समीक्षा: सुभम स्री
किताब - बम संकर टन गनेस
लेखक – सिरी राकेस कुमार सिंघ
परकासक – हिन्दी जुग्म, नई दिल्ली, 2013
शुभम स्री |
उ कहते हैं न कि नय आम
त अमचूरे सही, ओइसेहीं नय किताब त टाइटिले सही हो गया मामला । मार हल्ला गुदाल कि
बम संकर टन गनेस काहे है टाइटिल, कोई कह रहा है सूटेबुल नहीं है, कोई इसी को गर्दा
बताए हुए है । मने किताब पढ़ने के पहिले टाइटिले पर माथा फोड़ौव्वल । बाकी टइटिलवे
पर चर्चा करना है त स्टाइलिस्टिक्स माने शैली विज्ञान के हिसाब देखिए न भाई । ‘बम संकर टन गनेस’
का कोई दुसरा टाइटिल भी हो सकता था जैसे राकेस सिंघ कहिन ‘तरियानी छपरा’ ।
अउर भी नाम सब रहा होगा लेखक के दिमाग में लेकिन ‘बम
संकर टन गनेस’ जैसा गंजेड़ी नारा जेतना सॉलिड ढंग से तरियानी छपरा
का हुलिया बताता है, बता सकेगा कोई ओर? माने
कि नाम पहढ़े औ समझ गए कि छपरिया माल होगा भरपूर। इ जो रजिस्टर है माइकल हैलिडे के
हिसाब से, उ खाली संस्किरतिए नहीं बता रहा है, तरियानी छपरा का एटीट्यूड भी बता
रहा है । विकास उकास बोल के जो मिटिंग सिटिंग होते रहता है उसका भी पेट का बात
बकार कर दे रहा है । दुनिया चाहे जिधर जाए, तरियानी बम संकर टन गनेस है, मस्त है
एकदम जो है सो कि । एही बतवा पर तो राकेस सिंघ गर्दा उड़ा दिए ।
हमारे बिहार के साथ
क्या हुआ कि रेणु जी ठहरे कवि दृष्टि वाले लेखक, अलबत्त संवेदनसील प्रानी । बहुत
ममता के साथ लिखे पुरैनिया का कथा । इधर रामवृक्ष बेनीपुरी हुए बेनीपुर में, उ भी
बहुत प्रेम से रेखाचित्र खीचे । अच्छा, गोदान का सिमरी बेलारी भी नानिहरे-ददिहर है
हिन्दी वाला सब के लिए । बस क्या हुआ कि गांव का नाम आए बस ले कन्ना रोहट मचा दे
सब एक लाइन से । ग्राम्य जीवन पर दू चार गो कविता उविता भी है एकदम सेंटी टाइप ।
बस जैसेहीं गांव का नाम आया कि सेंटी हुए जा रहे हैं, नास्टैल्जिया में तैर रहे
हैं । अच्छा, रेणु को गीत नाद खूब आता था, ढेर बारहमासा, चैता, समदाउन जानते थे तो
लिखे । रेणु जैसा लिख दिए, उ सोइटर का डिजाइन हो गया । कॉपी कर कर के ढेंगरा दिया
उसको सब । उसके बाद जो तनी मनी लिखाया होगा कुछ कुछ, फिर तो पच्छिमे का हवा चल गया
। उ तो कहिए दलित साहित्य आया कि गांव जवार पर बात होने लगा नहीं तो लग रहा था खाली
दिल्लिए-बंबई-कलकत्ता में लोग रह रहा है, बाकी जगह मुरदघट्टी है । गांव पर संस्मरण
टाइप भी लिखाया है, ए गो तो एम एन श्रीनिवास लिखे यादों से रचा गांव, ए गो और
बिसनाथ तिरपाठी लिखे नंगातलाई का गांव । बम संकर टन गनेस का टाइटल पढ़ के किताब उलटिएगा
ना त राकेस सिंघ के परिचय के बगल में परफेसर साहीद अमीन बताए हैं इ सब किताब के
बारे में ।
अच्छा धरफराइए मत,
अस्थीर से गप कीजिए, राकेस सिंघ बहुत धरफड़ा दिए हैं पहलेही ।
हां तो क्या हुआ कि
जैसेहीं किताब का नाम पढ़े, कहे - अरे साला, इ तो सॉलिड माल बुझा रहा है । सेंटी,
कवि टाइप नहीं न लगा इसीलिए । गांव पर लिखता है कोई तो करेजा काटने लगता है न,
मारे जीवन, स्मृति, शैशव, स्नेह । अ राकेस सिंघ क्या किए हैं कि एकदम नॉर्मल हैं,
कंट्रोल किए हुए हैं । थोड़ा लजाता भी है आदमी । जैसे क्या देखिएगा हमारे तरफ कि लाइन
कटेगा तो रात भर बैठ के पत्नी को पंखा होकेंगे, दू बजे उठ के पोल से लग्घी लगा के
पंखा चलवाएंगे लेकिन आइ लव यू नहीं बोलेंगे । समझने वाला समझिए न जाता है हो । अब
यहां हे तरियानी, मातृभूमि टाइप गप नहीं है उतना लेकिन तीन पेज में सुकरिया किए है
सब को, किकलू बेटू से लेके डिट्टु, सिंटू, खदन भैया सब्भे को । भुटकुनो का नाम
छपाइस है । जो कहिए, बहुत प्रेम से किताब लिखिन राकेस सिंघ । यहां तो इ हाल है कि
घर मीठापुर में रहे कि दानापुर-फतुहा में, बोलता है सब पटना । अइसे में तरियानी
छपरा का इतिहास-पुरान बजाप्ते सिवहर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपूर के साथ लिखे हैं पूरा,
इस बात पर बोलिए एक बार जोर से बम संकर टन गनेस ।
सबसे पहले खोलिएगा न तो
महमूद फ़ारुक़ी ए गो पेश-ए-लफ्ज़ लिखे हैं । नहीं समझे, वही जो दास्तानगोई करते
हैं, 1857 पर एगो किताब लिखे हैं, पढ़िएगा कभी । गजब स्टैंडर उर्दू में लिखे हैं
पेस लफ्ज, वर्ड उर्ड नहीं बुझाएगा कुछ कुछ लेकिन समझ जाइएगा क्या कह रहे हैं ।
उसके बाद जो है सो कि राकेस सिंघ बैटिंग किए है जम के, स्लॉग ओभर में खूब
छक्का-चौका उड़ाए हैं ।
लेकिन वही न है कि सोन
त कान नय, कान त सोन नय । भरपूर कच्चा माल सपलाई किया तरियानी छपरा लेकिन उसको ठीक
