-कैथरीन विनर
अनुवाद: दिलीप ख़ान
(लेख मूल रूप से जनमीडिया के जनवरी 2017 अंक में प्रकाशित।)
2015 सितंबर के एक सोमवार की सुबह ब्रिटेन में बेहद ख़राब
ख़बर से हुई। डेली मेल के मुताबिक़ प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने “मृत
सूअर के साथ कोई अश्लील व्यवहार किया”। अख़बार ने दावा किया कि “ऑक्सफोर्ड
के एक सम्मानित व्यक्ति ने कहा कि पीयर्स गेवस्टोन के दीक्षा समारोह में कैमरन ने
हिस्सा लिया।” पीयर्स
गेवस्टोन ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की बलवाई भोजन सोसाइटी का नाम है। खबर लिखने
वाले ने दावा किया कि उसकी खबर का सूत्र एक सांसद है। सांसद ने कहा कि उन्होंने
सबूत के तौर पर फोटो देख रखा है, “जिसमें भविष्य के प्रधानमंत्री ने अपना
गुप्तांग उस जानवर के शरीर में घुसा दिया था।”
इसके बाद #PIGGATES ट्रेंड करने लगा |
यह स्टोरी कैमरन की जीवनी से लिया गया हिस्सा था और स्टोरी
ने वहां सनसनी फैली दी। यह स्टोरी एक अभिजात्य प्रधानमंत्री को बेइज़्ज़त करने के
लिए एक शानदार मौक़े की तरह आई। कैमरन के कुख्यात बलिंगडन क्लब के पूर्व सदस्य
होने के चलते कई लोगों ने इसे सच मान लिया। मिनट भर के भीतर ट्वीटर पर #Piggateऔर #Hameron ट्रेंड
करने लगा और इसमें कई बड़े राजनेता भी कूद गए और मज़े लेने लगे। निकोला स्टरगोन ने
कहा कि इस आरोप ने ‘पूरे
देश का मनोरंजन किया है’, जबकि पैडी एशडाउन ने कटाक्ष किया कि कैमरन ‘सुर्खियां
बटोर’ रहे
हैं।' शुरुआत
में बीबीसी ने इस आरोप को तवज्जो नहीं दिया और 10 डाउनिंग स्ट्रीट (प्रधानमंत्री
आवास) ने कहा कि वे प्रतिक्रिया देकर इस स्टोरी को ‘सम्मानित’ नहीं करना चाहती। लेकिन जल्द ही उसे ख़बर का
खंडन करने को मजबूर होना पड़ा। और इस तरह एक शक्तिशाली व्यक्ति को यौनिक मुद्दे पर
शर्मिंदगी झेलनी पड़ी जिसका उनकी राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था और इस तरह
झेलनी पड़ी, जैसे
उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा। लेकिन परवाह किसको है?
फेसबुक और ट्वीटर पर कैमरन की ये फोटो वायरल हो गई। |
फिर, दिन भर के ऑनलाइन उधम के बीच स्तब्ध करने वाला
कुछ घटा। अरबपति व्यवसायी लॉर्ड एशक्रॉफ्ट के साथ मिलकर उनकी जीवनी लिखने वाली
डेली मेल की पत्रकार इजाबेल ओक्सहॉट ने टीवी पर स्वीकार किया कि उनकी ये हाहाकारी
स्टोरी सच है या नहीं, इसके बारे में वो पक्के तौर पर नहीं कह सकती।
जब उनसे इस सनसनीख़ेज़ स्टोरी के पक्ष में सबूत पेश करने के लिए कहा गया तो
उन्होंने स्वीकार किया कि उनके पास कोई सबूत नहीं है।
चैनल 4 न्यूज़ पर उन्होंने कहा, “हम
सूत्रों के आरोप की तह तक नहीं जा सकते, और इसलिए हमने वही रिपोर्ट की जो सूत्र ने
हमें बताया....हम नहीं कहते कि आप इसे सच मानकर भरोसा कीजिए।” दूसरे
शब्दों में कहें तो ऐसा कोई सबूत नहीं था जिससे ये पता चल पाए कि ब्रिटेन के
प्रधानमंत्री ने ‘मरे
हुए सूअर के मुंह में अपना गुप्तांग डाला था’। ये एक ऐसी स्टोरी बनी जिसे दर्ज़नों अख़बारों
ने छापा और इस पर दसियों लाख लोगों ने फेसबुक और ट्विटर पर लिखा, और
जिसे आज भी कई लोग सच मानते हैं।
ओक्सहॉट ने इस स्टोरी से किसी भी तरह की ज़िम्मेदारी से
पल्ला झाड़ लिया। उन्होंने कहा, ‘ये लोगों के ऊपर है कि वो इस स्टोरी को
विश्वसनीयता देते हैं या नहीं’। ये कोई पहला वाकया नहीं है जब छिछले सबूतों
के आधार पर कोई बड़ा दावा ठोका गया हो। इससे ऐसा लगा कि पत्रकारों को इसकी भी
दरकार नहीं रह गई है कि वो अपनी ख़ुद की स्टोरी को सच माने या नहीं; सबूत
तो दूर की कौड़ी है। अलबत्ता सारा दारोमदार अब पाठकों के ऊपर है कि वो अपने
मुताबिक़ स्टोरी की पड़ताल करे। और ये दारोमदार ऐसे पाठकों के ऊपर है जिन्हें
सूत्रों की पहचान तक नहीं! फिर इस सच को पहचानने या न पहचानने का आधार क्या होगा? मिज़ाज, अंत:प्रेरणा
या फिर सहज बोध?
क्या
सच का अब कोई मोल रह गया है?
