24 जनवरी 2015

जेटली जी विज्ञापन को छुट्टा रखेंगे

-दिलीप ख़ान

अभी टीवी मीडिया में विज्ञापन की सीमा को लेकर भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण के प्रस्ताव को दो साल भी नहीं हुए थे कि नए सूचना और प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने इसको लागू करने पर अनचाहापन जाहिर किया। जेटली के मुताबिक़ ऐसा करना अभिव्यक्ति की आज़ादी के साथ धोखा होगा। पहला जे एस वर्मा स्मृति संबोधन देते हुए उन्होंने कहा कि टीवी न्यूज़ मीडिया के लिए प्रति घंटे अधिकतम 12 मिनट विज्ञापन दिखाने की बाध्यता अंतत: संविधान के अनुच्छेद 19(1) के साथ मेल नहीं खाती। ट्राई ने 2013 के मार्च महीने में सारे टीवी न्यूज़ चैनलों को एक एक नोटिस दिया था कि अक्टूबर 2013 से प्रति घंटे 12 मिनट से ज़्यादा विज्ञापन नहीं दिखाए जा सकते। उस वक़्त ब्रॉडकास्टरों ने अपने राजस्व में कमतरी का तर्क देते हुए कहा था कि इतनी कम समयावधि में अगर इसे लागू किया गया तो सारे न्यूज़ चैनल घाटे में चले जाएंगे। 
मूल रूप से राष्ट्रीय सहारा में छपा लेख

मंत्रालय ने इसके लिए दिसंबर 2014 तक के लिए समय सीमा बढ़ाई जब तक डिज़िटाइजेशन की प्रक्रिया पूरा करने का मंत्रालय ने लक्ष्य रखा था। डिज़िटाइजेशन के साथ इसको लागू करने का तर्क ये था कि एक बार अगर ये प्रक्रिया पूरी होती है तो राजस्व का जो हिस्सा चैनलों को विज्ञापन से हासिल होता है उसका बड़ा टुकड़ा सब्सक्रिप्शन पर शिफ्ट हो जाएगा। यानी सेट टॉप बॉक्स और सब्सक्रिप्शन के ज़रिए चैनलों को होने वाली मात्र 10 फ़ीसदी की आमदनी बढ़कर 30-40 फ़ीसदी के स्तर तक पहुंच जाएगी। लेकिन ना ये पूरा हुआ और ना ही विज्ञापन की समय सीमा निर्धारित हो पाई। सब्सक्रिप्शन के चलते ग्राहकों पर तो बोझ बढ़ गया लेकिन ना ही उनके सामने टीवी स्क्रीन पर विज्ञापन कम हुए ना ही पुरानी दर में न्यूज़ देखा मुमकिन हो पाया।

पूरे मीडिया उद्योग में ये अफ़वाहें तैरती रही कि ट्राई का ये नियम 'नया' और प्रतिकामी है। हक़ीकत ये है कि केबल टेलीविज़न नेटवर्क्स रूल्स 1994 के तहत ही उसने चैनलों को ये हिदायत दी थी। इस सरकारी क़ानून को मंत्रालय ने जब मंजूर किया है तो फिर मंत्रालय इसको लागू कराने के प्रति गंभीरता क्यों नहीं दिखा रहा? अगर नियम में कोई पेंच है तो उसमें संशोधन होना चाहिए या पूरे क़ानून को निरस्त कर देना चाहिए फिर नियम लागू होना चाहिए। लेकिन हो ये रहा है कि क़ानून भी है क़ानून का पालन भी नहीं हो रहा। उसी अधिनियम में एडवर्टाइज़मेंट कोड ऑफ़ टीवी नेटवर्क (विनियमन) रूल 1994 के तहत ये भी चर्चा की गई है कि टीवी में दिखाए जाने वाले विज्ञापन इस तरह के होंगे ताकि वो उसके मुख्य विषय सामग्री से अलग दिखे। क्या टीवी में इस नियम को फॉलो किया जाता रहा है? 

अगर नहीं, तो इस पर मंत्रालय ने क्या कार्रवाई की? निर्मल बाबा का प्रायोजित शो (विज्ञापन) जब चैनलों के लिए झमाझम टीआरपी का ज़रिया बना तो एक के बाद एक चैनलों पर उसका प्रसारण शुरू हुआ। उसमें स्क्रीन पर बेहद छोटे अक्षर में चालाकी बरतते हुए एडीवीटी (Advt.) लिखा होता था जिसे किसी दर्शक के लिए देख पाना मुश्किल था। तमाम आलोचनाओं के बाद इस शो को कुछ चैनलों ने बंद कर दिया और जो चलाते रहे उन्होंने एडीवीटी का फोंट बढ़ा दिया।