से समेटने नहीं सके । असल हुआ क्या कि गिरिजानंदन सिंह का खिस्सा तो बज्जिका में
जैसे था डिट्टो लिख दिए राकेस लेकिन जब अपने गप करने लगे तो बुझा गया कि ओरिजनल
छपरिया नहीं, माइग्रेंट छपरिया बोल रहा है । पूरा मैं-तुम टाइप सुद्ध हिंदी । रेणु
के यहां याद पारिए रेणु कै बार बोले हैं, पूरा मैला आंचल का कथा कहने वाला
सूत्रधार मेरीगंज का ही आदमी है, लेखक तेखक नहीं है । लेकिन बम संकर में मामला जरा
दूसरा हो गया है ।
असल में कोनो विधा नहीं
है इसमें । क्या है कि रियल लाइफ में जैसे होता है उसको डिट्टो लिख दिए हैं राकेस
। जैसे मान लीजिए आप उतरे तरियानी छपरा तो राकेस आपको रिसीभ करने आए । फिर आप दू
चार दिन रहिएगा तो तरियानी घुमाएंगे पूरा । यहां वही बात है, आंख से देखा के नहीं,
किताब में पढ़ा के घुमा रहे हैं राकेस । सिनेमा का टेकनीक है, कैमरा घूम रहा है,
नैरेटर बता रहा है- इ देखिए अनुपिया, इ है दूरा, इ है बगीचा, इधर इस्कूल, उधर
तरियानी चौक, अवधेश सिंह का बजार । मतलब आप पाहुन के तरह चल रहे हैं साथ में,
राकेस आपको घुमा रहे हैं । लेकिन इस घुमाने में अंतर क्या है कि डिट्टु, सिंटू
नहीं न घुमा रहा है । राजू भैया के साथ घुमिएगा तो उ बेचारे अपने दिल्ली से आते
हैं कभी कभी, राजू घिरस हैं और आप सोचिएगा कि एक्के एक खिस्सा गप बताएं तो नहीं न
चलेगा । उ अपने दर्शक हैं, घरबइया को जेतना पता रहता है, कर कुटुम कहां से जानेगा
उतना । अब जो बाहर चल गया उ कुटुमे न हुआ । अच्छा राजू घिरस बच्चा में रहे जेतना
दिन, उसके बाद बाहरे बाहर । पुरनियां में पढ़े, फिर मुजफ्फरपूर, उसके बाद दिल्ली ।
होस्टलिया बुतरु पंदरह दिन के छुट्टी में आता है तो अइसेहीं दुलार बनल रहता है ।
उसको क्या मालूम भीतरे भीतर केतना पालटिक्स होता है । ओतना छौ पांच नहीं न है, जो
है सब सीधा सपट्टा बता दिए । अब आप चाहिएगा कि चौकड़ी जमा के रस ले लेके तरियानी
का खिस्सा सुनें तो राजू घिरस को कहिए उपनियास लिखेंगे । नहीं तो रहते अस्थीर से
महीना दू महीना तब देखते, एतना हड़बड़ी में राजू घिरस घुमा दिए सब जगह उ कम है क्या
। फिर खनखन कीजिएगा कि बिसनाथ जो बिस्कोहर का खिस्सा सुनाए थे वैसा... बिसनाथ
बिस्कोहर नहीं न घुमाए हो, लख्खा बुआ, बल्दी बनिया, जनदुलारी इन्हीं लोग का खिस्सा
कहे । आराम से रुक रुक के, पूरा चरित्र चित्रण के साथ, इतिहास बताते हुए चले इसलिए
आपको याद रह गया । बिस्कोहर रहना हुआ न बहुत दिन इसीलिए । तरियानी बहुत दिन बाद आए
हैं न इसलिए पहले न्यूज ले लीजिएगा तब न विस्तार से कथा सुनिएगा । केतना आदमी
मरा-हेराया, बियाह-गौना, सराध-मुंडन हुआ, मकान-दोकान बना यही सब न बताता है पहले
आदमी । इ जानने के बाद बीच में राजू घिरस अपने टाइम के तरियानी को भी याद करते
चलते हैं और अभी के तरियानी से तुलना भी । आप पहड़िएगा तो लगेगा एकदम ऑडीनरी बात
बोल रहे हैं लेकिन ओतना ऑडीनरी है नहीं, डेप्थ है बहुत । खाली याद करना और
घूमना-देखना नहीं हैं । देगची में भात सिझा कि नहीं इसके लिए खाली एक दाना चावल
निकाल के, दबा के देखा जाता है । उसी से बुझा जाता है । इसी तरह तरियानी सिर्फ
चावल का एक दाना है जो देस का दूसरा तरियानी जैसा जो गांव सब है, उसका भी कथा है ।
जरा सिरियसली गप करते
हैं, तब तक एक राउंड खैनी-सुरती-बीड़ी-तिरंगा-शिखर हो जाए । उसके बाद एकां एकी
एनेलायीसिस होगा ।
गांव-घर, जात-पात,
समय-समाज
देखिए, सबसे पहला सवाल
तो यही उठता है कि बम संकर टन गनेस को क्यों पढ़ना चाहिए ? शीर्षक जितना प्रभावशाली है, अध्यायों के नाम जितने
रोचक हैं, कंटेंट इतना रचनात्मक नहीं है । यह सवाल भाषा का या रूपवादी होने या सौंदर्यशास्त्र
का नहीं है, सवाल है अभिव्यक्ति का । एक औसत कृति और किसी नायाब रचना में फर्क
सिर्फ संतुलित होने और मुकम्मल होने का होता है । अखबारी लेखन, ब्लॉग में शॉर्टकट
से काम चलाया जा सकता है लेकिन जब एक समाज की कथा कहने बैठेंगे तो मेहनत करनी होगी
। बम संकर किसी उपन्यास के लिए लिए गए उस नोट्स की तरह है जिसमें एक महान कृति के
बीज तो हैं लेकिन उसे गढ़ा नहीं गया । शायद लिखते वक्त राकेश ने ये सब सोचा नहीं
होगा । ये एक अनायास शुरु हुई रचना है, नॉस्टैल्जिया से निकल कर यथार्थ से दो दो
हाथ करती हुई । पहले प्रूफ जैसी, जिसे कसे हुए संपादन की
जरूरत है, वाक्यों की चूलें कसने की जरूरत है, वर्तनी की गलतियां सुधारना बाकी है