कैमरन के सूअरीय व्यभिचार की कपोलकल्पित कहानी के नौ महीने
बाद 24 जून को ब्रिटेन की सुबह जिस ख़बर से हुई, वो ये थी कि डाउनिंग स्ट्रीट के सामने सुबह 8
बजे प्रधानमंत्री खड़े होकर अपने इस्तीफ़े का ऐलान कर रहे हैं। ये सच्ची ख़बर थी।
कैमरन ने कहा, “ब्रिटिश लोगों ने यूरोपीय संघ से बाहर आने के
पक्ष में वोट किया है और इस मत का सम्मान किया जाना चाहिए। ये कोई हल्के दिमाग़ से
लिया गया फ़ैसला नहीं है क्योंकि कई संगठनों ने इस पर कई तरह की बातें कही हैं।
इसलिए नतीजे को लेकर कोई भी शक-सुबहा नहीं रहना चाहिए।”
पीएम ऑफिस को सफ़ाई देनी पड़ी |
लेकिन जल्द ही ये साफ़ हुआ कि तक़रीबन हर चीज़ में दुविधा
थी। महीनों तक सुर्खियां बटोरने वाले अभियान के आख़िर में ये लगा कि यूरोपीय संघ
से ब्रिटेन को अलग करने के पक्षधरों के दिमाग़ में इस बात की कोई रूपरेखा नहीं है
कि कब और कैसे इसे अंजाम देना है। फ़ौरन ही ‘लीव कैंपेन’ (यूरोपीय संघ से ब्रिटेन को बाहर करने का
अभियान) के धूर्त दावे खंड-खंड हो गए। जनमत संग्रह के कुछ ही घंटे बाद शुक्रवार 24
जून की सुबह 6.31 बजे यूके इंडिपेंडेंट पार्टी के नेता निजेल फराज ने स्वीकार किया
कि ब्रेग्ज़िट (ब्रिटेन का ईयू से अलग होना) के बाद ब्रिटेन के पास राष्ट्रीय
स्वास्थ्य योजना पर प्रति हफ़्ता ख़र्च करने के लिए 350 पौंड नहीं होंगे। यह वो
दावा था जिसकी बदौलत ब्रेग्जिट खेमे ने इस अभियान में सबसे ज़्यादा हवा बनाई। दूसरा
सबसे बड़ा दावा था कि इससे प्रवासियों की तादाद पर लगाम लगेगी, लेकिन
कुछ घंटे बाद टोरी सांसद डेनियल हन्नान ने इससे भी इनकार कर दिया।
यह कोई पहला वाकया नहीं था जब राजनेता अपने दावों पर खरा
उतरने में नाकाम रहे हों, लेकिन इस अर्थ में यह पहला वाक़या ज़रूर था कि
जीत के फ़ौरन बाद उन सबने स्वीकार किया कि उन्होंने जो दावे किए वो सबके सब झूठे
थे। पोस्ट-ट्रूथ राजनीति के दौर में यह पहला बड़ा जनमत संग्रह था। ‘रिमेन
कैंपेन’ (यूरोपीय
संघ में ब्रिटेन के बने रहने के पक्षधर) के लोगों ने तथ्य की बदौलत जुमलों से
लड़ने की कोशिश की, लेकिन
जल्द ही लगा कि तथ्य की हांडी चढ़ नही रही है।
ब्रेक्ज़िट में कई ऐसे दावे किए गए जिनका तथ्यों से कोई लेना-देना नहीं था |
रिमेन पक्ष के चिंताजनक तथ्यों को शुरुआत में ‘प्रोजेक्ट
फीयर’ के
नाम पर ख़ारिज किया गया लेकिन जल्द ही उनके उलट ‘तथ्य’ दिए जाने लगे: अगर 99 विशेषज्ञ कह रहे थे कि
इससे अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी और एक जानकार इससे असहमत था तो बीबीसी हमें बता रहा
था कि इस पर हर पक्ष का अलग-अलग नज़रिया है। (यह एक भयानक भूल है जिसमें सच को
ज़मीनदोज़ किया गया और इसने जलवायु परिवर्तन पर जारी कुछ रिपोर्ट की याद दिला दी।)
स्काई न्यूज़ पर माइकल गोव ने घोषणा की कि“देश के अवाम ने बहुत जानकारों को देख लिया।” उन्होंने
10 नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्रियों द्वारा जारी एंटी-ब्रेग्ज़िट हस्ताक्षर
अभियान की तुलना हिटलर के वफ़ादार नाज़ी वैज्ञानिकों से की।
कौन सा तथ्य सही है और कौन सा नहीं, इसके बीच अंतर कर पाना बहुत मुश्किल हो गया है।
महीनों से यूरोप को लेकर सशंकित प्रेस ने हर अविश्वसनीय
दावों की तुरही बजाई और विशेषज्ञों की हर चेतावनी को बकवास करार दिया और पहले
पन्ने को प्रवासी-विरोधी अनगिनत ख़बरों से पाट दिया। फिर इनमें से ज़्यादातर
ख़बरों को हल्की मरम्मत के साथ ठीक करके छोटे में छापा गया। वोटिंग से एक हफ़्ते
पहले निजल फराज ने भड़काऊ “ब्रेकिंग न्यूज़” पोस्टर जारी किया और उसी दिन शरणार्थियों के
पक्ष में अथक अभियान चलाने वाले लेबर सांसद जो कॉक्स को गोली मारी गई। डेली मेल ने
एक ब्रिटेन में दाख़िल होते एक लॉरी की पृष्ठभूमि में प्रवासियों की एक फोटो छापी, जिसका
शीर्षक था- “हम
यूरोप से हैं- हमें आने दो!” अगले दिन स्टोरी छापने वाले डेली मेल और द सन
को ये स्वीकार करना पड़ा कि वो तस्वीर असल में इराक़ और कुवैत की थी।
जनमत संग्रह के बाद भी तथ्यों की अवहेलना नहीं थमी: लीव
कैंपेन में प्रभावी भूमिका अदा करने वाली कंजरवेटिव उम्मीदवार एंड्रिया लीडसम ने
सबूतों की क्षीण होती शक्ति की नुमाइश की। उन्होंने टाइम्स को बताया कि मां होने
के चलते थेरेसा मे की तुलना में वो बेहतर प्रधानमंत्री साबित होगी। उन्होंने ‘गटर
जर्नलिज़्म’ का
रोना रोया और अख़बारों पर आरोप लगाया कि उनकी बातों को ग़लत तरीके से पेश किया गया, जबकि
उनकी कही गई वहीं बातें साफ़-साफ़ टेप में मौजूद थीं। लीडसम पोस्ट-ट्रूथ राजनेत्री
हैं और इस पोस्ट ट्रूथ में उनका ख़ुद का सच भी शामिल है।
और आख़िरकार ब्रिटेन यूरोपीय संघ से अलग हो गया |
एक बार अगर ऐसा होने लगे कि आप जो महसूस करते हैं वही सच है
तो ये तय कर पाना बहुत मुश्किल हो जाता है कि कौन सा तथ्य सही है और कौन सा ‘तथ्य’ नहीं।लीव
अभियान के लोग इस बात को भली-भांति जानते थे और इसलिए इसका पूरा फ़ायदा भी उठाया।
वो जानते थे कि एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी के पास राजनीतिक दावों को
नियंत्रित करने की कोई शक्ति नहीं है। कुछ दिन बाद इंडिपेंडेंट पार्टी के सबसे
बड़े डोनर और लीव अभियान के मुख्य प्रदाता अरॉन बैंक्स ने गार्डियन को कहा कि वे
लोग जानते थे कि तथ्यों के दम पर वो जीत हासिल नहीं कर सकते। बैंक्स ने कहा कि “यह
अमेरिकी शैली का प्रचार था। वो जानते थे कि ‘तथ्य से काम नहीं बनता’और
ये सच है। रिमेन अभियान वालों ने सामने क्या रखा? तथ्य, तथ्य और केवल तथ्य। इसलिए काम नहीं बना। आपको
लोगों के साथ भावनात्मक स्तर पर जुड़ना होगा। ट्रंप की सफ़लता का यही राज है।”
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ब्रेग्जिट के नतीजों के
बाद कुछ लोगों को पता चला कि इसके भयानक दुष्परिणाम होंगे और जो दावे किए गए उसका
छटांक भर ही उन्हें मिल पाएगा। जब “तथ्य काम नहीं करते” और
मीडिया से मतदाताओं का भरोसा उठ चुका हो, तो ऐसे वक़्त में हर कोई अपने ‘सच’ पर
यक़ीन करता है और इसका नतीजा उतना ही भयानक हो सकता है, जितना
हमने अभी-अभी देखा है।
हम
इसे कैसे देखें और कैसे इसे दुरुस्त करें?
