20 अक्टूबर 2016

मोदी जी, ऐसे लड़ेंगे आतंकवाद से?

- दिलीप ख़ान

ब्रिक्स में भारत का सबसे बड़ा एजेंडा क्या था? इसका जवाब टीवी देखने वाला कोई भी व्यक्ति दे सकता है। हर कोई जानता है कि ब्रिक्स और बिम्सटेक देशों के नेताओं के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सबसे ज़्यादा पाकिस्तान और आतंकवाद की बात की। मोदी ने यहां तक कहा कि आतंकवाद की निंदा से आगे बढ़कर दुनिया को अब कार्रवाई की तरफ़ आगे बढ़ना चाहिए। दुनिया से भारत ने इस दिशा में सहयोग मांगा। उरी हमले के बाद जिस तरह का माहौल बना, उसमें भारत ने पहले ही ये संकेत दे दिया था कि ब्रिक्स सम्मेलन से पाकिस्तान को काटने के लिए सार्क के बदले बिम्सटेक देशों को न्यौता दिया जाएगा। न्यौता दिया गया और पाकिस्तान को सम्मेलन से काट दिया गया। अगर इसे कूटनीतिक जीत मान लें, तो उम्मीद बंधी थी कि ब्रिक्स में भारत लश्कर-ए-तैय्यबा समेत जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठनों के ख़िलाफ़ वैश्विक सहयोग हासिल करने में क़ामयाबी पाएगा। लेकिन क्या ये हो पाया?

ज़ाहिर है कि नहीं। गोवा घोषणापत्र में जिन आतंकवादी संगठनों के नाम हैं, वो हैं- ISIL और अल नुसरा। यहीं असल पेंच फंसता है। अल नुसरा के नाम पर ज़रा ग़ौर कीजिए। इस संगठन को अगर आपने फॉलो किया है, तो शायद इसके बारे में कुछ बुनियादी जानकारी आपको होगी। ये संगठन सीरिया में सक्रिय है और दावा करता है कि वो आईएस और सीरियन सरकार, दोनों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ रहा है। सीरिया में मोटे तौर पर तीन पार्टियां सक्रिय हैं।

1. सीरिया की बशर अल-असद सरकार। असद को रूस और ईरान का समर्थन हासिल है।
2. फ्री सीरियन आर्मी+ अल नुसरा+ अमेरिका+ फ्रांस+ सऊदी+ तुर्की+ और भी कई संगठन
3. आईएसआईएस

छोटी-मोटी और भी पार्टियां हैं, लेकिन मोटे तौर पर यही तीन गुट आपस में लड़ रहे हैं। बशर अल-असद सरकार बाक़ी दोनों से लड़ रही है। फ्री सीरियन आर्मी भी बाक़ी दोनों से और आईएसआईएस तो ज़ाहिर तौर पर बाक़ी दोनों से लड़ ही रहा है। यानी हर किसी के दो-दो दुश्मन हैं, लेकिन जब सवाल आता है ISIS का तो उसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रूस और अमेरिका दोनों ये दावा करते हैं कि वो सीरिया में ‘शांति बहाली’ और ISIS को नेस्तनाबूद करने के लिए बम बरसा रहे हैं।

पार्टी-1.


रूस अल नुसरा फ्रंट को आतंकवादी संगठन मानता है। फ्री सीरियन आर्मी में शामिल कई गुटों को रूस आतंकवादी मानता है। और यही वजह है कि ब्रिक्स सम्मेलन के बाद जारी गोवा घोषणापत्र में रूस ने अल नुसरा का नाम शामिल किया। अब सवाल ये है कि इसमें भारत कहां खड़ा है और कूटनीतिक तौर पर भारत का क्या स्टैंड है? या फिर साफ़-साफ़ कहें तो भारत कहां फंस रहा है?


पार्टी-2.


जहां रूस एक तरफ़ अल नुसरा को आतंकवादी संगठन मानता है, वहीं अमेरिका का रुख बिल्कुल उलट है। अमेरिका की रुचि ISIS के अलावा बशर अल-असद सरकार को उखाड़ फेंकना भी है। अल नुसरा फ्रंट बशर अल-असद सरकार के ख़िलाफ़ शुरू से सक्रिय रहा है। अमेरिका फ्री सीरियन आर्मी को आर्थिक सहायता और हथियार सप्लाई करता है। अल नुसरा भी इसी गुट में रहकर लड़ाई कर रहा है। ओबामा सरकार ने इस गुट को 50 करोड़ डॉलर की मदद की। सब कुछ ऑन रिकॉर्ड है।


