२८ जुलाई १९८९ को राजस्थान उच्च न्यायालय की
पूर्ण पीठ ने अदालत के भीतर स्थापित मनु की प्रतिमा को हटाने का फैसला सर्वसम्मति
से पारित किया था. उस समय डा. सुरेन्द्र कुमार ने इस फैसले को वापस लेने के तर्क
में १४ सूत्रीय बातें रखीं. उन्होंने मनु के पक्ष में कहा कि “बादशाह शाहजहाँ
के लेखक पुत्र दाराशिकोह ने मनु को वह प्रथम मानव कहा है, जिसे यहूदी, ईसाई,
मुसलमान आदम कहकर पुकारते हैं.” कोर्ट ने उनका हर तर्क गौर से सुना और अपना
फैसला वापस लिया. याचिकाकर्ता ने ब्रिटेन, अम्रेरिका, जर्मन से प्रकाशित ‘इनसाइक्लोपीडिया’
को भी इस विषय पर बतौर प्रमाण रखा. यह बताया कि इसमें भी ‘मनु’ को आदि पुरुष, आदिम
धर्मशास्त्रकार, आदि विधि धर्मप्रणेता, आदि न्यायशास्त्री और आदि समाजव्यवस्थापक
वर्णित किया है. अगर यह सही है तो वेदों का पूरी तरह द्विज की श्रेणी में रख दिया
जो कि मनुस्मृति से पूर्व रचे गये.
ये कैसे हिन्दू समुदाय हैं जो वेदों से पहले
मनुस्मृति को तरजीह देते हैं. इसका मतलब है कि कहीं कुछ है जो वेदों और मनुस्मृति के
बीच अलग है. जो गंभीर चिंता पैदा करता है. एक वजह तो यह हो सकती है कि मतभेद
धर्मशास्त्रों को मानने वाले धर्माचार्यों के अंदरूनी मतभेद या कलह का नतीजा हो.
या फिर मनुस्मृति को इसलिए तो नहीं रचा गया कि उससे एक ख़ास वर्ण या समुदाय को
सर्वश्रेष्ठ घोषित किया जा सके और दूसरे को निम्न वर्ण कहकर उसका हर तरीके से शोषण
किया जाए. सनातन धर्मग्रंथ वेद हैं जिनकी प्रामाणिक तिथि भले ही गौण है. मनुस्मृति
को ५७१ ईस्वी के शिलालेख में प्रामाणिक घोषित किया गया है. वेदों और मनुस्मृति को
मानने वाले वर्ण भले ही एक हों मगर जातीय समुदाय अलग-अलग हैं. मतलब यह कि दोनों एक
ही धार्मिक अस्मिता के दो अलग-अलग समुदायों का वर्गीय संघर्ष है. जिसमें मनुस्मृति
के मानने वालों ने वर्ण-व्यवस्था दी, जातियां निर्धारित कीं. शंकराचार्य पैदा किये
और इसको प्रचारित किया.
सवाल यह है कि अगर याचिकाकर्ता की चौदह सूत्रीय बातें
मान ली जाएँ तब किसी भी व्यक्ति या समुदाय द्वारा इस्लाम क़ुबूल करने पर धार्मिक
हिन्दू समुदायों को आपत्ति कतई नहीं होनी चाहिए. धर्म परिवर्तन के बावजूद इस्लाम
क़ुबूल करने पर भी आखिर वे रहेंगे तो आदम (मनु) की ही औलादें. उन्होंने आगे और भी
बहुत कुछ कहा “महर्षि दयानंद ने वेदों
के बाद मनुस्मृति को ही धर्म में प्रमाण माना है” अब अगर वेद मनुस्मृति से
पहले लिखे गये थे तो मनु सृष्टि का पहला व्यक्ति (आदम) कैसे घोषित हुआ? इसका मतलब
है वेद लिखने वाले आदम-मानव, मनु से पहले भी धरती पर मौजूद थे. फिर मनु को दुनिया
का पहला व्यक्ति किस तरह माना जाय? श्री अरविन्द अगर मनु को अर्द्ध देव मानते हैं
तो पूर्णदेव कौन थे? वह आदम की शक्ल में पैदा नहीं हुए. फिर किस रूप में जन्मे?
