(ये ख़त 19 मार्च को लिखा गया है। लेखिका ने अभी भेजा तो देर से छाप रहा हूं- मॉडरेटर )
प्रिय सौरभ शर्मा,
मैं बहुत दिनों से तुमसे बात करने की सोच रही थी। परसों जब मैं JNU में अपनी बेटी से मिलने गई थी तो तुम मुझे दिखे भी थे। अनुपम खेर के लिए इंतजाम करने में मशगूल। सोचा भी कि तुमसे मिलकर आऊं, लेकिन तभी उमर और अनिर्बान की ज़मानत की ख़बर आई और देखते ही देखते एडमिन ब्लॉक पर लगने वाले नारों में मैंने ख़ुद को बह जाने दिया। उस खुशी का हिस्सा बन गई, जिसमें हमारी अगली पीढ़ी महफूज़ रहती है। पिछले कई दिनों (11 फरवरी ) से मैं ठीक से सो नहीं पाई थी। चिंता, परेशानी, डर, घृणा, अफ़सोस के साथ हतप्रभ थी। मैंने सोचा नहीं था मैं अपने जीवन में यह दिन देखूंगी। इमरजेंसी के समय मैं बहुत छोटी थी, कुछ भी याद नहीं है। बस सुना ही है उसके बारे में। लेकिन यह जो गुज़री हम सब पर यह भी कम ख़ौफ़नाक नहीं था। युद्ध जब युद्ध के नाम पर हो तब अपना पक्ष तय करना आसान होता है पर जब युद्ध प्रेम, संस्कृति, आस्था, शिक्षा, देश और विकास के नाम पर हो तो लड़ने के लिए बहुत ताक़त लगानी पड़ती है। सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन इस लड़ाई की शुरुआत तुमने कर दी है। हालांकि मैं यह मानती हूँ कि तुम सिर्फ एक मोहरा हो और तुम्हारा इस्तेमाल किया गया है। जिन्होंने यह किया है उनका इतिहास दाग़दार है, हम सब यह जानते हैं। नमो गंगे से नमो दंगे तक की सारी प्रक्रिया से हम सब, पूरा देश वाकिफ़ है।
दूसरी तरफ मैं यह भी मानती हूं कि तुम्हारा विश्वविद्यालय भी अल्टीमेट नहीं है वहाँ भी ज़रूर कुछ कमियां, कुछ ज्यादतियां और परेशानियां होंगी। इसका साफ प्रमाण है कि तुम वहां से चुनाव जीते और तुम्हारे विश्वविद्यालय ने तुम्हें JNU में काम करने का एक बेहतरीन मौका दिया लेकिन अफ़सोस तुमने यह बड़ा मौका गवां दिया और उस जमात में जा शामिल हुए जो बहुत दिनों से रंगे सियार की तरह तुम्हारे विश्वविद्यालय पर नज़रें गड़ाए हुए थे। JNU की सारी कमियों के बावजूद तुम्हें भी यह मानने में परहेज़ नहीं होगा कि JNU हमेशा से सत्ता विरोधी रहा है। नंदीग्राम से लेकर पता नहीं कितने मुद्दों पर हर वक़्त बहस करने को भी तैयार रहता है। वैचारिक विरोध का मतलब वहां दुश्मनी तो कतई नहीं है। सौरभ मैं तुम्हें बताऊं मेरी बेटी तीन साल से वहाँ पढ़ रही है। मैं और उसके बाबा दोनों ही वहाँ पढ़ना चाहते थे पर पढ़ नहीं सके। जिसका अफ़सोस थोड़ा कम हुआ जब हमारी बेटी ने वहां का एंट्रेंस क्लियर किया। हमने उसे शुरू से ही तार्किक और वैज्ञानिक सोच रखने वाला इंसान बनाने की कोशिश की है और उसका व्यक्तित्व स्वतंत्र हो, किसी की छाया नहीं, दूसरों की बात सुनने-समझने का माद्दा हो। गलत चीज पर उसे बहुत गुस्सा आए। झूठ-फरेब से नफरत करे। ऐसी कोशिश हमारी रही है। (कितनी पूरी हो पाई नहीं जानती, क्योंकि सीखने का कोई अंतिम दिन नहीं होता)। कुल मिलाकर मोटे तौर पर तुम यह कह सकते हो कि कुछ वामपंथियों जैसी विचारधारा वाला घर उसे मिला।
जेएनयू का प्रशासनिक भवन, जो प्रतिरोध की जगह में तब्दील हो गया |
JNU, जिसे वामपंथियों का गढ़ कहा जाता है बड़ा ही स्वाभाविक था कि वह जाते ही किसी वामपंथी स्टूडेन्ट यूनियन से जुड़ जाती, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और किसी वाम धड़े ने उसे बाध्य भी नहीं किया। उसने तय किया कि अभी वो सबको, सबके काम को देखेगी फिर सोचेगी कि किसके साथ जुड़ना है, हो सकता था कि तुमसे जुड़ती। 'था' इसलिए लिख रही हूं कि अब ऐसा कभी नहीं होगा। तार्किक, समझदार और ईमानदार लोगों के लिए तुमने अपने रास्ते बंद कर लिए हैं।
शेहला, रामा और कन्हैया |
हो सकता है अभी कुछ लोग तुमसे नफरत कर बैठे हों पर एक टीचर होने के नाते मैं तुमसे नफरत नहीं कर सकती। हां तुमसे नाराज़ हूं और बेहद नाराज़ हूं। हो सकता है तुम भी अपनी संस्था से नाराज़ हो और अलग पार्टी, अलग विचारधारा को अपना कर तुम अपनी नाराज़गी जता ही रहे थे फिर ऐसा क्या हुआ कि नाराज़ होते-होते तुम व्यक्तियों (कन्हैया, उमर, बान, अनंत, आशुतोष, शेहला, रामा आदि) से नफरत करने लगे। इतनी नफरत कि चुपके से तुमने ज़ी न्यूज़ को अपनी संस्था में सेंध लगाने के लिए बुला लिया। बहुत कुछ गुज़र गया सौरभ और जो कुछ घट चुका उसे लौटाया नहीं जा सकता-रोहित वेमुला को नहीं लौटाया जा सकता, कन्हैया, उमर और बान के जेल में बिताए दिन नहीं लौटाए जा सकते, कन्हैया की पिटाई का अपमान नहीं लौटाया जा सकता, उनके परिवारों पर जो गुज़री वो नहीं लौटाया जा सकता, तुम्हारे लोगों द्वारा दी गई भद्दी गालियों का दंश नहीं लौटाया जा सकता लेकिन फिर भी एक चीज़ है जो लौटाई जा सकती है और वो है तुम्हारी समझ और तुम्हारी मरी हुई आत्मा।
उमर और अनिर्बान |
नोट: मेरा एक सुझाव है कि रबीन्द्र नाथ टैगौर का उपन्यास "गोरा" पढ़ लेना। शायद तुम्हें वापस लौटने में मदद मिले।