पहली वेबसाइट के ऑनलाइन होने के पच्चीस साल बाद हम भौंचक्का
कर देने वाले बदलाव के दौर में जी रहे हैं। गुटेनबर्ग (प्रिंटिंग प्रेस के
आविष्कारक) के पांच सौ साल बाद तक सूचना का सबसे प्रभावी माध्यम छपे हुए पेज थे:
एक बने-बनाए खांचे में ज्ञान का उत्सर्जन होता था, जिसने पाठकों के भरोसे को
उत्साहित किया और सच को टिकाऊ बनाया।
अब दो विपरीत छोरों के बीच भ्रामक संघर्ष के एक सिलसिले में
हम फंस गए हैं: सच और झूठ के बीच, तथ्य और अफ़वाह के बीच, दया
और क्रूरता के बीच, थोड़े
और ज़्यादा के बीच, मिले-जुले
और अलग-थलग पड़े होने के बीच, वेब के खुले मंच की कल्पना करने वाले और इसी से
नत्थी फेसबुक समेत बाक़ी सोशल नेटवर्किंग साइट्स के बीच और अवगत जनता और
दिग्भ्रमित भीड़ के बीच।
ब्रेक्ज़िट पर बाद में कई लोगों ने पछतावा भी किया |
जो चीज़ इन संघर्षों के बीच साझी है और जो इन्हें ग़ौरतलब
बनाती है, वो
ये कि इसने सच की हैसियत को कमतर बनाने का काम किया है। इसका मतलब यह नहीं है कि
सच है ही नहीं। इसका सीधा-सीधा मतलब मौजूदा वर्ष ने हमारे सामने पेश किया है। वो
ये कि सच क्या है जब इस पर हम सब सहमत नहीं होते और जब सच को लेकर कोई सर्वसम्मति
नहीं बनती और न ही ऐसा होने का कोई रास्ता खुलता है तो अराजकता बहुत जल्दी दस्तक
देती है।
जिसे हम तथ्य कहते हैं वो महज किसी के द्वारा उसे सच मान
लिए जाने का भरोसा भर है और तकनीक ने इस काम को इतना आसान कर दिया है कि ऐसे ‘तथ्य’ को
हम तेज़ी से प्रसारित कर सकें। गुटेनबर्ग के ज़माने में (यहां तक कि एक दशक पहले
तक) ऐसा कर पाना कल्पना से बाहर की बात थी। एक सुबह कैमरन को लेकर एक अस्पष्ट
स्टोरी एक टैबलॉयड में छपी और दोपहर तक सोशल मीडिया के ज़रिए पूरी दुनिया तक ये
फैल चुकी थी। उसी टैबलॉयड को हर जगह ख़बर के भरोसेमंद सूत्र में तब्दील कर दिया
गया। देखने में यह हल्की बात लग सकती है, लेकिन इसके नतीजे भयानक हैं।
पीटर चिपिंडेल और क्रिस हॉरी ने 'स्टिक
इट अप योर पंटर! देयर हिस्ट्री ऑफ द सन न्यूज़पेपर' में लिखा है कि “सच एक ऐसा कोरा बयान है जो हर अख़बार अपनी
जोखिम पर छापता है”।
आम तौर पर किसी भी विषय के कई विरोधाभासी सच होते हैं, लेकिन
प्रिटिंग प्रेस के ज़माने में पन्नों पर उसे कील की तरह ठोक दिया जाता था, अब
चाहे वो सच साबित हो या न हो। वो सूचना तब तक सच बनी रहती थी जब तक कि उसमें कोई
संशोधन न किया गया हो या फिर उसे और अद्यतन न किया गया हो। तब तक हम उन्हीं साझे
तथ्यों का इस्तेमाल करते थे।
ऐसे ‘सच’ को आम तौर पर आरोपित किया जाता था, ये
एक तरह से ऐसा ‘स्थापित’ सच
होता था जिसे आम तौर पर कोई प्रतिष्ठान वहां रख जाता हो। लेकिन ये व्यवस्था
दोषरहित नहीं थी: प्रेस का बड़ा हिस्सा अक्सर यथास्थिति को लेकर पूर्वाग्रही रहा
है। ऐसे में एक आम पाठक के लिए प्रेस की शक्ति को चुनौती देना बेहद मुश्किल काम हो
जाता है। अब ऐसे में लोग प्रेस द्वारा पेश किए गए तथ्यों के प्रति अविश्वास दिखाने
लगते हैं, ख़ासकर
तब, जब
सवाल असुविधाजनक हों या फिर उनके ख़ुद के नज़रिए से मेल न खाते हों।
डिजिटल युग में झूठी सूचना
डिजिटल युग में झूठी सूचना छापना पहले से कहीं ज़्यादा आसान
हो गया है। इन्हें चंद मिनटों में ही बड़े पैमाने पर शेयर किया जाता है और सच की
तरह देखा जाता है। ठीक उसी तरह जैसे कि आनन-फ़ानन में रीयल टाइम पे न्यूज़ ब्रेक
किया जाता है। एक मिसाल लेते हैं। नवंबर 2015 में पेरिस आतंकी हमलों के वक़्त सोशल
मीडिया पर एक अफ़वाह तेज़ी से फैली कि लौवरे और पोंपीडो सेंटर पर हमला हुआ है और
इसमें फ्राक्वा ओलांद को चोट आई है। विश्वसनीय न्यूज़ संस्थानों की ज़िम्मेदारी बनती
है कि ऐसी कहानियों का पर्दाफाश करे।
सोशल मीडिया ने झूठ को पंख लगा दिया |
कई दफ़ा इस तरह की अफ़वाह खलबली के चलते फैलती है, कई
बार द्वेष में फैलाई जाती है तो कई बार जान-बूझकर तोड़-मरोड़कर सूचनाएं जारी की
जाती हैं। इसमें कोई कॉरपोरेशन या फिर व्यवस्था लोगों को ऐसे संदेश भेजने के लिए
भुगतान तक करती है। इरादा जो भी हो, लेकिन तथ्य और ऐसे झूठ दोनों ही एक ही रास्ते
फैल रहे हैं, जिन्हें
अकादमिक जगत के लोग “सूचना
प्रपात” कहते
हैं। क़ानूनविद और ऑन-लाइन उत्पीड़न मामलों के जानकार डेनियल सिट्रॉन बताते हैं कि
“ये
सूचनाएं झूठी हो सकती हैं, अधूरी हो सकती हैं या प्रपंचकारी हो सकती हैं, ये
जानने के बावजूद लोग दूसरों को ऐसे संदेश फॉरवर्ड करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है
कि उन्होंने कुछ तो गुणात्मक सीखा।” यह चक्र अपने-आप घूमता रहता है और इससे पहले कि
आप जान पाए, सूचना
का जलप्रपात अबाध रूप से फैल चुका होता है। आपने अपने एक दोस्त की फेसबुक पोस्ट को
शेयर किया, शायद
दोस्ती में या फिर उससे सहमति के चलते या फिर हो सकता है कि ‘आपकी
उस विषय में रुचि है’ इसलिए
किया, लेकिन
जैसे ही आपने शेयर किया तो दूसरे लोगों तक उस पोस्ट की पहुंच आपने बढ़ा दी।
“फिल्टर बबल” की खोज
फेसबुक की न्यूज़ फीड को बनाने वाली एलगोरिद्म्स ऐसे डिजाइन
की गई है जो हमें वही दिखाती है, जिसे वो मानती है कि हम देखना चाहते हैं। इसका