और भी बहुत कुछ ।
हालांकि अपरिष्कृत होना
भी एक तरह से अच्छा ही हुआ । एक गांव की कथा में ही यथार्थ के कई रूप सामने आ गए
हैं । इसमें जातियों के बदलते समीकरण हैं, धर्म है, तकनीक है, हिंसा है, माओवाद है
। इसे समाजशास्त्रीय अध्ययन कहें, एथनोग्राफी कहें, जीवित इतिहास कहें, सारे
विकल्प खुले हैं । यह बड़ी बात है कि साहित्यिकता का दावा न करते हुए भी इस किताब
ने नीरस समाजशास्त्रीय ब्यौरों के उलट स्मृति आख्यान की शैली में सामाजिक बदलावों
की गहराई से छानबीन की है ।
असल में बम संकर को
समझना एक संस्कृति को समझना है। जिसे वाचिक परंपरा कहते हैं वह इतिहास को इसी तरह
बरतती है । व्यक्तियों, परिवारों, समूहों के किसी एक की कथा कहते कहते अचानक किसी
दूसरे की कथा आ जाती है । हर पात्र कथा में अपने इतिहास के साथ प्रवेश करता है ।
भारतीय आख्यान इसी शैली में लिखे गए । भारतीय लोकमानस में यही शैली प्रचलित है ।
यह संवाद का तरीका है । जैसे परभरनियों की बात हो रही है और मंजूआ का जिक्र आया तो
अब आपको मंजूआ के शादी-गौने का पूर वृतांत सुनना होगा फिर कथा आगे बढ़ेगी । आप राह
चल रहे है, नवल डॉक्टर का घर दिखा तो नवल डॉक्टर के मारे जाने का इतिहास भी आपको
बताया जाएगा । इसलिए पूरी किताब में सैकड़ों लोग हैं, सैकड़ों लोगों का हाल चाल
लिखा है, उनके साथ हुई घटनाएं-दुर्घटनाएं लिखी हैं ।
राकेश का बोलना भी एक
खास रजिस्टर के अंतर्गत आता है । बिहार के गांवों, कस्बों में पढ़े लिखे या बाहर
रह रहे लोगों का एक खास तरीका है बातचीत का । काफी कुछ यहां आया है लेकिन हिन्दी
के टिपिकल लेखन के प्रभाव से राकेश खुद को मुक्त नहीं कर सके हैं इसलिए किंतु,
परंतु, यद्यपि, इत्यादि कितनी आसानी से आपके कहे का गुड़ होबर कर सकते हैं, इस ओर
उन्होंने ध्यान नहीं दिया है ।
फिर भी यह एक नया प्रयोग
है कहने की शैली, ब्यौरे, घटनाएं सबके स्तर पर । यूं कहिए कि साहित्यिक लेखन के
अंतर्गत जिस तरह लिखा जाता है उसके उलट यह वाचिक को लिपिबद्ध किए जाने जैसा है ।
इस वजह से विधा को लेकर तरह तरह के सवाल उठ रहे हैं । कई बाते हैं मसलन ये कि लेखक
की टिप्पणियां जिनमें विश्लेषण है, वो गैरजरूरी हैं । अनुपिया, शंकर मंडल,
खोपीवाली, कैलाश जैसे चरित्र खुद ही उस व्यवस्था की असलियत बयान करते हैं, लेखक का
सामाजिक विश्लेषण उन्हें कमजोर बनाता है । इस चुनौती से निबटना मुश्किल होता है ।
सीधी बात है कि या तो आप जाति व्यवस्था पर लेख लिखें, विश्लेषण करें, शोध पत्र
लिखें । अगर आप ये सब नहीं कर के रचनात्मक ढंग से अपनी यादों को लिख रहे हैं, अपने
गांव के बारे में बता रहे हैं तो उस मुहावरे में बात कीजिए । जाति का विश्लेषण
करते वक्त यह मुश्किलें सामने आती हैं । दलित चरित्रों के लिए जिस सम्मान के साथ ‘आप’
का प्रयोग हुआ है, उसके साथ उनके पुराने नाम जैसे ‘अनुपिया’ भी साथ चल रहे हैं । उनका नाम शायद अनूपा होगा,
विवरण नहीं दिया गया है । जाहिर है यहां राजू घिरस उस पैराडाइम शिफ्ट को
प्रतिबिंबित कर रहे हैं जो दलित विमर्श ने पैदा किया है । इसलिए घिरस लेखक की
निगाह जन-मजदूर की ओर टिकी हुई है, टिकी ही नहीं हुई है बल्कि राजू घिरस तरियानी
की जमीन पर जन-मजदूरों के पक्ष में खड़े होकर बात कर रहे हैं । इसका स्वागत किया
जाना चाहिए खासकर तब जब साहित्य की राजनीति ने दलितों की स्थिति के बारे में लिखने
को नेपथ्य में डाल कर सारा विवाद दलित-गैरदलित मुद्दे पर केंद्रित कर दिया है ।
माफ कीजिएगा, बात हो
रही थी बम संकर को पढ़ने की । बहुत सारे कमजोर मजबूत बिंदुओं के साथ यह किताब भारी
किल्लत में बरसे पानी की तरह है । बाल्टी, डोलची, गिलास जो है सब में पानी भर लेने
की तत्परता की तरह भूमंडलीकरण, नव उदारवाद, माओवाद, विकास, गांव की राजनीतिक अर्थव्यवस्था,
धर्म, ठेकेदारी, रंगदारी, गुंडागर्दी का इतिहास, जातियों के समीकरण, चुनाव सब का
विश्लेषण करने के लिए उपलब्ध एक प्रामाणिक दस्तावेज की तरह । और ये किताब की सबसे
बड़ी खूबी है कि जाने अनजाने यह उन जटिल बिंदुओं को छूती चलती है । बिहार की
राजनीति, हिंसा युग का सूत्रपात, माओवाद, दलित जातियों की स्थिति और वो संस्कृति जहां ‘गंडसटऊल गप’,
विचित्र ‘मोबाइल यूजर मैनुअल’ ‘बहानचोद-मतारी के’
एकसाथ मौजूद हैं । उत्तर बिहार के एक पिछड़े गांव की ये अजीबोगरीब दास्तान इस
लिहाज से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है । इसलिए जरूरी है कि अभिव्यक्ति, विधा,