भारत की मुश्किल


दिलचस्प ये है कि अल-क़ायदा ही सीरिया में अल नुसरा नाम से काम करता है। कुछ वक़्त पहले तक अमेरिका का दुनिया में सबसे बड़ा दुश्मन अल-क़ायदा था। फ़िलहाल ISIS है। अमेरिका सीधे तौर पर अल नुसरा के साथ गुटबंदी करने से इनकार करता रहा है, लेकिन फ्री सीरियन आर्मी के लड़ाके खुले तौर पर मानते हैं कि अल नुसरा का उन्हें समर्थन हासिल है और वो साथ में लड़ते हैं। यानी अमेरिका के सहयोगी का सहयोगी हुआ अल नुसरा। अब गोवा घोषणापत्र में अल नुसरा को आतंकवादी संगठन माना गया है।

भारत ने गोवा घोषणापत्र के मुताबिक़ आतंकवाद के ख़िलाफ़ कार्रवाई का संकल्प लिया है। लेकिन दिक़्क़त ये है कि भारत जब अमेरिका के साथ द्विपक्षीय या बहुपक्षीय मंचों पर बैठता है तो आतंक के ख़िलाफ़ लड़ाई में अमेरिका और भारत का एक ही रोडमैप हो जाता है। यानी अल नुसरा के ख़िलाफ़ जहां भारत एक तरफ़ कड़ी कार्रवाई की बात करता है, वहीं दूसरी तरफ़ अल नुसरा को बढ़ावा देने में मदद करने वाले अमेरिका को पार्टनर भी मानता है। ऐसे में कैसे होगी आतंक के ख़िलाफ़ लड़ाई?