मतलब ये कि ख़ुद की जिस दुनिया से रोज़ाना हम दो-चार होते हैं उससे पैदा होने वाला यक़ीन (जोकि हमारे भीतर पहले से मौजूद रहता है) को ये और पुख़्ता बनाने का काम
करता है। 2011 में अपवर्दी के सह-संस्थापक एली पैरिज़र ने “फिल्टर
बबल” नाम
के एक पद की खोज की। इसके ज़रिए उन्होंने व्यक्तिकेंद्रित वेब के बारे में हमें
बताया। ख़ासकर गूगल के व्यक्तिकेंद्रित सर्च फंक्शन के बारे में। इसका मतलब ये हुआ
कि किसी भी दो व्यक्ति के गूगल सर्च का नतीजा एक जैसा नहीं होगा। यानी, उन
सूचनाओं की हम तक पहुंच कम हैं जो हमें चुनौती देती हों या फिर हमारे विश्व
दृष्टिकोण को और बड़ा कर रही हो।
पैरिज़र ने कहा कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म चलाने वालों को
ये सुनिश्चित करना चाहिए कि “उनका एलगोरिद्म्स महत्वपूर्ण विरोधी विचारों और
ख़बरों को भी प्राथमिकता दे और सिर्फ़ उन्हीं सामग्रियों को हम तक न पहुंचाए जो
लोकप्रिय हो या फिर ख़ुद के यक़ीन को और पुख़्ता बनाने वाली हों”।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का आप शुक्रिया अदा कीजिए कि पैरिज़र ने जिस ‘फिल्टर
बबल’ की
बात कही वो पांच साल से भी कम समय के भीतर और ज़्यादा अतिरेकी हो गया है।
यूरोपियन यूनियन को लेकर जनमत संग्रह के एक दिन बाद ब्रिटिश
इंटरनेट एक्टिविस्ट और mySociety के संस्थापक टॉम स्टीनबर्ग ने एक फ़ेसबुक पोस्ट
में फिल्टर बबल को लेकर एक महत्वपूर्ण पोस्ट लिखी। उन्होंने सोशल नेटवर्क्स पर
सूचनाओं की बमबारी के गंभीर सामाजिक परिणाम पर प्रकाश डाला:
मैं बेहद उत्सुकता से फ़ेसबुक पर उन लोगों को खोज रहा हूं
जो ब्रेग्जिट की जीत का जश्न मना रहे हों, लेकिन फिल्टर बबल इतना मज़बूत है और फेसबुक की
कस्टम सर्च इतनी संकरी है कि मैं खुश होने वाले किसी भी व्यक्ति को खोज नहीं पाया।
इस तथ्य के बावजूद कि आधा देश इस वक़्त ज़रूर जश्न मना रहा होगा। और इस तथ्य के
बावजूद भी कि मैं बहुत सक्रियता के साथ उन्हें ढूंढ रहा हूं और जानना चाहता हूं कि
वे इस वक़्त क्या कह रहे हैं। ये समस्या इतनी तगड़ी और इतनी भयानक है कि मैं
फ़ेसबुक और इसी तरह के बड़े सोशल मीडिया और तकनीक वाली कंपनियों के लिए काम करने
वाले दोस्तों से सिर्फ़ ये कह सकता हूं कि वो अपने अधिकारियों से फौरन कहें कि अब
अगर वो इस पर कार्रवाई नहीं किए तो मामला पहाड़ की तरह बड़ा हो जाएगा। ये एक तरह
का गूंज-कक्ष है जहां लोग अपनी ही तुरही बजाते रहते हैं। असल में इसने समाज के
ताने-बाने को तार-तार कर दिया है। हम एक ऐसे मुल्क में रह रहे हैं जहां आधे लोग
दूसरे आधे के बारे में कुछ नहीं जानते।
लेकिन तकनीक कंपनियों से फिल्टर बबल को लेकर “कुछ
करने” की
अपील से ऐसा लगता है जैसे इस समस्या का आसानी से निपटारा हो सकता हो, जबकि
सोशल नेटवर्क्स पर निर्भर रहने के विचार को बुना ही ऐसे गया है कि आप और आपके
दोस्त जो देखने चाहते हैं वही दिखे।
फेसबुक
की शुरुआत और पत्रकारिता पर सोशल मीडिया का भूकंपीय प्रभाव
2004 में फेसबुक की शुरुआत हुई और इस वक़्त दुनिया भर में
इसके एक अरब 60 करोड़ यूजर्स हैं। लोगों के लिए ख़बर जानने का ये बड़ा स्रोत बनकर
उभरा है और अगर अख़बार के दौर से इसकी तुलना करें तो इसकी शक्ति को आंकना तकरीबन
नामुमकिन है। एमिली बेल ने लिखा है, “सोशल मीडिया ने न सिर्फ़ पत्रकारिता बल्कि हर
चीज़ को निगल लिया है। इसमें राजनीतिक अभियान, बैंकिंग सिस्टम, वैयक्तिक इतिहास से लेकर लीज़र इंडस्ट्री और
यहां तक कि सरकार और सुरक्षा तक शामिल हैं।”
डोनाल्ड ट्रम्प ने कैंपेन के दौरान कई झूठे दावे किए |
कोलंबिया विश्वविद्यालय में टो सेंटर फॉर डिजिटल जर्नलिज़्म
की निदेशक और स्कॉट ट्रस्ट की बोर्ड सदस्य बेल, जोकि गार्डियन की मालकिन भी हैं, ने
पत्रकारिता पर सोशल मीडिया के भूकंपीय प्रभाव का वर्णन किया। उन्होंने मार्च में
लिखा, “पिछले
पांच सौ साल में शायद न्यूज़ जितनी नहीं बदली उससे ज़्यादा संभवत: पिछले पांच साल
में ख़बरों का इकोसिस्टम नाटकीय तरीके से बदल चुका है।” पब्लिशिंग
का भविष्य “कुछ
लोगों के हाथों में रह गया है और वो कई लोगों की क़िस्मत तय कर रहे हैं।” न्यूज़
पब्लिशर्स ने पत्रकारिता के वितरण के ऊपर से नियंत्रण खो दिया है और अब ज़्यादातर
पाठकों के लिए यह “एल्गोरिद्म
के ज़रिए छनकर कुछ ऐसे प्लेटफ़ॉर्मस के द्वारा पहुंच रहा है जोकि अपारदर्शी और
अप्रत्याशित हैं।” इसका
मतलब है कि सोशल मीडिया कंपनियां अब इस मामले में अपार शक्तिशाली हो चुकी हैं कि
वो तय करे कि हमें क्या पढ़ना है और दिलचस्प ये है कि ये दूसरों को काम के ज़रिए
मुनाफ़ा कमा रही हैं। बेल के मुताबिक़ “अतीत के किसी भी कालखंड के मुकाबले शक्ति का
इतना भारी संचयन कभी नहीं हुआ था।”
संपादकों द्वारा छापी गई चीज़ों को दोस्तों, परिचितों
या परिजनों द्वारा पसंद की गई सूचनाओं के ज़रिए प्रतिस्थापित कर दिया जा रहा है, जिसका
बेहद गुप्त एल्गोरिद्म है। खुले और वृहत्तर वेब का जो विचार था, जिसमें
साइट दर साइट हाइपरलिंक्स के ज़रिए सूचना का ग़ैर-सोपानीकृत और विकेंद्रीकृत