नॉस्टैल्जिया जैसे मुद्दों से थोड़ा आगे बढ़ कर उन बुनियादी बदलावों पर बात की जाए
जिनका जमीनी स्तर पर कोई ठोस लिखित प्रमाण नहीं था ।
तरियानी छपरा का
राजनीतिक अर्थशास्त्र
तरियानी छपरा का
राजनीतिक अर्थशास्त्र जब बदलता है तो कैसे रिश्ते बदल जाते हैं, परंपराएं टूटती
हैं, घिरस और मजदूर का संबंध बदल जाता है, यह सब देखा जा सकता है । जब तक तरियानी
के भूमिहीन दलित आर्थिक रूप से अपने घिरस के ऊपर निर्भर थे, उनके बच्चे मोटरी-गठरी
पहुंचाने, चरवाही करने में लगे रहे और घिरस के बच्चे श्री फुल्गेन मध्य विद्यालय
में पढ़ते रहे । इसलिए आरक्षण को लेकर हो रही तमाम राजनीति के बावजूद तरियानी के
दलित इस कड़वे सच को सामने लाते हैं कि एक खास तबके को ही आरक्षण जैसी सुविधाओं का
फायदा मिला । खासकर उन्हें जो गांव के इस राजनीतिक आर्थशास्त्र से अलग कमाने चले
गए या जहां जिनके पास जमीन आई या शहरों में रहे । इसलिए तरियानी के दलित युवाओं में
आरक्षण पाने की योग्यता तक पहुंचने का संघर्ष भी तब शुरु होता है जब उनके परिवार
के लोग गांव छोड़ कर मजदूरी करने बाहर जाते हैं और नगद आमदनी का एक स्रोत बनता है
।
“ अनुपिया के तीनों बेटों का परिवार अलग-अलग हो गया है । आंगन भी तीन हो गए हैं
। असर्फी के छह बेटों में से दो तीन कमाने के लिए बाहर जाने लगे हैं । चौथे नंबर
का बेटा श्री रामजानकी उच्च विद्यालय, तरियानी छपरा से मैट्रिक पास करने के बाद
तरियानी चौक पर ठाकुर जुगुल किशोर सिंह महाविद्यालय में इंटर की पढ़ाई कर रहा है ।
वह अपने परिवार का पहला व्यक्ति है जिसने जाति प्रमाणपत्र के आधार पर नौकरी पाने
का सपना देखना शुरू कर दिया है ।“ (अनुपिया, पृ 39)
इसलिए जाति के बंधन किसी सामाजिक चमत्कार या
उंची जातियों के हृदय परिवर्तन से नहीं, इस बदले हुए अर्थशास्त्र से ढीले हुए ।
मनीऑर्डर पर टिकी अर्थव्यवस्था ने गांवों में हर घर को चापाकल की सुविधा दी और
घिरस के घरों की पनभरनियां विदा हो गईं ।
तरियानी अभी विकास की उस अवस्था तक नहीं पहुंचा
है जहां उंची जातियां जमीन छोड़ कर जीविका के दूसरे साधनों पर निर्भर हो गई हों ।
नौकरीपेशा होते हुए भी उनका जमीन से बराबर संपर्क बना हुआ है । इसे एक तरह का
संक्रमण काल कह सकते हैं । इस स्थिति में धानुक टोली के लोग राजपूत घिरस के
बटाईदार तो हैं लेकिन बटाईदारों को जमीन बेचने की शुरुआत तरियानी छपरा में नहीं
हुई है । संपन्नता का मतलब है दाल-भात-तरकारी, इससे इतर सवर्ण अभाव में ही सही
लेकिन पेट भर पाने की हालत में हैं और
दलित मजदूरी में नाममात्र का अनाज पाकर भूखों मरने को अभिशप्त । सवर्ण जहां दुकानें
खोलने, ठेकेदारी करने के कामों में लगे हैं वहीं दलित बाहर मजदूरी कर के कमा रहे
हैं ।
इस स्थिति में होने के कारण ही सवर्णों में गांव
से दाल-चावल-सब्जी लाकर खाने का रिवाज कायम है, सामान ही नहीं बनाने वाले भी ।
“नव-शहरीकरण के दौर में गांव से अनाज, दूध और सब्जी लाकर शहर में पकाने का
रिवाज ही शुरू नहीं हुआ बल्कि पकाने वाले भी गांव से लाए जाने लगे । निश्चिक रूप
से ये खाना पकाने वाले या बच्चा खेलाने वाले स्वजातीय नही थे, न बाभन थे । थे वैसे
गरीब जिनका ‘पानी चलता’ था ।” (बम संकर टन गनेस, पृ 102)
दलित और पानी चलने वाली जातियां तरियानी के इस
संक्रमण काल में रह रही हैं जहां
“कई बार साबित हो चुका है कि राजपूतों के वोट के दम पर पंचायत की मुखियागिरी तक
मुमकिन नहीं है, विधानसभा तो बहुत बड़ी चीज है ।” (डाकपिन साहेब, पृ 58)
लेकिन वोट बैंक समझे जाने वाले दलितों के वोट की
ठेकेदारी जरूर मुमकिन है तरियानी छपरा में गांव के दबंग राजपूतों द्वारा । इसलिए
नेता वोट के ठेकेदारों पर ज्यादा समय खर्च करते हैं और ये ठेकेदार ही तय करते हैं
कि किसे जीतना चाहिए । बिहार की राजनीति में दबंगों का उदय जाति के वर्चस्व को बनाए रखने के लिए ही नहीं, उस कठिन
प्रतिस्पर्धा से भी उपजा जो चुनावी राजनीति में मध्यम जातियों द्वारा दी जा रही थी
। इसलिए जातिवार दबंगों की बड़ी फसल तैयार हुई जो अपनी अपनी जाति को मानसिक रूप से
आश्वस्त करने और सुरक्षा का अहसास कराने के काम आते रहे ।
इसलिए राणा रणधीर सिंह का चुनाव जीतना तरियानी
के राजपूतों के लिए विकास का मसला नहीं है, वह राजपूतों के शक्ति प्रदर्शन के लिए
जरूरी है ।