17 अक्टूबर 2016

युद्ध की बात करने वाले देशद्रोही हैं

संदीप पाण्डेय
उड़ी हमले के जवाब में हुए सर्जिकल धावे के बाद, जिसके बारे में देश को ठीक से बताया नहीं जा रहा, भारत सरकार पाकिस्तान के खिलाफ लगभग विजयी मुद्रा में आ गई है। उसी तरह जैसे 1998 में 11 मई को पोकरण नाभिकीय परीक्षण के बाद। तब भी भाजपा नेताओं के स्वर चेतावनी से लेकर धमकी भरे थे। लेकिन महीना खत्म भी नहीं हुआ और पाकिस्तान ने भी नाभिकीय परीक्षण करके दिखा दिए। इसलिए जो भारतीय सेना के पराक्रम से आत्ममुग्ध हैं उन्हें सावधानी बरतनी चाहिए। भारत ने ऐसी कोई कार्यवाही नहीं की है कि पाकिस्तान हमेशा हमेशा के लिए भारत का लोहा मान लेगा। पोकरण के नाभिकीय परीक्षण के बाद भी भारतीय सरकार ने अपने नागरिकों को यह बताया था कि अब भारत के पास ऐसा शस्त्र आ गया है कि पाकिस्तान क्या अमरीका भी हमारी तरफ नजर उठा कर नहीं देखेगा। किंतु अटल बिहारी वाजपेयी का कार्यकाल खत्म होने से पहले ही कारगिल में घुसपैठ हो गई। 
      जिस तरह पोकरण के नाभिकीय परीक्षणों की वजह से भारत और पाकिस्तान के बीच एक नाभिकीय शस्त्रों की होड़ शुरू हो गई तो दोनों ही देशों, जिनके सामाजिक मानक दक्षिण एशिया में सबसे खराब हैं, के बहुमूल्य संसाधन जो आम गरीब जनता की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में लगने चाहिए थे, तबाही की सामग्री जुटाने में लग गए, उसी तरह भारत के सर्जिकल धावे से हथियारों की होड़ और तेज होगी। यह उम्मीद करना कि पाकिस्तान अब भारत पर हमले करने से बाज आएगा, पाकिस्तान को कम आंकना है। हथियारों की होड़ के साथ दिक्कत यह है कि वह कहां रुकेगी यह किसी को नहीं मालूम। जैसे जैसे प्रौद्योगिकी का विकास होगा एक से एक नवीन हथियार, जिनकी पेचीदगी भी बढ़कर होगी, बाजार में आएंगे। एक देश यदि इनमें से कोई हथियार खरीदता है तो दूसरे की मजबूरी हो जाती है कि वह भी उसे टक्कर देने वाला हथियार खरीदे। हथियार खरीदे तो जाते हैं सुरक्षित रहने के लिए लेकिन देखा यह जा रहा है कि हथियारों से असुरक्षा बढ़ जाती है। फिर हम और हथियार खरीदते हैं और इस तरह एक दुष्चक्र में फंस जाते हैं। पहले तो हमें सिर्फ अपनी चिंता होती है लेकिन फिर हथियारों की सुरक्षा की चिंता भी करनी पड़ती है। उदाहरण के लिए नाभिकीय हथियारों को सुरक्षित नहीं रखा गया तो उसके घोर विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं। अमरीका को इस बात की चिंता करनी पड़ती है कि कहीं पाकिस्तान के नाभिकीय हथियार इस्लामी आतंकवादियों के हाथ में न आ जाएं।
       भारत ने ऐसा माहौल निर्मित कर दिया है कि अब भारत और पाकिस्तान की मजबूरी है कि वे नवीनतम हथियारों को हासिल करने की नई होड़ में लगेंगे। फायदा होगा उन शक्तिशाली देशों जैसे अमरीका, इजराइल, रूस, चीन, फ्रांस, आदि, का जिनसे भारत और पाकिस्तान अपने हथियार खरीदेंगे। जिन संसाधनों से वंचित जनता के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, आवास, शौचालयों, आदि का इंतजाम हो सकता था, जिनसे बच्चों का कुपोषण दूर हो सकता था, वे मंहगे हथियारों को खरीदने में खपेंगे। अतः भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध का माहौल बनाना भी दोनों देशों की गरीब जनता के हितों के खिलाफ है।
      राजनाथ सिंह ने ऐलान किया है कि 2018 तक भारत-पाकिस्तान के बीच 3,323 किलोमीटर सीमा सील कर दी जाएगी। सीमाओं को इंसान ने बनाया है। हतिहास में ये बदलती रही हैं। भारत पाकिस्तान के बीच लोगों और सामग्री का आना जाना बना रहेगा क्यों कई परिवारों की रिश्तेदारियां और कई के धार्मिक स्थल सीमा के उस पार हैं। लोग सीमा के आर-पार जाना चाहते हैं। दोनों देश सांस्कृतिक रूप से एक हैं। दुनिया में और कोई देश नहीं है जहां उत्तर भारत के बड़े हिस्से में बोली जाने वाली भाषा, जिसे भारत में हिन्दी और पाकिस्तान में उर्दू कहते हैं, समझी जाती हो। यह बड़ी अजीब बात है कि यूरोप के देशों के बीच सीमाएं खत्म कर दी गई हैं और हम अपनी सीमा को पक्का बनाना चाहते हैं। पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के बीच दीवार गिर गई। हम दीवार खड़ी करना चाहते हैं। यदि भविष्य में कोई ऐसी सरकारें आती हैं जो मित्रता कर लें तो इन दीवारों पर खर्च होने वाला पैसा बेकार जाएगा। इसलिए कोशिश तो यह होनी चाहिए कि सीमा खुले, न कि बंद हो। दीवार दुश्मनी का प्रतीक है और सीमा खुल जाना मित्रता का। दुश्मनियां अस्थाई होती हैं, अल्पकालिक होती हैं, मित्रता और सम्बंध लम्बे समय के लिए होते हैं। इसलिए भारत सरकार द्वारा सीमा को पक्का बनाने का निर्णय एक अविवेकपूर्ण और जन-विरोधी निर्णय है। यह भी जनता के पैसे की बरबादी है। और क्या पक्की सीमा बन जाने से आतंकवादियों का आना रुक जाएगा? वे तो फिर भी आ सकते हैं। अतः हमें समाधान ऐसा चाहिए कि आतंकवादियों का आना ही बंद हो जाए।
       युद्ध में लोग मरते हैं। हमेशा सैनिक और आतंकवादी ही नहीं मरते। जैसे हमने हाल ही में कश्मीर में देखा सुरक्षा बलों की बंदूकों से छोटे बच्चे, महिलाएं, बूढ़े भी मरते हैं। सैनिक का परिवार भी नहीं चाहता कि उसे शहीद होना पड़े। वह उसे जिंदा वापस लौटते देखना चाहता है। उसका काम है सीमा की सुरक्षा करना। शहीद तो वह विशेष परिस्थिति में होता है। सरकारें वह परिस्थिति निर्मित करती हैं जिसमें सैनिक शहीद हो सकता है या सुरक्षित भी रह सकता है। यदि सरकारें पड़ोसी देश के साथ आपसी समस्याएं नहीं सुलझा पा रही तो सैनिकों को शहीद होना पड़ सकता है। यदि सरकारें समस्याओं को सुलझाने की मंशा रखती हैं तो सैनिकों को अपनी जान की बाजी नहीं लगानी पड़ेगी। युद्ध सरकार की असफलता का प्रतीक है और शांति उसकी सफलता का। जो सरकार अपने नागरिकों की परवाह करेगी वह कभी युद्ध नहीं चाहेगी। जो नागरिकों के प्रति असंवेदनशील है वही नागरिकों की जान खतरे में डालेगी।
       पूरे देश में युद्धोन्माद की परिथिति का निर्माण करना देशभक्ति नहीं बल्कि देशद्रोह है क्योंकि वह देश को बरबादी की तरफ ले जाएगा। यह किसी जिम्मेदार सरकार की निशानी नहीं जो ऐसी परिस्थिति बनने देती है। युद्ध या युद्ध का माहौल बनाने से सरकार और भारतीय जनता पार्टी को कुछ तात्कालिक फायदे मिल सकते हैं लेकिन लम्बे समय में आम जनता का नुकसान होगा।

लेखकः संदीप पाण्डेय
उपाध्यक्ष, सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया)
लोहिया मजदूर भवन, 41/557 तुफैल अहमद मार्ग, नरही, लखनऊ-226001
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