नेटवर्क तैयार होता था, वो अब बदल चुका है। अब इन प्लेफॉर्म्स के ज़रिए
उनके वॉल घूमने में आपका सबसे ज़्यादा वक़्त गुजरता है और इनमें से भी कुछ (जैसे
इंस्टाग्राम और स्नैपचैट) तो बाहरी लिंक्स को वहां आने ही नहीं देते।
ज़्यादातर लोग, ख़ासकर किशोर, अब ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त क्लोज्ड चैट ऐप्स
में गुजार रहे हैं। इनमें यूजर्स के पास नया समूह बनाकर निजी संदेश साझा करने का
विकल्प रहता है। ऐसा शायद इसलिए होता है क्योंकि नौजवान लोगों को ऑनलाइन उत्पीड़न
के ज़्यादा मामलों से गुजरना पड़ता है और इसलिए वो सोशल स्पेस को सतर्कतापूर्वक
संरक्षित तरीके से इस्तेमाल करने की तरफ़ बढ़ रहे हैं। लेकिन, इन
चैट ऐप्स की सीमित जगहों ने फेसबुक या इस तरह के दूसरे सोशल नेटवर्क्स से भी
ज़्यादा संकुचित दरबा तैयार किया है।
ऑनलाइन गतिविधियों के लिए तेहरान की जेल में छह साल गुजारने
वाले इरानी ब्लॉगर हुसैन डेरक हसन ने साल की शुरुआत में गार्डियन में लिखा “वर्ल्ड
वाइड वेब ने असल में जिस विविधता की कल्पना की थी वो अब सूचना के केंद्रीकरण की
तरफ़ बढ़ गया है।” सोशल
नेटवर्किंग साइट्स “हमें
सरकार या निगमों के मुकाबले और शक्तिहीन बनाने में जुटी हैं।”
निश्चित तौर पर फेसबुक सीधे-सीधे ये तय नहीं करता कि हमें
क्या पढ़ना है, कम
से कम शास्त्रीय अर्थों में तो बिल्कुल भी नहीं। न ही यह ये तय करता है कि कौन सा
मीडिया घराना क्या ख़बर बनाए। लेकिन जब इस तरह के ऑनलाइन प्लेटफॉर्म सूचना तक
पहुंच बनाने का शक्तिशाली ज़रिया बन जाएगा तो मीडिया घराने भी इस माध्यम की मांग
के मुताबिक़ ख़बर बनाने में जुट जाते हैं। (पृष्ठ को कितने लोगों ने देखा इस मामले
में एल्गोरिद्म में जो बदलाव किए जाते हैं उसे पत्रकारिता पर फेसबुक के सबसे
ज़्यादा दिखने वाले असर के नमूने के तौर पर देखा जा सकता है।)
जंक-फूड
न्यूज़
पिछले कुछ वर्षों में कई मीडिया घरानों ने ख़ुद को जनहित की
पत्रकारिता के बदले जंक-फूड न्यूज़ में तब्दील कर लिया है जिसमें विज्ञापन या फिर
निवेश के लिए पेज पर क्लिक्स को आकर्षित करने की तमाम कोशिशें की जाती हैं। लेकिन
जिस तरह आप जंक फूड खाते समय उसे कोसते हैं ठीक उसी तरह ऐसा करते हुए भी आप ख़ुद
को कोसते हैं। इसका सबसे अतिवादी उदाहरण झूठी ख़बरें फैलाने वाले संस्थान हैं जोकि
झूठी ख़बरों की मार्फ़त पाठकों को आकर्षित करती हैं। ये झूठी ख़बरें असल ख़बर की
तरह दिखती हैं और इसलिए सोशल मीडिया पर इन्हें खूब शेयर किया जाता है। यही
सिद्धांत उन ख़बरों पर भी लागू होता है जोकि भ्रामक या फिर सनसनीखेज तरीके से अपनी
नीयत में बेइमान हो। भले ही जानबूझ कर भ्रम फैलाने के इरादे से ऐसी ख़बरें न जारी
की गईं हो, लेकिन
गुणवत्ता या सच के बदले जब वायरल होने को कई संस्थानों में पैमाना बनाया जाएगा, तो
अगला रास्ता यहीं पहुंचेगा।
ट्रम्प के कई चेहरे |
निश्चित तौर पर अतीत में भी पत्रकारिता ने बहुत सारी
ग़लतियां की हैं, या
तो चूक के चलते या फिर पूर्वाग्रह में या फिर जानबूझकर। इसलिए यह कहना ग़लत होगा
कि ये चलन डिजिटल युग की परिघटना है। लेकिन आज जो चीज़ नई और महत्वपूर्ण है वो ये
कि अफवाह और झूठ को भी उसी तरह पढ़ा जा रहा है जैसे कि मज़बूत तथ्यों को। और
मजेदार ये है कि कई बार ऐसे झूठ को तथ्यों से भी ज़्यादा फैलाया जाता है क्योंकि
ये इतने ज़्यादा चटपटे और उत्तेजनापूर्ण होते हैं कि लोग शेयर करने से ख़ुद को रोक
नहीं पाते। इस दृष्टिकोण के पागलपन को सबसे असरदार तरीके से नीज़न ज़िम्मरमैन
(जोकि जॉकर में हाई-ट्रैफिक वायर स्टोरीज़ के विशेषज्ञ थे) ने बताया। उन्होंने
2014 में कहा “आजकल
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि स्टोरी कितनी सच्ची है, महत्व
बस एक ही चीज़ का है कि लोग उस पर क्लिक कर रहे हैं कि नहीं।” उन्होंने
कहा कि तथ्यों का दौर बीत चुका है; वो प्रिंटिंग प्रेस के ज़माने का अवशेष है जब
पाठकों के पास कोई विकल्प नहीं होता था। उन्होंने आगे कहा “अगर
कोई व्यक्ति कोई न्यूज़ स्टोरी शेयर नहीं कर रहा है तो मूल रूप से ये कोई न्यूज़
स्टोरी है ही नहीं।”
इस दृष्टिकोण का बढ़ता प्रसार बताता है कि पत्रकारिता के
मूल्यों में बुनियादी बदलाव के बीच हम खड़े हैं। यह एक उपभोक्तावादी बदलाव है।
सामाजिक ताने-बाने को मज़बूत बनाने, एक सूचनाबद्ध अवाम तैयार करने, सामाजिक
वस्तु के तौर पर न्यूज़ के विचार को देखने या फिर लोकतांत्रिक ज़रूरतों के बजाए यह
शोरगुल पैदा कर रही है, तेज़ी से फैलने वाले झूठ जो दूसरों के विचार के
साथ मेल खाती हो, उसको
फैलाती है, एक-दूसरे
के समान यक़ीन को और मज़बूत बनाती है और विचारों के आधार पर एक-दूसरों को और
ज़्यादा बांट रही है। तथ्यों से दूर-दूर तक इसका कोई नाता नहीं रह गया है।
क्लिक्स पर निर्भर बिजनेस मॉडल
लेकिन सबसे चिंताजनक बात ये है कि ज़्यादातर डिजिटल न्यूज़
संस्थानों का बिजनेस मॉडल क्लिक्स के ऊपर निर्भर करता है। दुनिया भर का मीडिया
घराना फ़िलहाल इसी चक्रीय पागलपन भरे उबाल से गुज़र रहा है ताकि उसे डिजिटल
विज्ञापन और पैसे मिल पाए। (और विज्ञापन भी ज़्यादा नहीं मिल पा रहे। 2016 की पहली