“रणधीर दबंग है । कलक्टर-एसपी, सबके हेंकड़ी गुम हो जाता है उसके सामने । xxx राजपूत कैंडिडेट इस बार नहीं जीतेगा त राजपूत के लड़िका सs के बाहर-भीतर निकलना बंद हो जाएगा । राजपूत लोग के भविष्य खतरा में पड़ जाएगा
।” (भोट, पृ 190)
इसलिए अपना पक्ष चुन
सकने वाले दलित दबंगई के बूते वोट डालने से वंचित किए जाते हैं । सामाजिक और
आर्थिक क्षेत्रों में वंचित दलितों को डॉ. अंबेडकर के प्रयासों से जो राजनीतिक
अधिकार मिले, वो उसका भी प्रयोग करने की हालत में नहीं है । हालांकि तरियानी के
बहुजन दलितों से उलट स्थिति में हैं । उन्होंने वोट बारगेनिंग सीख ली है, इसलिए
उनपर प्रत्याशियों का स्नेह बना रहता है और उनके वोट महत्तवपूर्ण भूमिका निभाते
हैं ।
“गोअरटोली के वोट चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाते
हैं, इसलिए उस मौसम में प्रत्याशियों का इस पर विशेष ‘स्नेह’
बना रहता है ।” (जो है सो कि, पृ 22)
बिहार की राजनीति में
मध्यम जातियों की इस मजबूत स्थिति की वजह का लेखक ने गहराई से विश्लेषण नहीं किया
है, न ही तरियानी के अर्थशास्त्र में उनकी चर्चा होती है लेकिन इतना तो जाहिर है
कि राजपूतों के गढ़ में संख्या में बराबर होने के बावजूद दलित जो हासिल नहीं कर
पाए हैं, वो यादवों ने हासिल किया है । इसलिए भी क्योंकि वहां “जन-मजदूर आ सर-सोलकन के जौरे खाने का टाइम नहीं आया
है अभी ।” (ई दिल्ली थोड़े है, पृ 150)
फिर भी चीजें बदल रही
हैं । दलित बाहर कमा रहे हैं और गांव में रह रहे परिवारों के पास नगद पैसे आ रहे
हैं, वे अधिया पर खेती कर रहे हैं और ठेकेदारी, डिलरई में भी उतर रहे हैं । आजादी
के बाद के भारत में खासकर नई उदारवादी दौर में जहां भी दलित आर्थिक रूप से मजबूत
हुए हैं, वे हिंसा का शिकार बन रहे हैं और राष्ट्रीय मानचित्र पर अदृश्य तरियानी
छपरा में यह काम हो रहा है । यहां जमीन विवाद का मुद्दा मुख्य मुद्दा नहीं है
क्योंकि जमीनें सवर्णों के पास हैं और थोडी बहुत बटाईदारी के बावजूद दलित भूमिहीन
हैं । विवाद उनके उन क्षेत्रों में प्रवेश को लेकर है जो सवर्णों के वर्चस्व का
क्षेत्र माना जाता है । पैसे के बाहरी स्रोतों ने उन्हें जन मजदूर से बटाईदारी की
अवस्था तक पहुंचाया है लेकिन दबंग माने जाने वाले ठेकेदारी और डिलरई के कारोबार
में आने के दुस्साहस ने जाति के तनावों को बारूद के ढेर पर रख दिया है । इसलिए
गांव में बहाल ‘सामान्य’ अवस्था असामान्य हो रही है ।
तरियानी छपरा की
असामान्य स्थिति का राजनीतिक अर्थशास्त्र से जितना लेना देना है, उससे ज्यादा
दूसरे कारकों से । ये दूसरे कारक जरा संवेदनशील किस्म के हैं, इन पर भी एक राउंड ।
मोआबाद
किताब की भूमिका में
राकेश ने बम संकर टन गनेस की सटीक परिभाषा दी है- “वर्तमान
का ताज़ा-तरीन इतिहास ! एकदम टटका ! बम संकर टन गनेस !”
टटका इतिहास कुछ यूं है-
मल्लाह और दुसाध बहुल
डोरा टोला के बारे में आजकल सुनने में आता है, “मोआबाद
के अड्डा हई डोरा । मार मिटिंग-सिटिंग होईत रहई छई । बड़का-बड़का माओबादी सs रहई छई डोरा पर ।”(जो
है सो कि, पृ 16) मध्य बिहार के भोजपुर, जहानाबाद जैसे क्षेत्रों की
तरह उत्तर बिहार में नक्सली संघर्ष की जमीन कभी बहुत मजबूत नहीं रही । लिबरेशन और
पार्टी युनिटी के प्रभाव क्षेत्र से दूर उत्तर बिहार के अति पिछड़े इलाके जो साल
में तीन महीने बाढ़ की वजह से दुनिया से कटे रहते हैं, सरकारी रेकॉर्ड में अति
संवेदनशील घोषित हैं । माओवाद प्रभावित इलाका होने की बात कुछ वैसी ही रहस्यात्मक
है जैसी पीपल का जिन्न । रहस्य की यह स्थिति इकलौते तरियानी में नहीं है,
राष्ट्रीय स्तर पर माओवाद को लेकर जिस तरह की अस्पष्टता और रहस्य का माहौल है, वही
हाल तरियानी का भी है । राकेश ने इस रहस्य को छिन्न भिन्न करने की ज्यादा कोशिश भी
नहीं की है । इसलिए तरियानी छपरा में पार्टी बंद का आह्वान करती है, पर्चे मिलते
हैं लेकिन पार्टी कौन सी है, उसका काम क्या है, उसका तरियानी छपरा में आगमन कैसे
हुआ, ये सब अदृश्य है । बिग ब्रदर इज वाचिंग यू की तर्ज पर मोआबाद की
गिरफ्त में रह रही तरियानी छपरा की दलित बस्तियां (यह भी सुनी सुनाई बात ही है) और
उनसे इतर की जनता को किसी डरावने साये की तरह एक रहस्य का अनुमान तो है लेकिन ठीक
ठीक जानकारी नहीं । कम से कम बम संकर पढ़ कर तो ये पता लगाना मुश्किल है ।
रहस्य का आलम ये है कि “दस बारह सालों से इलाके को माओवाद का गढ़ बन जाना
बताया जा रहा है । यह भी कि तरियानी छपरा हिट लिस्ट में है । तरियानी छपरा और
