समाज में हर वक्त बढ़ती रही है और इसी जरूरत ने पुरानी सभ्यताओं को जीवाश्म के रूप में बदल दिया और उस पर नयी व्यवस्थाएं खड़ी हुई. इस एहसास को पाने की तलब ने कई बार आज़ादी के दायरे को बढ़ाया और समेटा है. इसे पाने और व्यापक बनाने की इच्छा की निरंतरता को ही किसी समाज के विकासशील होने के प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है. यकीनन अगस्त 1947 की कोई तारीख आज़ादी के उस एहसास को नहीं भर सकती. वह जो मूल्यों और विचारों में है. बहते पानी और हवा जैसी आज़ादी जहां तिनके की रुकावट तक न हो. इसे जीवन जीने के सर्वोत्तम मूल्य के तौर पर बचाना और हासिल करना होता है और मांगने से ज्यादा इसे छीनना पड़ता है. शायद यह एक आदर्श देश की संकल्पना होती. जब संविधान में निहित आज़ादी वहां के लोगों की जिंदगियों में उतर जाए, जब संविधान में लिखे हुए शब्द किसी देश की नशों में पिधल कर बहने लगें, जब देश का प्रथम नागरिक और अंतिम नागरिक आज़ादी को वैसे महसूस करे जैसे एक फल की मिठास को दोनों की जीभ. अलबत्ता 14 अगस्त 1947 की सुबह और 16 अगस्त की सुबह में एक फर्क जरूर रहा होगा. उनके लिए भी जो देश की तत्कालीन राजनीति व संघर्ष में भागीदारी निभा रहे थे और उनके लिए भी जो देश में जीवन जीने के भागीदार बने हुए थे. एक मुल्क के बंटवारे की त्रासदी और एक उपनिवेश से मुक्ति का मिला जुला एहसास. जब कोई देश किसी दूसरे देश की गुलामी से मुक्त हो जाए और पड़ोसियों, रिश्तेदारों का देश निकाला सा हो जाए यह कुछ वैसा ही रहा होगा. यह गुलामी को साथ-साथ और आज़ादी को बिछुड़कर जीने का अनुभव रहा होगा.

12 अगस्त 2017

जो विशाल है वही विकास है

(मूलरूप से दैनिक जागरण में प्रकाशित)
चन्द्रिका
वहां दुनिया का दूसरा सबसे ऊंचा बांध बनाया जा रहा है. दुनिया के सबसे ऊंचे पहाड़ के बीच. नेपाल और भारत की अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर बनने वाला यह पहला बांध है. इसे पंचेश्वर बांध के नाम से जाना जाएगा. इसे एशिया का सबसे बड़ा बांध बताया जा रहा है. पश्चिमी नेपाल और उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में इसके जल भराव का विस्तार होगा. नेपाल और भारत की सीमा को विभाजित करती महाकाली नदी को जल स्रोत के तौर पर लिया जाएगा. इसके जल संग्रहण की क्षमता टिहरी बांध से भी तीन गुना ज़्यादा होगी. 315 मीटर ऊंचाई वाले इस बांध में तकरीबन 122 गांव डूब क्षेत्र से प्रभावित होंगे. जिसमे तकरीबन 30 हजार परिवार बसे हुए हैं. यह नेपाल और भारत का एक संयुक्त कार्यक्रम है. तकरीबन 50 हजार करोड़ रूपए की लागत से बनने वाले इस बांध से 5000 मेगावॉट बिजली के उत्पादन की उम्मीद की जा रही है. यह सबकुछ विशाल है. प्रचलन में यही विकास है. सबसे बड़े और सबसे पहले का तमगा गौरवान्वित सा करता है. हमारी मानसिकता बना दी गई है कि विशाल ही विकास है. इस गौरवान्वित होने में हम बड़े खतरे की आशंकाओं को भुला देते हैं. फिलहाल इस विशाल योजना को मंजूरी मिल गई है. इस महीने में डूबने वाले गांवों के जन सुनवाई की प्रक्रिया शुरू होनी है. ऐसे बड़े विकास के लिए बड़े विस्थापन और बड़े बलिदान की जरूरतें होती हैं