अगर वेद की रचना मनुस्मृति से पहले हुई तो वैदिक ऋचाओं को हिन्दू ला में शामिल
क्यूँ नहीं किया गया? मनु के विधानों को ही हिन्दू ला के लिए अथारिटी क्यों माना
गया?
एक और महत्त्वपूर्ण बात, अम्बेडकर जिन्दगी भर मनुस्मृति
का विरोध करते रहे. कभी भी ख़ुद को मनु की औलाद नहीं माना. जबकि उनकी मूर्ति का
अनावरण करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण ने अम्बेडकर को ‘आधुनिक मनु’ कहकर संबोधित किया.
इस तरह वे दलितों के संघर्ष, और उनकी समूची जातीय अस्मिता पर एक बड़ा हमला करते है.
क्या धर्मगुरू आधुनिक मनु को स्वीकारेंगे? जो शख्सियत हिन्दू नहीं रहा. बौद्ध हो
गया, उसे अंत में आधुनिक मनु घोषित किया जाना दलितों के जातीय संघर्ष को कुचलना
है. उनकी मृत्युपरांत हिन्दू धर्म में वापसी करने का एक तरीका निकाल लिया.
धर्म परिवर्तन के मामले में लम्बे समय से तमाम
तरह की जद्दोजहद जारी रही है. फिलहाल आगरा के उन ६० मुस्लिम परिवारों को देखें. कबाड़
बेचकर गुजर बसर कर रहे इस छोटे से समुदाय को हिन्दू धर्म में शरणागत किया गया. इस्लाम
से हिन्दू बनाने के लिए जिनका शुद्धिकरण किया गया. इस शर्मनाक कारनामे को राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के धर्म जागरण प्रकल्प और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने अंजाम दिया.
किसी भी समुदाय में रहने वाले लोगों को जबरदस्ती मजहब
बदलने के लिए प्रलोभन देना, संविधान के विरुद्ध है. धर्म बदलने के लिए बलपूर्वक मजबूर
करना गलत है. अगर कोई व्यक्ति अपनी इच्छा से धर्म बदलना चाहे तो उसे इस बात की
आजादी है. यह अपराध नहीं है. सैकड़ों लोग अब तक हिन्दू से बौद्ध धर्म में जा चुके
हैं. इनकी घरवापसी पर हिन्दू समुदायों ने बात क्यों नहीं की ? कोई बहस नहीं छिड़ी ?
इसमें दिलचस्प यह है कि जो दलित नेता उदित राज दलितों को सबसे अधिक संख्या में
बौद्ध धर्म की ओर ले गये. भले ही उन्हें वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मण होने का दर्जा
नहीं मिला. उन उदित राज को बगैर धर्मांतरण के राजनीतिक दल ने स्वीकार कर लिया. वह खुद ही हिन्दू सम्प्रदाय और धर्म को
रिप्रेजेंट करने वाली राजनीतिक पार्टी में शामिल हो गये.
जिन वेदों को हिन्दू धर्म के भीतर मान्यता दी गई.