आसपास के कुछ मुसहर और चमार लड़के-लड़कियां खतरनाक माओवादी घोषित कर सीतामढ़ी जेल
में कैद हैं ।” (हनुमान मंदिर, पृ 171)
टुकड़ों टुकड़ों में दी
गई इन जानकारियों का अध्ययन अपने आप में दिलचस्प है । तरियानी छपरा में अफवाह के
रूप में फैली हुई ये बातें भारतीय राज्य के दावों और आंतरिक आतंकवाद की व्याख्याओं
को समझने में मदद करती हैं कि कैसे विकास से कोसों दूर, पिछड़े इलाके माओवाद
प्रभावित हैं और दलित बच्चे खतरनाक माओवादी । समझ का आलम ये है कि इलाके के एकमात्र
सीपीआई समर्थक परिवार राम इकबाल के बेटे को चुनाव के दौरान पुलिस ने माओवादी मान
कर घंटो थाने में बिठाए रखा । तरियानी के जागरूक दलित सामाजिक कार्यकर्ता
सत्यनारायण राम को लेकर भी मतभेद है । छपरियों का एक दल उन्हें बहुजन समाज पार्टी
का कार्यकर्ता बताता है तो एक तबका तरियानी छपरा का पहला माओवादी ।
तरियानी छपरा की इस नई
परिघटना के कारणों की पड़ताल राकेश ने मध्य बिहार के सशस्त्र संघर्ष से जोड़ कर की
है लेकिन वो ये कहीं नहीं बताते कि लिबरेशन, पार्टी युनिटी या एमसीसी में से कौन
से गुट ने उत्तर बिहार का रुख किया । पीपल्स वार और एमसीसी के विलय के बाद नव गठित
सीपाआई (माओवादी) के कार्यक्षेत्र या प्रभाव का कहीं जिक्र नहीं है । ऐसे में
उत्तर बिहार के दलितों और माओवाद के संबंध पर अंधेरा बरकरार रहता है । प्रामाणिक
तथ्य या शोध के अभाव में रणवीर सेना के नरसंहारों का असर तरियानी छपरा तक होने को
इन घटनाओं का कारण मानना भी संदेह के घेरे में है । फिर, तरियानी में प्रचलित कुछ
बातें भी चौंकाने वाली हैं मसलन “न
कोनो काम हऊ त माओबादी बन जो, राइफल आ दस हजार रुपइया महीना मिलतऊ ।” (हिंसा युग, पृ 209)
तरियानी में खुल कर हुई
सवर्ण-दलित हिंसा के कारण जितने अज्ञात हैं उतने ही हर हत्या के बाद पर्चे मिलने
के भी । हिंसा की घटनाओं का माओवाद से सामंजस्य बिठाने की कोशिशें भी कुछ इसी तरह
की हैं ।
माओवाद के रहस्यमय आवरण
से तरियानी छपरा पर्दा हटाने की बजाय उसे और उलझा देता है । लेखक ने जिन घटनाओं का
टुकड़ों में विवरण दिया है वे गंभीर विवेचन की नहीं तो कम से कम थोड़े और शोध की
अपेक्षा रखती थीं । खासकर माओवाद से दलितों के संबंध को लेकर ।
इन सबके बावजूद तरियानी
का टटका इतिहास इसी रहस्य से बुना हुआ है । वहां माओवाद को लेकर अटकलें और अफवाहें
हैं, डर का माहौल है । तरियानी के लोगों को आंख से देखने और पता करने की जरूरत भी
नहीं है, सरकार ने उन्हें बता दिया है । उसी तरह जैसे देश में भड़कने वाली हिंसा
और वाम का मतलब सरकार बताती रहती है ।
दास्तान-ए-रंगबाजी उर्फ
नलकटुआ पुराण
बम संकर ने रंगबाजी
युगीन बिहार की संस्कृति की बारीकियों पर बहुत विस्तार से प्रकाश डाला है, इतना कि
पैस्टिच हजार वाट के बल्ब जितने झक-झक कर रहे हैं । विशाल भारद्वाज और अनुराग
कश्यप के अतिरंजित सिनेमा के बरक्स यह ज्यादा ठोस और प्रामाणिक छवि है जिसमें
ठेकेदारी, डिलरई ही नहीं, उसके साथ पनपी पूरी संस्कृति का दिलचस्प वर्णन है ।
बुलेट, राजदूत, हीरो होंडा, बसें और ठेकेदारी 80-90 और उसके बाद के बिहार को
परिभाषित करने की कुंजियों की तरह इस्तेमाल की जा सकती हैं । भ्रष्टाचार के मारे
हमेशा हलकान रहने वाले राज्य परिवहन निगम का भट्ठा बैठने के बाद इस व्यवसाय पर
दबंग किस्म के ठेकेदार, डीलर या बाहुबलियों का प्रभुत्व कायम हुआ और बसें परिवहन
के साधन से ज्यादा उस दबंग संस्कृति का प्रतीक बनीं । दबंग संस्कृति के विकास की
प्रक्रिया का राकेश ने विस्तार से वर्णन किया है ।
“उन दिनों बिहार में ठेकेदारी करने वालों के कंधों पर
सफेद अंगोछे बहुत फबते थे । xxx ठेकेदारों
के बुलेट को सलाम कर गौरवान्वित महसूस होने वाली पीढ़ी भी पनप चुकी थी । बेशक,
किसी एक का नाम लेकर ठेकेदारी होती थी, परंतु ठेकेदारों का मुकम्मल ग्रुप होता था
। उनके पास प्रशासनिक शस्त्रागारों की अपेक्षा ज्यादा असरदार और आधुनिक असलहे होते
थे । जिनके परिचालन और रख रखाव के लिए उनके पास वैसे लड़कों का दस्ता होता था, जो
नाक और ऊपरी होंठ के बीच के सख्त होते रोएं पर उंगलियां फेर कर खुश हुआ करते थे ।
जिनमें से कुछ शार्प शूटर बन जाते थे और कुछ हो जाते थे माहिर रणनीतिज्ञ । थोड़े
समय बाद वे बाजार-उजार में रंगदारी टैक्स वसूलना भी शुरु कर देते थे ।” (जो है सो कि, पृ 18)
शार्प शूटरों की इस फसल
