20 अगस्त 2009

कश्मीर के चिंताजनक राजनीतिक हालात

अनिल (लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में मीडिया के छात्र हैं)
पिछले दिनों जम्मू कश्मीर विधानसभा में जो परिदृश्‍य देखेने को मिला, उसके राजनीतिक कारणों की गहराई में जाना ज़रूरी है। विपक्ष प्रमुख महबूबा मुफ़्ती द्वारा अध्यक्ष की कुर्सी के पास आकर उनपर माइक फेंकना चरम राजनीतिक निराशा का एक नमूना मात्र है। लगभग दो महीने पहले 29 मई की रात को शोपियां में दो युवतियों के सामूहिक बलात्कार और फिर हत्या के विरोध में समूचा कश्मीर आमजन की विरोध कार्रवाइयों से सुलग उठा। लेकिन इस पूरे प्रकरण पर सत्ता पक्ष ने जिस तरह का रवैया अख़्तियार किया, वह न सिर्फ़ टाल-मटोल का था, बल्कि दोषियों को न्यायालय के दायरे से मुक्‍त रखने का भी था। ’युवा छवि’ वाले मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला अपनी कार्यप्रणाली पर सवाल से जब घिर गए तभी उन्होंने इसके न्यायलयीन जांच के आदेश दिए। कश्मीर घाटी में इस घटना के दोषियों पर कठोर कार्रवाई की मांग करते हुए सरकार की ग़ैर-ज़िम्मेदार भूमिका के ख़िलाफ़ जो प्रदर्शन हुए, उसमें कई लोग मारे गए तथा कई अन्य घायल हुए। इन विरोध प्रदर्शनों को रोकने के फौज़ी अभियान के फलस्वरूप संवेदनशील कश्मीर घाटी में जान माल का भारी नुक़सान हुआ।
इन तनावपूर्ण स्थितियों के बाद भी दोषियों को बचाने की जो कोशिशें हुईं, उससे उबलती घाटी में यही संदेश गया कि सत्तापक्ष हर बार की तरह इस मामले में भी लीपापोती करने पर आमादा है। वैसे, जम्मू-कश्‍मीर राज्य में सुरक्षा बलों की ज़्यादतियों के बारे में शेष भारत को किसी तरह की तथ्यात्मक जानकारी तक नहीं मिल पाती है। अतः बहुत स्वाभाविक है कि कश्मीर में मानवाधिकारों के भयावह उल्लंघन के बारे में हमारे यहां किसी तरह की कोई चिंता नहीं तक होती है। कश्मीरी जनता जीने तक के मूलभूत अधिकार से महरूम है. न्यायालयीन जांच में शोपियां में हुई हत्याओं के पहले बलात्कार के ठोस सबूत मिले हैं। सड़कों पर पहले जन गुस्से के सार्वजनिक प्रदर्शन पर पाबंदी लगाकर और विरोधियों का दमन करके सरकार इस मसले से निजात पाना चाहती थी। लेकिन राजनीतिक संवेदनहीनता की यह हद थी कि सदन में इस मसले पर विपक्ष प्रमुख को अपनी बात कहने की अनुमति तक नहीं दी गई। इन नाज़ुक मौक़ों पर सदन का लोकतंत्र इतना संकुचित क्यों हो जाता है कि ऐसी अमानवीय घटनाओं के बारे में स्वस्थ और गंभीर बातचीत के सारे रास्ते बंद कर दिए जाते हैं?
मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने सेक्स स्कैंडल मामले में इस्तीफ़ा देने के ’नैतिक कर्तव्य’ की दुहाई देते हुए दोष मुक्‍त न होने तक मुख्यमंत्री पद पर नहीं बने रहने का जो दावा किया है, वह कश्मीर की स्थितियों को देखते हुए अवास्तविक तथा दिखावटी ज़्यादा है। क्योंकि अगर वे वाकई ’दोष मुक्‍त’ और जनता के मुद्दों के प्रति चिंतित होते तो शोपियां मसले पर इतनी लापरवाही कभी नहीं दिखाते। फिर विपक्ष-प्रमुख द्वारा शायद मजबूरी तथा तीव्र आक्रोश में ही ऐसा तरीका अपनाया गया होगा जो जम्मू-कश्मीर विधानसभा में हंगामाख़ेज़ अस्थिरता पैदा कर सके। पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की महबूबा मुफ़्ती ने पिछले कुछ महीनों में, सड़क पर कश्मीर में प्रशासनिक लीपापोती के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी है और काफ़ी जनसमर्थन जुटाया है, बावजूद इसके सरकार द्वारा सदन में उन्हें न बोलने देने रवैया अलोकतांत्रिक ही नहीं, बल्कि यह तानाशाही भी है।
राजनीतिक और समाजिक स्तर की चुनौतियों की गंभीरताओं को समझने के लिए अगर सदनों में चर्चा करने का दायरा सिमटता जाएगा, तो लाख लोकतंत्र की दुहाई दी जाए, विधानसभाओं में हंगामों, मारपीट और अभद्रताओं के नज़ारे आम हो जाएंगे। वैसे देखा जाए तो संसद या विधानसभाओं के सदनों में इस तरह की गरिमाहीन घटनाएं पिछले कुछ वर्षों में काफ़ी मात्रा में हुई हैं. यह इन संस्थाओं की विश्‍वसनीयता पर एक बड़ा सवाल है। कश्मीर का मसला इन सभी मामलों से भिन्न इसलिए भी है क्योंकि ’आत्मनिर्णय के अधिकार’ की मांग करने वाली कश्मीरी जनता अब दिनोंदिन, हर तरह के दमन को झेलते हुए खुलकर सड़कों पर आ रही है। आत्मनिर्णय के अधिकार के इस लहर का असर वहां की विधानसभा में साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। वहां पिछले सत्रह वर्षों में सुरक्षा बलों द्वारा किए गए अत्याचारों और उसके राजनीतिक संरक्षण का कोई हिसाब नहीं है। सत्ताधारी दल अपने अपने तरीक़ों से इन मामलों पर पानी छींटने की कोशिश करते हैं। ऐसे में यह सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि कश्मीरी जनता को कब तक आंसू गैस, लाठियों, गोली और बम-बारूदों के बीच जीवन गुज़ारने की यातना झेलनी पड़ेगी?

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