इन बड़ी परियोजनाओं के खतरे भी बड़े हैं. हिमालय के बीच बसा यह इलाका जहां परियोजना प्रस्तावित है. चौथे जोन वाले भूकम्प का क्षेत्र है. जबकि उत्तराखंड का अधिकांश इलाका संभावित आपदाओं से ग्रसित है. यहां के लगभग पहाड़ अलग-अलग भूकंप जोन में बटें हैं. ऐसे में इतनी ऊंचाई पर इतने बड़े बांध को बनाना और भी ख़तरनाक है. हिमालय अभी अपने बनने की प्रक्रिया से गुजर रहा है और जब भी इसका लैंड सेटलमेंट होगा एक बड़ा भूकम्प आना तय है. लिहाजा हमे ऐसे किसी भी तरह का इतना बड़ा निर्माण नहीं करना चाहिए जो सिर्फ आसपास को प्रभावित करे बल्कि अन्य राज्यों में भी तबाही का कारण बने. पिछले दिनों उत्तराखंड में हुई केदारनाथ आपदा से भी यह सीख लेनी चाहिए. जिसमे कई हजार लोगों की जाने गई. भले ही इसे एक प्राकृतिक आपदा कह दिया गया. भले ही प्राकृतिक आपदा कह के लोगों को गुमराह किया गया. परन्तु ये मानव जनित आपदाएं ही रही हैं. उत्तराखंड की गहरी नदियों में जलभराव की स्थिति कभी बनती अगर कम्पनियों के द्वारा जगह-जगह नदियों को रोका जाता. इस रुकावट से पेड़ और पत्थर के मलबे जलभराव का कारण बनते हैं और भारी बारिश से नदियां उफान पर आ जाती हैं. निश्चय ही जब पंचेश्वर झील जो कि सैकड़ों किमी में पानी का भराव करेगी उसका असर आसपास के पहाड़ों पर पड़ेगा. जिसका आंकलन पहले से लगाया जाना मुश्किल है. इसलिए बड़ी परियोजना के साथ इसे एक बड़ी आपदा की पूर्व पीठिका के रूप में भी देखा जाना चाहिए. साथ ही यह पश्चिमी नेपाल और पिथौरागढ़ की साझा संस्कृति का इलाका है. जहां लोग आपस में रिश्ते-नाते रखते हैं. इतनी बड़ी झील दो देशों के बीच के इस रिश्ते को भी खत्म कर देगी. लोगों को इस झील के लिए अपने गांव छोड़ने होंगे और विस्थापित होकर दूर बसना होगा. जब भी विस्थापन से प्रभावित लोगों और गांवों का आंकलन किया जाता है उसे बहुत ही सीमित दायरे में देखा जाता है. जो विस्थापित किए जाते हैं उन्हें ही प्रभावित भी माना जाता है. जबकि आसपास के जो लोग विस्थापित नहीं होते प्रभावित वे भी होते हैं. उनके रिश्ते प्रभावित होते हैं. उनकी सदियों से चली रही रोजमर्रा की ज़िंदगी से वे लोग और उनके पड़ोसी गांव अचानक ग़ायब हो जाते हैं. इस तरह के सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक प्रभाव का कोई भी आंकड़ा किसी दस्तावेज में शामिल नहीं किया जाता
दैनिक जागरण 

इस बांध का प्रस्ताव 1981 में ही हो गया था. बाद में इससे डूबने वाले गांवों को चिन्हित कर लिया गया और अब उनके विस्थापन की प्रक्रिया शुरू होने वाली है. 11 अगस्त को गांवों की पहली जन सुनवाई होनी है. जन सुनवाई को जिला मुख्यालय पर आयोजित किया गया है. डूब वाले गांवों से जिला मुख्यालय पचास से सौ किमी की दूरी पर हैं और मौसम बारिश का है. पहाड़ के इन दूर गांवों में आवागमन की सुविधाएं बहुत कम हैं. साथ ही गांव के लोगों को ठीक-ठीक इसके बारे में कुछ भी पता भी नहीं है. सरकारें अपनी मंसा से अपने अनुसार काम करती हैं. सबकुछ तय हो जाने के बाद वे लोगों की राय लेना चाहती हैं. ऐसे में लोगों को पता ही नहीं चल पाता कि उन्हें करना क्या है और जन सुनवाईयां पूरी कर दी जाती हैं. अब उनके पास सिर्फ आदेश होते हैं कि उन्हें अपने गांव कब तक छोड़ देने हैं और उन्हें कहां बसना है. इसका ज़िक्र नहीं होता कि उन्हें किनसे बिछड़ना है और उनका क्या-क्या उजड़ना है.

पिथौरागढ़ एक पिछड़ा इलाका है. जहां लोगों को विस्थापन के नियम कानून नहीं पता. पिछड़े इलाके होने के फायदे सरकारों को इसी आधार पर मिलते हैं कि ये इलाके प्राकृतिक संपदाओं से भरपूर होते हैं. पिछड़े इलाकों का पिछड़ापन सरकारी होता है. वर्षों से लोगों को राज्य मूलभूत सुविधाओं से इतना वंचित कर देता है कि वे पीड़ित महसूस करने लगते हैं. उनके पास अपार संपदाएं होती हैं पर वे सबसे गरीब होते हैं. ऐसे में वे कुछ भी करने को तैयार होते हैं. विकास के नाम पर बांध का आना कई बार उनके लिए खुशी की ख़बर जैसा होता है. उन्हें विस्थापन के दंस का आंकलन नहीं होता. वे सरकारी वंचना से इतने पीड़ित होते हैं कि कहीं भी चले जाना चाहते हैं. ऐसी स्थिति में सरकारों के लिए जन सुनवाई और विस्थापन एक आसान प्रक्रिया बन जाती है. सरकारें उन्हें नौकरी का लालच देती हैं और जो जमीनों के स्वामी होते हैं उनके पूरे परिवार में से कोई एक परियोजना में नौकर बन जाता है. जाहिर है कि उन पिछड़े इलाकों में शिक्षा का वह स्तर नहीं होता कि उन्हें कोई बेहतर ओहदा मिल सके. वे फोर्थ ग्रेड के कर्मचारी बन जाते हैं. जहां भी इस तरह की परियोजनाएं बनी हैं विस्थापितों का यही हश्र रहा है. यदि पंचेश्वर बांध बनाया जाएगा तो वहां के लोगों का भी यही होना है. जबकि जो उन्हें खोना है उस गणित का जोड़-घटाव किसी किताब में कभी नहीं होना है.