वह आदिम सभ्यता में सनातन धर्म के रूप में जाना जाता रहा है. बौद्ध धर्म का कोई
सम्बन्ध हिन्दू कहे जाने वाले सनातन धर्म से कभी नहीं रहा. बौद्ध दीक्षा लेने वाली
ज्यादातर जातियां दलित हैं. इस्लाम क़ुबूल करने वाले ज्यादातर समुदाय दलित हैं. हिन्दू
होने का दर्जा दलितों को किसने दिया? हिन्दू क्या किसी भौगोलिक दायरे के ख़ास
समुदाय में जीने वाले लोगों को माना जाता है. अगर ऐसा है तब तो आदिवासी सबसे
पुराने आदि हिन्दू हुए. किन्तु वह तो किसी मनुस्मृति को नहीं जानते. न ही मनु उनके
आदि देव हैं. दूसरी तरफ दलितों के आदि देव भी मनु नहीं हैं. फिर ये घरवापसी कराने
वाले लोग किन हिन्दुओं को वापस लाने की बात करते हैं. आखिर किसी दलित या आदिवासी
के इस्लाम क़ुबूल करते ही ये हंगामा क्यों? इस्लाम क़ुबूल करते ही इंसान में ऐसा
क्या बदल जाता है कि कट्टर हिन्दू समुदाय के भीतर खलबली मच जाती है, घरवापसी के
लिए हंगामा होता है. इसे समझने की जरूरत है.
अगर आर्य ही मनु की संतानें हैं और आर्य अगर वेद
लेकर धरती पर हिमालय से आये और “सनातन धर्म ही हिन्दू धर्म है. जो
अपने मन, वचन, कर्म से हिंसा
को दूर रखे, वह हिन्दू है. और जो कर्म अपने हितों के लिए दूसरों को कष्ट दे वह
हिंसा है।“ अगर हिन्दू धर्म की यह परिभाषा है तो फिर सदियों से कट्टर
हिन्दूवादियों ने दलित जातियों का शोषण क्यूँ किया. यहाँ तक कि वेदों में ‘जाति’
केवल एक ‘वर्ण’ न होकर रंग, कर्म और गुण पर आधारित थी. जबकि मनु का ‘मानव धर्मशास्त्र’
जिसे कहा गया वहां वर्ण-व्यवस्था में ‘जाति’ भेदभाव पूर्ण है. ये वैदिक धर्म और
मनु के धर्मशास्त्र का कैसा विभेद है ? जिसके चलते मनुवादियों ने अपने ही आदिम देव
मनु की संतानों को यानी आदिवासियों और अश्वेतों को कभी धार्मिक रूप से बनी सामाजिक
व्यवस्था में कोई जगह नहीं दी. कभी सामाजिक सम्मान नहीं दिया और जहां तक संभव था हर
तरह से दबाया कुचला गया.
हालाँकि यह सवाल मनुवादी, संघी और उनके राजनीतिक
दल भाजपा के लोग अच्छी तरह समझते हैं. किन्तु हमेशा से सत्ता की राजनीति और
मुख्यधारा में बने रहने के लिए क्या कुछ नहीं हुआ. सवाल तो और भी हैं. बौद्ध धर्म हिन्दू
धर्म की प्राचीन शाखा किस तरह रही है? क्या वजह थी कि संघियों ने बौद्ध धर्म को
बौद्ध-हिन्दू होने का गौरव दिया. गौतम बुद्ध हिन्दू राजघराने में पैदा हुए. इसलिए?
बौद्ध हिन्दू कब से हो गये? हिन्दू संगठनों के पास इसका कोई प्रमाण नहीं है.
यदि आर्यों की ही एक शाखा ने दो हज़ार ईसा पूर्व
यहूदी धर्म की स्थापना की. इसकी अन्य शाखाओं के रूप में ५०० इसा पूर्व बौद्ध धर्म आया. दो हज़ार वर्ष
पूर्व इसाई धर्म, १४०० वर्ष पूर्व इस्लाम आया तो फिर हिन्दुओं को आर्यों की अन्य
शाखाओं से इतनी नफरत क्यों है? क्या हिन्दू स्वयम को आर्यों की संतान नहीं मानते? इसका
एक ही कारण समझ में आता है. इन सभी शाखाओं का अस्तित्व में बने रहने के लिए सतत संघर्ष.
