- दिलीप ख़ान
ब्रिक्स में भारत का सबसे बड़ा एजेंडा क्या था? इसका जवाब टीवी देखने वाला कोई भी व्यक्ति दे सकता है। हर कोई जानता है कि ब्रिक्स और बिम्सटेक देशों के नेताओं के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सबसे ज़्यादा पाकिस्तान और आतंकवाद की बात की। मोदी ने यहां तक कहा कि आतंकवाद की निंदा से आगे बढ़कर दुनिया को अब कार्रवाई की तरफ़ आगे बढ़ना चाहिए। दुनिया से भारत ने इस दिशा में सहयोग मांगा। उरी हमले के बाद जिस तरह का माहौल बना, उसमें भारत ने पहले ही ये संकेत दे दिया था कि ब्रिक्स सम्मेलन से पाकिस्तान को काटने के लिए सार्क के बदले बिम्सटेक देशों को न्यौता दिया जाएगा। न्यौता दिया गया और पाकिस्तान को सम्मेलन से काट दिया गया। अगर इसे कूटनीतिक जीत मान लें, तो उम्मीद बंधी थी कि ब्रिक्स में भारत लश्कर-ए-तैय्यबा समेत जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठनों के ख़िलाफ़ वैश्विक सहयोग हासिल करने में क़ामयाबी पाएगा। लेकिन क्या ये हो पाया?
ज़ाहिर है कि नहीं। गोवा घोषणापत्र में जिन आतंकवादी संगठनों के नाम हैं, वो हैं- ISIL और अल नुसरा। यहीं असल पेंच फंसता है। अल नुसरा के नाम पर ज़रा ग़ौर कीजिए। इस संगठन को अगर आपने फॉलो किया है, तो शायद इसके बारे में कुछ बुनियादी जानकारी आपको होगी। ये संगठन सीरिया में सक्रिय है और दावा करता है कि वो आईएस और सीरियन सरकार, दोनों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ रहा है। सीरिया में मोटे तौर पर तीन पार्टियां सक्रिय हैं।
1. सीरिया की बशर अल-असद सरकार। असद को रूस और ईरान का समर्थन हासिल है।
2. फ्री सीरियन आर्मी+ अल नुसरा+ अमेरिका+ फ्रांस+ सऊदी+ तुर्की+ और भी कई संगठन
3. आईएसआईएस
छोटी-मोटी और भी पार्टियां हैं, लेकिन मोटे तौर पर यही तीन गुट आपस में लड़ रहे हैं। बशर अल-असद सरकार बाक़ी दोनों से लड़ रही है। फ्री सीरियन आर्मी भी बाक़ी दोनों से और आईएसआईएस तो ज़ाहिर तौर पर बाक़ी दोनों से लड़ ही रहा है। यानी हर किसी के दो-दो दुश्मन हैं, लेकिन जब सवाल आता है ISIS का तो उसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रूस और अमेरिका दोनों ये दावा करते हैं कि वो सीरिया में ‘शांति बहाली’ और ISIS को नेस्तनाबूद करने के लिए बम बरसा रहे हैं।
रूस अल नुसरा फ्रंट को आतंकवादी संगठन मानता है। फ्री सीरियन आर्मी में शामिल कई गुटों को रूस आतंकवादी मानता है। और यही वजह है कि ब्रिक्स सम्मेलन के बाद जारी गोवा घोषणापत्र में रूस ने अल नुसरा का नाम शामिल किया। अब सवाल ये है कि इसमें भारत कहां खड़ा है और कूटनीतिक तौर पर भारत का क्या स्टैंड है? या फिर साफ़-साफ़ कहें तो भारत कहां फंस रहा है?
जहां रूस एक तरफ़ अल नुसरा को आतंकवादी संगठन मानता है, वहीं अमेरिका का रुख बिल्कुल उलट है। अमेरिका की रुचि ISIS के अलावा बशर अल-असद सरकार को उखाड़ फेंकना भी है। अल नुसरा फ्रंट बशर अल-असद सरकार के ख़िलाफ़ शुरू से सक्रिय रहा है। अमेरिका फ्री सीरियन आर्मी को आर्थिक सहायता और हथियार सप्लाई करता है। अल नुसरा भी इसी गुट में रहकर लड़ाई कर रहा है। ओबामा सरकार ने इस गुट को 50 करोड़ डॉलर की मदद की। सब कुछ ऑन रिकॉर्ड है।
दिलचस्प ये है कि अल-क़ायदा ही सीरिया में अल नुसरा नाम से काम करता है। कुछ वक़्त पहले तक अमेरिका का दुनिया में सबसे बड़ा दुश्मन अल-क़ायदा था। फ़िलहाल ISIS है। अमेरिका सीधे तौर पर अल नुसरा के साथ गुटबंदी करने से इनकार करता रहा है, लेकिन फ्री सीरियन आर्मी के लड़ाके खुले तौर पर मानते हैं कि अल नुसरा का उन्हें समर्थन हासिल है और वो साथ में लड़ते हैं। यानी अमेरिका के सहयोगी का सहयोगी हुआ अल नुसरा। अब गोवा घोषणापत्र में अल नुसरा को आतंकवादी संगठन माना गया है।
भारत ने गोवा घोषणापत्र के मुताबिक़ आतंकवाद के ख़िलाफ़ कार्रवाई का संकल्प लिया है। लेकिन दिक़्क़त ये है कि भारत जब अमेरिका के साथ द्विपक्षीय या बहुपक्षीय मंचों पर बैठता है तो आतंक के ख़िलाफ़ लड़ाई में अमेरिका और भारत का एक ही रोडमैप हो जाता है। यानी अल नुसरा के ख़िलाफ़ जहां भारत एक तरफ़ कड़ी कार्रवाई की बात करता है, वहीं दूसरी तरफ़ अल नुसरा को बढ़ावा देने में मदद करने वाले अमेरिका को पार्टनर भी मानता है। ऐसे में कैसे होगी आतंक के ख़िलाफ़ लड़ाई?