चौथाई में अमेरिका में ऑनलाइन विज्ञापन में प्रति एक डॉलर का 85 फ़ीसदी हिस्सा
गूगल और फेसबुक के खाते में चला गया। पहले ये न्यूज़ पब्लिसर्स के खातों में आता
था।)
आपके फोन की न्यूज़ फीड में सारी ख़बरें एक सी दिखती हैं, चाहे
वो किसी भरोसमंद स्रोत से आई हो या कहीं और से। तिस पर मज़ेदार ये है कि भरोसेमंद
स्रोत भी झूठी, भ्रामक
और जानबूझकर ग़लत ख़बरें प्रकाशित करने में लग गए हैं। पर्दाफाश करने वाली वेबसाइट
स्नोप्स के संपादक ब्रूक बिंकोवस्की ने अप्रैल में गार्डियन को दिए गए एक
साक्षात्कार में कहा “क्लिक्स ही आजकल न्यूज़रूम का शहंशाह है और
इसके चलते कई बार इतनी भद्दी सामग्री छपती है कि विश्वसनीयता को वो मिट्टी में
मिला देती है।”उन्होंने
आगे कहा “सारे
न्यूज़रूम तो नहीं, लेकिन
ज़्यादातर ऐसे ही हैं।”
सोशल मीडिया ने अफ़वाहों का बाज़ार बढ़ा दिया |
क्लिक को आकर्षित करने वाले किसी भी डिजिटल शीर्षक को खारिज
करने से पहले लोगों को सतर्क रहना चाहिए। आकर्षक शीर्षक अच्छी चीज़ है अगर वो
पाठकों को गुणवत्तापूर्ण पत्रकारिता दे रहा हो। मेरे ख़्याल में अच्छी पत्रकारिता
और बुरी पत्रकारिता को अलग करने वाली जो सबसे अहम चीज़ है, वो
है मेहनत। लोग ऐसी पत्रकारिता की बहुत इज़्ज़त करते हैं जिसमें वो दूसरों को बता
सके कि स्टोरी में बहुत मेहनत की गई थी। जहां उन्हें लगे कि पत्रकार ने वो मेहनत
उनके लिए की है। चाहे वो काम बड़ा हो या छोटा, महत्वपूर्ण हो या मनोरंजनपूर्ण। कथित “चर्नलिज़्म” के
ये उलट है जिसमें क्लिक पाने के लिए दूसरों की स्टोरी को रंग-रोगन लगाकर परोस दिया
जाता है।
डिजिटल विज्ञापन का मॉडल इस वक़्त सही और ग़लत में फर्क
नहीं देख रहा। वो बस बड़े और छोटे के बीच अंतर करता है। 2013 में एक खूब शेयर होने
वाली फर्जी स्टोरी के बारे में अमेरिकी राजनीतिक रिपोर्टर डेव वीगल ने लिखा “ये
इतनी अच्छी स्टोरी है कि इसकी जांच तक की दरकार नहीं है- ऐसी चेतावनी अख़बार के
संपादकों को पहले से जारी करनी चाहिए ताकि कोई भी बकवास ख़बरों पर न कूद पड़े।
आजकल यह बिजनेस मॉडल बन चुका है।”
न्यूज़ पब्लिशिंग उद्योग बेतहाशा उन सभी ओछे क्लिक्स पर
नज़र रख रहा है ताकि ये लगे कि उद्योग की शक्ति अभी बरकरार है और बिजनेस के तौर पर
न्यूज़ छपाई का धंधा संकट में नहीं है। डिजिटल पब्लिकेशन पत्रकारिता के लिए
रोमांचक विकास है। जैसा कि मैंने 2013 में मेलबर्न विश्वविद्यालय में एएन स्मिथ व्याख्यान
में कहा“पाठकों
के इस उदय ने पत्रकारों और पाठकों के बीच के संबंध को बिल्कुल बदल दिया है। समाज
और ख़ुद की हैसियत के बारे में हमारी समझदारी को पलट दिया है।”इसका
मतलब ये है कि इसने हमें स्टोरीज़ तक पहुंचने का नया स्रोत दिया है; पाठकों
से, आंकड़ों
से और सोशल मीडिया से। इसने हमें स्टोरी कहने का नया तरीका दिया है- परस्पर संवाद
वाली तकनीक और अब वर्चुअल रियलिटी। इसने हमें पत्रकारिता में वितरण का नया रास्ता
दिखाया है, कई
अनूठी जगहों पर नए पाठकों को ढूंढने का और पाठकों से साथ जुड़ने का नया मंच दिया
है, इसने
हमें बहस और चुनौती का नया अड्डा दिया है।
बिजनेस मॉडल ख़तरे में
एक तरफ़ पिछले कुछ वर्षों के डिजिटल विकास से जहां
पत्रकारिता के लिए संभावनाएं मज़बूत हुई हैं, वहीं इसका बिजनेस मॉडल ख़तरे में आ गया है
क्योंकि अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपको कितने क्लिक्स मिले। जितने भी मिले
हों, लेकिन
आपको और ज़्यादा की दरकार बनी रहती है। और अगर आप अपनी पत्रकारिता के लिए पाठकों
से भुगतान चाहते हैं तो उन्हें लुभाना आपके लिए बड़ी चुनौती होगी क्योंकि पाठकों
को मुफ़्त में पढ़ने की आदत पड़ चुकी है।
हर जगह न्यूज़ पब्लिसर्स का मुनाफ़ा और राजस्व बुरी तरह
गिरा है। आप डिजिटल मीडिया की नई सच्चाई को कोरे ढंग से समझना चाहते हैं तो इस साल
हफ़्ते भर के अंतर में जारी की गई
न्यूयॉर्क टाइम्स और फ़ेसबुक की पहली चौथाई की वित्तीय रिपोर्ट देखिए। न्यूयॉर्क
टाइम्स ने कहा कि उसका परिचालन लाभ 13 फ़ीसदी गिरकर 5 करोड़ 15 लाख डॉलर रह गया
है। हालांकि ये बाक़ी पब्लिशिंग उद्योग से ज़्यादा है, लेकिन
गिरावट तो है ही। दूसरी तरफ़ फेसबुक ने कहा इस दौरान उसकी शुद्ध आय तीन गुना बढ़कर
151 करोड़ डॉलर हो गई है।
दुनिया भर में ख़बरें पहुंचाना अब आसान है। |
पिछले दशक में कई पत्रकारों की नौकरियां गईं। 2001 से तुलना
करें तो 2010 में ब्रिटेन में पत्रकारों की संख्या एक तिहाई रह गई है। 2006 से
2013 के बीच अमेरिकी न्यूज़रूम में भी लगभग ऐसी ही गिरावट देखी गई। ऑस्ट्रेलिया
में 2012 से 2014 के दरम्यान पत्रकारों की नौकरियों में 20 फ़ीसदी की गिरावट देखी
गई। इस साल की शुरुआत में गार्डियन में हमें कहना पड़ा कि हम 100 पत्रकारों की सीट
ख़त्म करना चाहते हैं। प्रेस गजट के शोध के मुताबिक़ 2005 से अब तक ब्रिटेन में
181 स्थानीय अख़बार बंद हो चुके हैं। इन सबका संबंध पत्रकारिता से नहीं बल्कि
फंडिंग से है।
लेकिन पत्रकारों की नौकरियां जाना सिर्फ़ पत्रकारों की