यह संघर्ष हर शाखा के धर्माचार्य और उसके सम्प्रदाय के अस्तित्व को मुख्यधारा में
लाने के लिए लड़ी जा रही साम्पदायिक, जातीय लड़ाई है. इसके लिए वह राजनैतिक आश्रय
लेती है. धार्मिक सत्ता का राजसत्ता के शीर्ष पर आने के लिए युद्ध और छल-छद्म ही
एकमात्र रास्ता है. इस सोच पर आधारित हर धार्मिक शाखा की अस्मितावादी लड़ाकू
सेनायें बनीं. ऐसे में धार्मिक सेनाभर्ती के नागरिकों का खून बहना स्वाभाविक है.
क्योंकि सत्ता धर्म की हो या राजनीति की, उसे बने रहने के लिए संघर्ष में धर्म की अन्य
साम्प्रदायिक अस्मिताओं से युद्ध होता रहा है. सत्ता कभी भी केवल धर्म से हासिल
नहीं की जा सकी. इसलिए धार्मिक सम्प्रदायों की हरेक अस्मिता को बचाने की लड़ाई
अनवरत चलेगी. सत्ता हमेशा से ही तमाम सम्प्रदायों की लड़ाई के बीच किसी एक शाखा के
बहुसंख्यक समुदाय का समर्थन लेकर ही ताकतवर बनी रही. सत्ता केवल धार्मिक अस्मिता के
लिए शास्त्रार्थ से हासिल नहीं होती. शास्त्रार्थ केवल धर्म दर्शन के विस्तार के
लिए उसकी ख्याति के लिए शास्त्रीय लड़ाई तक सीमित रहा है. अतः धर्म के सभी
सम्प्रदायों का राजनीतिक दखल पहचान बचाने की खातिर बेहद जरूरी होता गया.
अगर हम ऐसे में धर्मांतरण की बात करें तो जब
स्वेच्छा से कुछ लोग इस्लाम क़ुबूल करते है. या इसाइयत क़ुबूल करते हैं ज्यादातर
मामलों में दबे कुचले लोगों का बहुसंख्यक तबका ही ऐसा करता है तो यह इस बात का
सूचक है कि एक ही धार्मिक सम्प्रदाय में मेहनतकश तबका धर्म की जिस शाखा में रह रहा
है वहां उसे बुनियादी अधिकारों से महरूम रखा गया है. उन्हें सत्तासीन लोगों द्वारा
दबाया, कुचला जा रहा है. उसके मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है. उसे जीने के
अधिकार से वंचित किया जा रहा है. मगर मनुवादी हैं कि जिद पर अड़े हैं चाहे कुछ भी
हो हिन्दू शाखा की दलित शोषित जाति इस्लाम क़ुबूल नहीं कर सकती. धर्माचार्यों और
हिन्दू सम्प्रदाय का ये कैसा भेदभावपूर्ण रवैया है ? जबकि अलग-अलग समुदायों और
धर्म के लोग एक ही राजनीतिक दल में रहते हुए कभी भी अपना दल बदल सकते हैं. उनका शुद्धिकरण
क्यों नहीं किया जाता. उनकी घरवापसी का सवाल कभी क्यों नहीं उठाया गया? मगर धर्म
परिवर्तन करते ही मनुवादी सम्प्रदाय के लोग घरवापसी की जिद पर अड़ जाते हैं. धार्मिक
दलों से ज्यादा लोकतांत्रिक प्रक्रिया तो राजनीतिक दलों की है. जिसमें अर्थ वैभव
का दबदबा और लोकतांत्रिक पदों पर चयनित लोग हिन्दू हों या मुसलमान, दोनों ही हर
राजनीतिक दल में पाए जाते हैं. यहाँ जातीय या धार्मिक तरीके से किया जाने वाला भेदभाव
नहीं है. तो फिर धर्म की शाखाओं में भेदभाव पूर्ण रवैया क्यों ? क्या यह केवल धर्म
की राजनीति करने वालों की धूर्तता है जिसमें आम नागरिक मरता है, सर फुटौवल होता
है. हत्याएं होती हैं. एक ही देश की दो भौगोलिक सीमाएं, सनातन धर्म के दो
सम्प्रदाय जिन्हें भारत (हिन्दू बाहुल्य) और पाकिस्तान (मुस्लिम बाहुल्य) के रूप
में बांटा गया. उनके बीच युद्ध होते हैं. राष्ट्रवाद के नाम पर लाखों हत्याएं हुई हैं.