ब्रिक्स में भारत का सबसे बड़ा एजेंडा क्या था? इसका जवाब टीवी देखने वाला कोई भी व्यक्ति दे सकता है। हर कोई जानता है कि ब्रिक्स और बिम्सटेक देशों के नेताओं के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सबसे ज़्यादा पाकिस्तान और आतंकवाद की बात की। मोदी ने यहां तक कहा कि आतंकवाद की निंदा से आगे बढ़कर दुनिया को अब कार्रवाई की तरफ़ आगे बढ़ना चाहिए। दुनिया से भारत ने इस दिशा में सहयोग मांगा। उरी हमले के बाद जिस तरह का माहौल बना, उसमें भारत ने पहले ही ये संकेत दे दिया था कि ब्रिक्स सम्मेलन से पाकिस्तान को काटने के लिए सार्क के बदले बिम्सटेक देशों को न्यौता दिया जाएगा। न्यौता दिया गया और पाकिस्तान को सम्मेलन से काट दिया गया। अगर इसे कूटनीतिक जीत मान लें, तो उम्मीद बंधी थी कि ब्रिक्स में भारत लश्कर-ए-तैय्यबा समेत जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठनों के ख़िलाफ़ वैश्विक सहयोग हासिल करने में क़ामयाबी पाएगा। लेकिन क्या ये हो पाया?
ज़ाहिर है कि नहीं। गोवा घोषणापत्र में जिन आतंकवादी संगठनों के नाम हैं, वो हैं- ISIL और अल नुसरा। यहीं असल पेंच फंसता है। अल नुसरा के नाम पर ज़रा ग़ौर कीजिए। इस संगठन को अगर आपने फॉलो किया है, तो शायद इसके बारे में कुछ बुनियादी जानकारी आपको होगी। ये संगठन सीरिया में सक्रिय है और दावा करता है कि वो आईएस और सीरियन सरकार, दोनों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ रहा है। सीरिया में मोटे तौर पर तीन पार्टियां सक्रिय हैं।
1. सीरिया की बशर अल-असद सरकार। असद को रूस और ईरान का समर्थन हासिल है।
2. फ्री सीरियन आर्मी+ अल नुसरा+ अमेरिका+ फ्रांस+ सऊदी+ तुर्की+ और भी कई संगठन
3. आईएसआईएस
छोटी-मोटी और भी पार्टियां हैं, लेकिन मोटे तौर पर यही तीन गुट आपस में लड़ रहे हैं। बशर अल-असद सरकार बाक़ी दोनों से लड़ रही है। फ्री सीरियन आर्मी भी बाक़ी दोनों से और आईएसआईएस तो ज़ाहिर तौर पर बाक़ी दोनों से लड़ ही रहा है। यानी हर किसी के दो-दो दुश्मन हैं, लेकिन जब सवाल आता है ISIS का तो उसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रूस और अमेरिका दोनों ये दावा करते हैं कि वो सीरिया में ‘शांति बहाली’ और ISIS को नेस्तनाबूद करने के लिए बम बरसा रहे हैं।
पार्टी-1.
पार्टी-2.
भारत की मुश्किल
दिलचस्प ये है कि अल-क़ायदा ही सीरिया में अल नुसरा नाम से काम करता है। कुछ वक़्त पहले तक अमेरिका का दुनिया में सबसे बड़ा दुश्मन अल-क़ायदा था। फ़िलहाल ISIS है। अमेरिका सीधे तौर पर अल नुसरा के साथ गुटबंदी करने से इनकार करता रहा है, लेकिन फ्री सीरियन आर्मी के लड़ाके खुले तौर पर मानते हैं कि अल नुसरा का उन्हें समर्थन हासिल है और वो साथ में लड़ते हैं। यानी अमेरिका के सहयोगी का सहयोगी हुआ अल नुसरा। अब गोवा घोषणापत्र में अल नुसरा को आतंकवादी संगठन माना गया है।
भारत ने गोवा घोषणापत्र के मुताबिक़ आतंकवाद के ख़िलाफ़ कार्रवाई का संकल्प लिया है। लेकिन दिक़्क़त ये है कि भारत जब अमेरिका के साथ द्विपक्षीय या बहुपक्षीय मंचों पर बैठता है तो आतंक के ख़िलाफ़ लड़ाई में अमेरिका और भारत का एक ही रोडमैप हो जाता है। यानी अल नुसरा के ख़िलाफ़ जहां भारत एक तरफ़ कड़ी कार्रवाई की बात करता है, वहीं दूसरी तरफ़ अल नुसरा को बढ़ावा देने में मदद करने वाले अमेरिका को पार्टनर भी मानता है। ऐसे में कैसे होगी आतंक के ख़िलाफ़ लड़ाई?