मुश्किलों तक महदूद नहीं है, बल्कि समूची संस्कृति पर इसका बुरा प्रभाव
पड़ेगा। जैसा कि 2007 में जर्मन दर्शनशास्त्री जुआन हैबरमास ने कहा “जब
पुनर्निमाण और लागत में कटौती पत्रकारिता के बने-बनाए मानकों को पंगु बनाने का काम
करें तो ये राजनीतिक पब्लिक स्फीयर के केंद्र पर चोट करता है। किसी वृहद शोध के
बगैर हासिल सूचना का फैलाव या फिर तजुर्बे के बगैर हासिल दलील जब फैलती है तो
राजनीतिक संचार एक तरह से अपना असंबद्ध प्राण गंवा बैठता है। अवाम का मीडिया तब
लोकलुभावन प्रवृत्तियों की तरफ झुकने से ख़ुद को रोक नहीं पाता और इस तरह वो
लोकतांत्रिक और संवैधानिक राष्ट्र राज्य में अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा करने में
नाकाम होने लगता है।”
शायद न्यूज़ उद्योग का ध्यान व्यावसायिक तौर पर नई खोज की
तरफ़ झुकना चाहिए ताकि पत्रकारिता की फंडिंग को बचाया जा सके जोकि इस वक़्त ख़तरे
में है। पिछले दो डिजिटल दशकों में पत्रकारिता ने कई रोमांचक नवीनता देखी है, लेकिन
बिजनेस मॉडल ने एक भी नहीं। अपने दोस्त और गार्डियन के एक्जिक्यूटिव एडिटर फॉर
ऑडिएंस मैरी हैमिल्टन के शब्दों में कहें तो “हमने पत्रकारिता के लिए तो सबकुछ बदल दिया, लेकिन
बिजनेस के लिए ऐसा नहीं कर पाए।”
बिजनेस मॉडल में संकट का पत्रकारिता पर बहुत गहरा असर है।
क्लिक्स की ख़ातिर सटीक और यथार्थ ख़बरों के बदले हमें चटपटी ख़बरों की ओर जाना
पड़ता है। न्यूज़ घरानों ने अपने उस बुनियादी उसूलों को ताक पर रख दिया है जिसके
लिए वो बने हैं; सच्चाई
की पड़ताल कर पाठकों को उसके बारे में बताना। रिपोर्ट करना, रिपोर्ट
करना और बस रिपोर्ट करना।
लोकहित
की पत्रकारिता की जरूरत
ज़्यादातर न्यूज़रूम अभी उस चीज़ को खोने के संकट के दौर से
गुजर रहा है जो पत्रकारिता के लिए सबसे ज़्यादा मायने रखती हैं। गलियों की खाक़
छानना, अहम
जानकारियों और आंकड़ों के मायाजाल में से कुछ ऐसा निकाल लेना जो लोकहित के लिए
ज़रूरी हों, छुपी
हुई बातें जानने के लिए चुनौतीपूर्ण कड़े सवाल पूछना। लोकहित की गंभीर पत्रकारिता
की इस वक़्त उतनी दरकार है जितनी पहले कभी नहीं रही। यह शक्तिशाली लोगों को
ईमानदार बनाने और लोगों को उनकी जगह और दुनिया के बारे में बताने में मदद करती है।
लोकतंत्र के लिए विश्वसनीय सूचना और आंकड़े बेहद ज़रूरी है और डिजिटल युग ने तो
इसे और ज़रूरी बना दिया है।
लेकिन इस गुलाबी रोशनी में हो रहे चिल्ल-पों से इतिहास को
हमें ढंकना नहीं चाहिए। अप्रैल के आख़िर में दो साल की लंबी पड़ताल के बाद आए
अदालती फ़ैसले में ये माना गया कि 1989 में हिल्सबोरो दुर्घटना (फुटबॉल के मैदान
में भगदड़ से हुई मौत) में जो 96 लोग मारे गए थे वो एक तरह की ग़ैरक़ानूनी हत्या
थी। ये फ़ैसला पीड़ित परिवारों के 27 साल के अथक अभियान का नतीजा है जिसे क़रीब दो
दशकों तक विस्तृत और संवेदनशील ब्यौरे के साथ गार्डियन के पत्रकार डेविड कॉन ने
रिपोर्ट किया। उनकी पत्रकारिता ने सच्चाई को परत-दर-परत उघाड़ने में मदद की कि
आख़िरकार हिल्सबोरो में हुआ क्या था और उसके बाद पुलिस ने कवर-अप में क्या-क्या
कहा ये सब सामने आया। शक्तिहीन के पक्ष में शक्तिशाली लोगों को ज़िम्मेदार ठहराने
की साहसिक पत्रकारिता की ये नज़ीर है।
मीडिया दिमाग़ में कुछ भी भर सकता है। |
तीन दशकों तक पीड़ितों के परिवार ने जिसके ख़िलाफ़ अभियान
चलाया वो ‘सन’ (ब्रिटेन
का जाना-माना अख़बार) द्वारा फैलाया गया झूठ था। इस टेबलॉयड के आक्रामक दक्षिणपंथी
संपादक केल्विन मैकेंज़े ने इस हादसे के लिए फैन्स को ज़िम्मेदार ठहराया था और कहा
था कि बिना टिकट के वो लोग मैदान में घुस आए थे। बाद में यह दावा कोरा झूठ साबित
हुआ। सन के रिपोर्टर हॉरी और चिपिंडेल द्वारा की गई रिपोर्ट्स के ज़रिए अख़बार के
संपादक मैकेंज़े ने ख़ुद अपने पुराने रिपोर्टरों की रिपोर्ट्स को ख़ारिज करते हुए
पहले पन्ने पर “द
ट्रुथ” जैसे
शब्द के साथ ख़बरें चलाईं और आरोप लगाया कि लिवरपुल के समर्थक नशे में थे और उन
लोगों ने पीड़ितों की जेब काटी, उन्हें मारा-पीटा और पुलिस अधिकारियों के ऊपर
पेशाब किया और यहां तक कि उन लोगों ने एक मृत महिला पीड़ित के साथ सेक्स करने की
इच्छा जताते हुए हल्ला मचाया। समर्थकों ने कहा कि “एक उच्च रैंक के पुलिस अधिकारी जानवरों की तरह
व्यवहार कर रहा था”।
चिपिंडेल और हॉरी की रिपोर्ट मैकेंज़े के फॉर्मूला में बिल्कुल फिट बैठने वाली थी।
असल में उस फॉर्मूले का ये “शास्त्रीय उदाहरण” था
जोकि अधकचरी जानकारी और पूर्वाग्रहों के आधार पर चलाई गई और पूरे देश में उसका
हल्ला मचा दिया गया।
अब यह कल्पना करना भी मुमकिन नहीं लगता कि हिल्सबोरो आज घट
सकती है। अब अगर 53 हज़ार स्मार्टफोन के सामने 96 लोग मर जाएं तो वहां मौजूद लोग
फोटोग्राफ और सबूत से पूरे सोशल मीडिया को पाट देंगे। क्या अब सच्चाई जानने के लिए
इतना इंतजार करना पड़ेगा? आज ये मुमकिन नहीं है कि पुलिस या फिर केल्विन
मैकेंज़े इतने लंबे समय तक कोरा झूठ बोलते रहे।
न्यूज़
के पारंपरिक मूल्य
सच तक पहुंचना एक संघर्ष है। इसमें बहुत मेहनत लगती है।
लेकिन इस मेहनत का मोल है। न्यूज़ के पारंपरिक मूल्य अहम हैं और इनके पक्ष में