विज्ञापन के मोर्चे पर नियम-क़ायदे को लागू करने का मामला अभिव्यक्ति की आज़ादी से टकराव का मामला नहीं है। किसी भी टीवी न्यूज़ चैनल को जब मंत्रालय लायसेंस देता है तो वो न्यूज़ नाम की सामग्री के प्रसारण के लिए होता है। विज्ञापन उसकी आमदनी का ज़रिया है ताकि ख़बर को चलाए रखने लायक राजस्व चैनल बना पाए। इस तरह ये पूरा मामला मीडिया के पत्रकारिता वाले पक्ष का नहीं बल्कि उद्योग वाले पक्ष का है। उद्योग के लिए नियम लागू करना कहीं से भी अभिव्यक्ति की आज़ादी पर ना तो चोट है ना ही किसी भी तरह का अंकुश। दूसरी बात, क्या विज्ञापन का जो मौजूदा स्लैब है जिसमें चैनल मनमाना तरीके से 20-22 मिनट तक विज्ञापन दिखाते रहते हैं, इसमें छोटे-मझोले चैनलों के लिए प्रतियोगिता में टिके रहने का कोई स्कोप है? 

अगर विज्ञापन पर बने नियम को हम अभिव्यक्ति की आज़ादी से जोड़ भी दें तो इसमें लोकतांत्रिक रवैया कहां है? बड़े चैनलों और बड़े समूहों के पास ज़्यादा विज्ञापन झटकने के सौ तरीके हैं और छोटे चैनल इस पूरे परिदृश्य में टिक नहीं पाते। भारतीय प्रतियोगिता आयोग ने भी चैनलों के रवैये पर दो-तीन बार गंभीर टिप्पणी की है। विज्ञापन लाने का जो प्रमुख जरिया चैनलों के पास है वो है टीआरपी। लिहाजा विज्ञापन को लुभाने के लिए चैनल टीआरपी को लुभाते हैं और टीआरपी को लुभाने के लिए कई दफ़ा विषय सामग्री में गंभीरता की बजाए सनसनी और हल्केपन की चाशनी लपेट देते हैं। यानी ज़्यादा से ज़्यादा विज्ञापन जुटाने का संबंध सीधे तौर पर कंटेंट से भी जुड़ा है। चैनलों की ज़िम्मेदारी सुनिश्चित करने के लिए इस तरह का कोई आयोग नहीं है जो उन्हें दिशा-निर्देश दे सके। चैनलों के स्व-नियमन की कुछ संस्थाएं पिछले कुछ वर्षों में इतने मौक़ों पर असफ़ल साबित होते रहे हैं कि ऐसे किसी भी संस्था का वजूद सतह पर मालूम ही नहीं पड़ता।

प्रिंट मीडिया के लिए समाचार और विज्ञापन का अनुपात बहुत पहले से निश्चित है। टीवी इससे बाहर क्यों रहे? लेकिन टीवी मीडिया ने इतनी आक्रामकता से अपनी मौजूदगी दर्ज की है कि इसको लेकर नियम-क़ायदे बनाने के लिए सरकार के पास कोई समय मिलता ही नहीं दिख रहा। 2013 में ही 'पेड न्यूज़' पर संसद की स्थाई समिति की लंबी चौड़ी-रिपोर्ट में भी विज्ञापन को लेकर कई चिंताएं जताई गईं। पेड न्यूज़ ख़ुद में विज्ञापन का ही रूप है। क्या नई सरकार उस रिपोर्ट को लागू कराने के पक्ष में है? अगर विज्ञापन को लेकर खुली छूट जारी रही और एडवर्टाइज़मेंट स्टैंडर्ड काउंसिल ऑफ़ इंडिया के हाथ में मौजूद शक्ति असल में विज्ञापनदाताओं को ताक़तवर बनाने को लेकर झुकी रही तो टीवी की ख़बरों की गुणवत्ता पर सवाल उठते रहेंगे। 

09 जनवरी 2015

शार्ली एब्दो प्रकरण विवाद

-दिलीप ख़ान
[फ़ेसबुक पर टुकड़ों में  बात करने के बदले एक साथ ही यहां अपना पक्ष लिख दे रहा हूं।]

शार्ली एब्दो पत्रिका के दफ़्तर पर हुए ख़ूनी हमले के बाद अभिव्यक्ति की आज़ादी का पुराना विमर्श फिर से सामने आ गया है। पूरे मामले पर सोशल मीडिया पर जिस तरह की बहस चल रही है उसको मोटे तौर पर तीन-चार खांचों में बांटा जा सकता है। पहला तबका ऐसे लोगों का है जो ऐसे किसी भी हमले के ख़िलाफ़ हैं और पत्रिका में छपे कार्टूनों से जिन्हें कोई परेशानी नहीं है। दूसरा तबका ऐसे लोगों का है जो हमले के ख़िलाफ़ हैं, लेकिन कार्टून्स के भी ख़िलाफ़ हैं। तीसरा तबका वो है जो कार्टून्स के कारण हमले तक के पक्ष में दबी ज़ुबान हामी भर रहे हैं।