नें बिहार में कई प्रकार के कामों में अविस्मरणीय भूमिका निभाई । रंगदारी के अपने
मूल धंधे के अलावा अपहरण, टेंडर वार, दुश्मनी, बूथ कैप्चरिंग, चुनावी हिंसा सभी
कार्यों में तत्परता से सहयोग दिया । कमर में कटुआ खोंस कर चलने का फैशन जो अभी तक
बरकरार है और हीरो होंडा छिनाई, फिरौती वसूली के नए व्यवसायों को उर्जा प्रदान कर
रहा है, उस सामंती और हिंसक बिहार का चेहरा है जहां विमर्श और कानून की भाषा नहीं
चलती । इसलिए शार्प शूटरों को पालना अस्तित्व का प्रश्न बन जाता है । लठैतों की
परंपरा तो पहले भी बिहार में रही है लेकिन बाहुबली नेताओं के चुनाव जीतने और संगठित
दबंगई की शुरुआत के बाद ही हिंसा और हत्याओं का सिलसिला शुरु हुआ । इन हत्याओं के
बाद माओवाद की भूमिका के बारे में अटकलें लगाने का दौर भी चलता रहा । हालांकि इन
दोनों परिघटनाओं को अलगाया जाना जरूरी था क्योंकि चुनावी राजनीति में शक्ति
प्रदर्शन करने वाले बाहुबली नेताओं द्वारा पोषित हथियारबंद युवाओं की फौज का का
सांस्कृतिक इतिहास माओवादी हिंसा से अलग रहा है । दुश्मनी की वजहें रंगदारी न
देना, आपसी गैंगवार, दूसरे ठेकेदार को टेंडर मिल जाने से लेकर बेवजह हत्या तक के
कामों के प्रोपराइटर ऐसे गुट रहते थे । नेताओं का वरदहस्त प्राप्त इन अपराधी गुटों
और माओवादियों द्वारा की गई हत्या जिसमें पुलिस का मुखबिर होने या सामंत, बुर्जुआ
होने जैसे कारण शामिल रहा करते थे, अंतर है जिसे स्पष्ट करने की जरूरत थी ।
बोलेरो और
शार्पशूटरधारी सत्तासीन राजनीतिज्ञों की हिंसा ने शौर्य और पराक्रम को बिहार की
संस्कृति के संदर्भ में नए सिरे से परिभाषित किया । रंगबाज होना सम्मान की बात
होने लगी । इस संस्कृति के चमकदार प्रतीक बुलेट, इंगलिस (भाषा नहीं शराब) और गाली
को भी पुरानी संस्कृति की लंपट परिभाषा के उलट भारी इज्जत मिली । यह सब किया उसी
उच्च वर्ग और जाति के समाज ने जो एक तरफ इन्हें शराफत के लिए खतरा बताता रहा और दूसरी
तरफ इनकी मदद लेता रहा ।
लेकिन इन सबसे इतर यह
ऐसी संस्कृति थी जिसने भयानक असुरक्षा बोध पैदा किया । दलितों, औरतों और उन सभी के
लिए जो दबंग नहीं थे या दबंगों से रिश्ते नहीं रखते थे, यह कल्पनीय डर में जीने का
काल था जिसमें कानून जैसी चीज को धता बताते हुए जी खोल कर अपराध किए गए ।
यह दबंग संस्कृति,
मर्दानगी के बॉलीवुडीय आदर्शों से ओत-प्रोत थी जिसमें मुख्य भूमिका घर-परिवार के
माहौल की होती थी । इससे टकराने का साहस अखबार पढने वाले ड्राइवर रामप्रवेश सहनी
जैसे अपवाद ही कर सकते थे जिनके बारे में प्रचलित था कि उनका माओवादियों में
उठना-बैठना है ।
“गड़ी तेल से चलता है, पानी से नहीं । पइसा देना होगा
। पइसा जेबी में नहीं है तो उतर जाइए बस से । फोकट का सेवा इहां नहीं होता है । आ
रंगबाजी कर रहे हैं त जान जाइए कि आपसे बड़का रंगबाज हम अपने हैं ।” आपसे बड़का रंगबाज हम अपने हैं, बिहार की संस्कृति बन
चुका है । जममानस या मास साइकि इससे निर्धारित होती है । उबल पड़ने और फट पड़ने को
तैयार मानसिकता का सटीक उदाहरण । यह सिर्फ तरियानी छपरा तक सीमित नहीं है, गांव,
शहर हर जगह गैंगवार, मार-पीट, कई बार सिर्फ खौफ के लिए और ज्यादातर इसलिए ताकि
दबदबा बना रहे । दबदबे की सामाजिक स्वीकार्यता ने हिंसा और मर्दवाद के मजबूत
गठजोड़ को नया जीवन दिया । ऐसे दर्जनों प्रसंग किताब में हैं जो इस संस्कृति को
दर्शाते हैं, चाहे वो लौंडा नाच हो या बात बात में गोली मारने की प्रवृत्ति । इस
संस्कृति को और गहराई से देखना हो तो बम संकर टन गनेस के एक स्त्रीवादी पाठ की
जरूरत पड़ेगी । रंगबाजी-नलकटुआ संस्कृति का उद्गम स्थल भी तो आखिर वही सामंती,
पितृसत्तात्मक मानसिकता है जो ‘सर्वत्र’ प्रकट हुई है ।
तरियानी छपरा की लड़कियां
जो भी हो, जानते तो तरियानी छपरा को हम राजू
घिरस की नजर से ही हैं । जितना राजू घिरस ने देखा-जाना उतना ही और उस हिसाब से
तरियानी छपरा आश्चर्यजनक रूप से पुरुष प्रधान नजर आता है जबकि लेखक के अनुसार “गांव में औरतों की संख्या मर्दों की अपेक्षा कम से कम डेढ़ गुना ज्यादा होगी”।
हाल ये है कि पुराने की तो बात छोड़िए, प्रेम का
कखग सीखने को आतुर नए रंगरूट भी संभावित प्रेयसी को ‘छौंड़ी’ संबोधित करते हैं ।
‘छौंड़ी’ बज्जिका में वही अर्थ रखती है जो हिंदी में लौंडिया या छोकरी । तरियानी के
पुरुषों को इसे बदलने की जरूरत मालूम नहीं होती । उन्हें पता है कि ‘आप’ और ‘तुम’ का प्रयोग कहां