खड़ा रहने की अभी दरकार है। मेरी नज़र में डिजिटल क्रांति ने इतना किया है कि
पत्रकारों को अब पाठकों के प्रति ज़्यादा ज़िम्मेदार रहना होगा। हिल्सबोरो स्टोरी
हमें बताती है कि पुराने मीडिया के पास ये क्षमता थी कि वो झूठ को फैलाता रहे। सच
की परत तक पहुंचने में वर्षों लग जाते थे। पत्रकारिता के पुराने पदानुक्रम इसमें
परास्त हुए हैं और इससे नई बहस भी पैदा हुई है और अंतत: इसने पत्रकारिता के उन
मठाधीशों को चुनौती दी है जिन्होंने अपने हितों के लिए मीडिया को मंच बनाया। लेकिन
सच को दबाने वाली फौरी और ताबड़तोड़ सूचना का ये दौर है। उल्लंघन से और उल्लंघन की
तरफ़ हम झुकते गए और एक-एक कर सारा पिछला भूलते गए। हर दिन क़यामत के दिन में
तब्दील होने लगा है।
लेकिन इसके साथ-साथ सूचना के इस मंच ने नस्लवादी, लिंगभेदी, शर्म, उत्पीड़न
के नए दरवाज़े खोल दिया है और दुनिया को ये बताया है कि सबसे ज़्यादा शोर वाला
भौंडा तर्क ही चल पाएगा। ये माहौल ख़ासकर महिलाओं और ग़ैर-श्वेतों के लिए बेहद
शत्रुतापूर्ण हो गया है। इससे साबित हुआ है कि भौतिक दुनिया की ग़ैर-बराबरी को
ऑनलाइन स्पेस पर कैसे फिर से पैदा किया जा सकता है। गार्डियन कोई अलग नहीं है और
इसलिए प्रधान संपादक बनने के बाद मेरी शुरुआती पहल थी “वेब
वी वांट” परियोजना, ताकि
गाली-गलौज की सामान्य ऑनलाइन संस्कृति से लड़ा जा सके और एक संस्थान के बतौर वेब
पर हम बेहतर और सभ्य बातचीत को शुरू कर सके।
सबसे अहम बात ये कि आज पत्रकारिता की चुनौती सिर्फ़ तकनीकी
नवीकरण या फिर नए बिजनेस मॉडल की तलाश भर नहीं है, बल्कि मीडिया घरानों को ये फिर से स्थापित करना
पड़ेगा कि जनविमर्श में पत्रकारिता का क्या स्थान है। यही वो चीज़ है जिस पर सबसे
ज़्यादा हमले हुए हैं और जिसे तार-तार करने की लगातार कोशिश हुई है। इस साल की दो
बड़ी घटना- ब्रेग्जिट के लिए मतदान और अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन
उम्मीदवार के तौर पर डोनल्ड ट्रंप का उदय-सिर्फ़ लोकलुभावन उत्थान का सह-उत्पाद
नहीं है और न ही ये वैश्विक पूंजीवाद में पीछे छूट चुके लोगों का विद्रोह।
साल की शुरुआत में अकादमिक ज़ेनेप टुफेकी ने एक निबंध में
कहा कि ट्रंप का उदय असल में “मास मीडिया की बढ़ रही कमज़ोरी का दिखने वाला
लक्षण है। ख़ासकर इस बात पर नियंत्रण कसने के मामले में कि क्या चीज़ कहे जाने के
योग्य हैं।” (ब्रेग्जिट
के बारे में भी यही बात कही जा सकती है) “दशकों से बड़े मीडिया संस्थानों में पत्रकारों
ने इस मामले में प्रहरी का काम किया है कि किस विचार की सार्वजनिक तौर पर चर्चा कर
सकते हैं और कौन से विचार बहुत क्रांतिकारी हैं (जिन पर सार्वजनिक चर्चा नहीं हो
सकती)” प्रहरी
की इस भूमिका का कमज़ोर पड़ना सकारात्मक भी है और नकारात्मक भी। इसके ख़तरे भी हैं
और संभावनाएं भी।
अतीत के उदाहरणों से हम देख सकते हैं कि पुराने प्रहरी भी
बहुत घातक होते थे और वो भी उन विचारों को रोकने का काम करते थे जिन्हें मुख्यधारा
की सहमत राजनीतिक विचारधारा से बाहर का माना जाता था। लेकिन सहमति के बग़ैर किसी
सच को स्थापित करना भी मुश्किल काम है। इन प्रहरियों की अवनति ने ट्रंप को ये
मौक़ा दिया कि वो उन मुद्दों को भी उठाए जिन्हें पहले वर्जना की श्रेणी में रखा
जाता था, जैसे
कि वैश्विक मुक्त-व्यापार, जिसमें मज़दूरों के बजाए निगमों को फ़ायदा
मिलेगा। अमेरिकी अभिजात्य वर्ग और मीडिया ने काफी पहले से इस पर बातचीत बंद कर दी
थी। ट्रंप के कोरे झूठ के फलने-फूलने को भी इसी नज़रिए से देखा जा सकता है।
चुनौतियां
ऐसे वक़्त में जब अभिजात्य और प्राधिकरण के ख़िलाफ़, मीडिया
समेत बड़े संस्थानों के ख़िलाफ़ प्रचलित मनोदशा खंड-खंड होने लगे, मेरे
ख़्याल से पत्रकारिता की मज़बूत संस्कृति के पक्ष में हमें लड़ना पड़ेगा। ऐसे ही
उस बिजनेस मॉडल के लिए लड़ना होगा जिससे ऐसा मीडिया संस्थान बन पाए जोकि सच की खोज
में शक्तिशाली लोगों की छान-बीन करने वाले जागृत अवाम बनाए, न
कि उन्हें अधकचरी सूचना दे, पीड़ितों पर और हमलावर बनाए। पारंपरिक न्यूज़
के मूल्यों का स्वागत किया जाना चाहिए। रिपोर्टिंग, तथ्यों की छान-बीन और चश्मदीदों के बयानों के
आधार पर सच्चाई की पड़ताल की कोशिश की जानी चाहिए।
हम इस मामले में खुशनसीब हैं कि हम उस दौर में जी रहे हैं
जहां की नई तकनीकों का इस्तेमाल कर सकते हैं और पाठकों को भी इसके बारे में बता
सकते हैं। लेकिन इसके साथ ही हमें डिजिटल संस्कृति की जड़ों से मुठभेड़ भी करना
होगा और ये भी महसूस करना होगा कि प्रिंट से डिजिटल मीडिया का सफर सिर्फ़ तकनीकी
मामला नहीं है। इन बदलावों के बाद पैदा हुए नए शक्ति-समीकरणों के बारे में भी हमें
सोचना होगा। तकनीक और मीडिया अलग-अलग नहीं रहते। ये समाज को नया आकार देने में
मददगार होते हैं। मतलब ये कि सभ्य, बराबर और नागरिक के तौर पर हम लोगों से मुठभेड़
करें। यह शक्तिशालियों को ज़िम्मेदार ठहराने, पब्लिक स्पेस के लिए लड़ने और उस दुनिया को
बनाने के लिए लड़ाई का हिस्सा है जिनमें हम वास्तव में रहना चाहते हैं।