कौन थे वे लोग जो मारे गये. और कौन थे वो लोग जिन्होंने हत्याएं की. दोनों ही
धार्मिक समुदाय से सम्बंधित थे. किन्तु राजनीतिक दुश्मन. ये रंजिश जिसे भौगोलिक
बंटवारे ने पैदा किया. धर्म के आधार पर जमीन का बंटवारा. धर्म जिसने पैदा की
मानवता. धर्म जिसने रची सभ्यताएं. धर्म के नाम पर ये कैसी घिनौनी राजनीति हो रही
है.
सत्ता और धर्म की ये कैसी जहरीली राजनीति है. जिसमें राजनीति और धर्म ध्वजारोही
दिग्गज निजी हित साधे देश पर हत्याओं का कलंक चस्पा कर रहे हैं और जनता की जानें
ले रहे हैं. नृशंस हत्याओं को राष्ट्र और धर्म के लिए वाजिब बताया जा रहा है.
ये लोग कैसे भूल सकते हैं कि इस्लाम (भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में) हिन्दुस्थान
और आर्यावर्त की आदिम सभ्यताओं में पैदा हुआ. फिर मनुवादियों को हिन्दू होने का
गर्व इस्लाम के गर्वीले अस्तित्व से अधिक क्यों है? धर्म दर्शन की मानें तो दोनों धर्म
आर्यावर्त में ही जन्मे. इनकी भौगोलिक स्थिति और सम्प्रदायों में शैलीगत अंतर था.
चूंकि भौगोलिक अंतर होने के कारण समय के साथ-साथ दोनों सम्प्रदायों की मूल मान्यताओं
में अंतर आता गया. मूल निवासी ‘पूर्वज’ दोनों समुदायों के एक ही थे. फिर इन दोनों
के बीच कैसा धर्मांतरण और कैसी घरवापसी? इसलिए कि हिन्दुओं की एक शाखा की आबादी दूसरे
सम्प्रदाय में शामिल हो रही है. और दूसरी कौम की बढ़ोतरी से हिन्दुओं को हर हाल में
आगे रहना है. धर्म का अन्धानुकरण करने वाले मठाधीशों का यह चरित्र समझना जरूरी है.
असल में सबसे बड़े देशद्रोही तो वो लोग हैं जो न्याय और समतामूलक जमीन
पर धार्मिक राजनीति के लिए रणभूमि तैयार करने में लगे हैं. अलगाव की बारूदी
बिसातें बिछा रहे हैं, धार्मिक युद्ध छेड़ने की तैयारी में हैं. जिनके मार्फत यह
बड़ी चतुराई और कुटिलता से फैलाया गया कि जो हिन्दू नहीं हैं वह देशद्रोही है.
हिन्दू क्या केवल मुख्यधारा में शामिल धर्मगुरुओं और सियासतदारों की सत्ता का नाम
है. जो मुख्यधारा में नहीं है वह बहुसंख्यक आबादी तो दलित, मुसलमान और आदिवासी जनों
की है. मगर ज्यादातर आबादी सत्ता की बोई जहरीली फसल काटने में मसरूफ है. जबकि अनुसूचित,
जनजाति, अल्पसंख्यक समुदायों को संविधान में अथक संघर्षों के बाद जगह मिली. जिस
हिन्दू या इस्लाम की बात करने वाले सियासतदार धर्म के अन्य सम्प्रदायों, शाखाओं को
फलने फूलने की बजाय उनका सरेआम क़त्ल कर रहे हैं उसे न्यायोचित ठहरा रहे है. वे
सचमुच कभी मानेंगे कि किसी भी सम्प्रदाय का धार्मिक होना कोई गुनाह नहीं, बल्कि व्यापक
जीवन दर्शन का होना है.