करना है । इसलिए अनुपिया, एतबारी देवी जैसी दलित स्त्रियों के लिए सचेत रूप से आप
का प्रयोग करते हुए और उनकी सुंदरता का वर्णन करते हुए भी (जो निश्चय ही माइग्रेंट
छपरिया की पहचान है) असल छपरियों का मानस छुपता नहीं । दिल्ली कमाने गए सोवंश को
वहां की लौगर छौंरी के सिवा और कुछ अच्छा नहीं लगता । यहां छपरा के हाईस्कूल में
पढ़ने वाली लड़कियों का हाल ये है कि- “किसी लड़के की ‘हिम्मत’ नहीं होती थी हमारी बहनों से ‘बात’ करने की भी ।” (जो है सो कि, पृ
20) इन बहनों का हाईस्कूलोपरांत कॉलेजीय जीवन नाम लिखवाने और परीक्षा देने के बाद
जिस तरह बीतता है उसका वर्णन लेखक के शब्दों में-
“अनीता दीदी और सुषमा दीदी अपने अपने ससुराल में परिवार संभाल रही हैं । सुबोध
भैया की बेटी साधना भी ससुराल में खुशी खुशी रह रही है ।”
पूरी किताब में भले घर की शरीफ लड़कियां ससुराल
में घर संभाल रही हैं, उनकी शादी हो रही है या शादी की बात चल रही है या फिर भाई
के लिए सामा चकेवा और झिझिया खेल रही हैं । लेखक को दुख है कि मिथिला और तिरहुत
में खेला जाने वाला सामा चकेवा जैसा खूबसूरत खेल तरियानी छपरा में नहीं खेला जाता
। खेला भी जाए तो क्या फर्क पड़ेगा, लफा-सुटिंग तो बदस्तूर जारी रहेगी । आपसी
सहमति से बनाए गए शारीरिक संबंध यानी लफा-सुटिंग के अलावे जबरन बनाए गए संबंधों का
विवरण नहीं दिया गया है ।
तरियानी छपरा की बड़ी आधी आबादी में मात्र एक
औरत ने वकालत की पढ़ाई की और वह कीर्तिमान आज तक सुरक्षित है । लेकिन इससे ज्यादा
आश्चर्यजनक उम्रदराज बुआ का बुढ़ापे में डीलरई का कारोबार करना है । उसी तरह बच्चा
दर्जी की बहन हैं जो श्रृंगार प्रसाधन बेचती हैं । मुखिया चुनाव लड़ने वाली दलित
महिला एतबारी देवी के परिवार की स्थिति अपने आप में पूरा विमर्श है ।
“एतबारी छपरा के जागरूक नागरिकों में से एक हैं । कर्मठ और संवेदनशील ! उन्हें तरियानी छपरा की वैसी प्रथम दलित मां होने का गौरव प्राप्त है जिनकी
सारी संताने पढ़ी-लिखी हैं और जिनके बेटों ने आरक्षण का लाभ लेने की योग्यता ‘जीत’ ली है ।” (जो है सो कि, पृ 22)
इन अपवादों को छोड़ दें तो
तरियानी की आम औरतें यानी गरीब पत्ता बुहारने वालियां जबर्दस्ती का शिकार होती हैं
और तरियानी छपरा के पुरुष निर्द्वंद्व भाव से मां-बहन की गालियां बरसाते हैं ।
एक तरफ रिंगटोन गायब हो जाने पर मोबाइल
वाइब्रेशन मोड में डाल कर थाली पर रखा जाता है तो दूसरी ओर कपिल सिंह जैसे लोगों
की गालियां ‘तोरा मतरिया के बूर में लाठी न पेल देबऊ रे मरलाहा के समांग’ जिनमें रेप कल्चर की शिनाख्त की जा सकती है ।
नव उदारवादी नीतियों के बाद का टटका यानी ‘बम संकर टन गनेस’ तरियानी छपरा इसी तरह का है । भूमंडलीकरण
और आर्थिक उदारीकरण के बाद जो टेढ़ा-मेढ़ा सामाजिक परिवर्तन हुआ है, उसने भारतीय
गांवों के चरित्र को कई खांचों में बांट दिया है और ये सभी खांचे आपस में हंसी
खुशी निभा रहे हैं । इसलिए हर घर में बाइक है, डीटीएच
है, मोबाइल फोन है, मनचाहे ब्रांड की शराब की सुविधा है लेकिन हिंसक गालियां भी हैं,
दलितों को चमार-दुसाध कहने का प्रचलन भी है ।
भारतीय समाज की संरचना ने औपनिवेशिक काल के
परिवर्तनों से लेकर भूमंडलीकरण के दौर तक अगर कोई चीज सुरक्षित रखी तो अपनी
विषमताएं । इसलिए भयानक गर्मी में पसीने से तर दूल्हे सूट से लैस होने लगे हैं,
शर्बत की जगह कोकाकोला-पेप्सी आ गया है, गीत गाने की जगह शारदा सिन्हा के कैसेटों
ने ले ली है लेकिन मल्लिक का जूठन उठाना जारी है !
यह सच है कि तरियानी छपरा में इफरात में असलहे
हैं, मंदिरों का फलता फूलता कारोबार है, माओवाद का रहस्य है, हत्या, अपहरण, हिंसा
सबकुछ है लेकिन इतना होने के बावजूद ताश विश्वविद्यालय का प्रशिक्षण है, झाड़ा
उतरान में सहायक तिरंगा-शिखर हैं, बोतू की सवारी करने वाले बच्चे हैं, प्रमोदिया
को तरकारी-भात खिलाने वाले किसोरी बाबा हैं और बम संकर टन गनेस तो हैं ही छपरिए जो
है सो कि ।
बाइ-दि-बे, बम संकर के बहाने बिहार की संस्कृति पर
एक राउंड जोरदार बहस हो सकती है जो है सो कि । हम तो कहते हैं कि बिगिनर्स गाइड के
तरह ‘नार्थ बिहार फॉर बिगिनर्स ’ का एक ठो चिप्पी सटबा देना चाहिए राकेस सिंघ को
किताब के उप्पर अगले संस्करन से । बाकी तो आप पहड़ के जानिए जाइएगा, सब बात हम्हीं
काहे बताएं ?
कुछ ज्यादेही गप नहीं हो गया ? हम तो अपना पारी पुरा लिए, अब आप अपना राउंड सुरु किजिए ।