पहले खांचे में वो लोग भी शामिल हैं जो हाल-हाल तक ‘पीके’ पर प्रतिबंध लगाने की बात करते थे। अचानक धार्मिक दायरा बदलने से वो शार्ली एब्दो की अभिव्यक्ति की आज़ादी के समर्थक हो गए। ऐसे लोग, एक ही मसले पर अपने धर्म पर अलग और दूसरे धर्म पर अलग स्टैंड लेने वाले ढुलमुल प्रजाति के होते हैं। 

दूसरे और तीसरे खांचे के लोगों में से तीन-चार तर्क ज़ोरों से दिए जा रहे हैं। पहला, पैग़ंबर की कोई आकृति नहीं है तो फिर उनपर कार्टून बनाना धार्मिक भावना को आहत करने वाला कदम है। दूसरा, शार्ली एब्दो पत्रिका लगातार धर्म पर चोट करने के चलते विवादों से घिरी रही है। तीसरा, वो ना सिर्फ़ इस्लाम बल्कि कैथोलिक और यहूदियों को भी समय-समय पर नाराज़ करती रही है। कुल जमा मतलब ये कि उस पत्रिका के कंटेंट ने धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का काम लगातार किया है। तर्कों को खींचकर उस समूची पत्रिका को ही अश्लील, हल्की और फसाद पैदा करने का कारखाना बताया जा रहा है। 

विवादित कार्टून्स

2006 में इस साप्ताहिक पत्रिका ने पैगंबर मोहम्मद पर एक कार्टून छापा और इसके चलते बड़ा विवाद हुआ। इसके बाद सीरीज़ में इस्लाम पर इस पत्रिका ने अंक निकाले। सर्वाधिक विवादित कार्टूनों में से एक में पैगंबर मोहम्मद कह रहे हैं कि “कट्टरपंथियों की हरक़त से पैगंबर खुश हुआ है”। इस व्यंग्य में अगर इस्लामिक चरमपंथियों के नकार के बजाए पैगंबर का कैरीकेचर ध्यान खींचता है तो कार्टून नाम की पुरानी विधा के अब-तक के सफ़र पर समाज की कूपमंडूकता का झटके में भारी पड़ना तय हो जाता है। अगर पैगंबर के नाम पर ही मार-काट मचाने वाले कुछ चरमपंथी अपनी राजनीति को समाज में पैबस्त करने पर जुटे हुए हैं तो एक कैरीकेचर वाली पत्रिका के सामने कोई विकल्प नहीं बचता कि वो यह बात सीधे पैगंबर के मुंह से कहलवाए कि उनके नाम के आधार पर ये तमाम हमले बंद होने चाहिए। 

इस अंक का फ्रांस सहित दुनिया के कई मुल्क़ों में विरोध हुआ। तत्कालीन फ्रांसीसी राष्ट्रपति यॉक शिरॉक ने इसे भड़काऊ बताया था और अंतत: पत्रिका को लंबी क़ानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी। फ्रांस में अदालती लड़ाई जीतने के बाद पत्रिका में साप्ताहिक प्रकाशन जारी रहा, जिनमें अलग-अलग सामाजिक, राजनीतिक मसले (सिर्फ़ धार्मिक नहीं) शामिल थे। बाद के दिनों में निकोलस सरकोज़ी और फ्रांस्वा ओलांद ने “फ्रांस की पुरानी व्यंग्य परंपरा” का हवाला देते हुए पत्रिका का बचाव किया। 2011 में एक बार फिर पत्रिका को लेकर विवाद हुआ। पत्रिका ने एक अंक में पैगंबर मोहम्मद को अतिथि संपादक बना दिया और उस अंक में पत्रिका के मॉस्टहेड के नीचे एक उपशीर्षक दिया और अंक का नाम रखा ‘शरिया एब्दो’। ये शरिया क़ानून पर चोट करने वाला अंक था। 
क्या शार्ली रेसिस्ट पत्रिका है?

सवाल ये है कि क्या शार्ली एब्दो सिर्फ़ इस्लाम पर कार्टून्स छापकर उस एकमात्र धर्म को निशाने पर अब तक रखती आई है या फिर क्या ये पत्रिका सिर्फ़ धार्मिक मामलों पर ही कार्टून्स और व्यंग्य छापती है?  मौजूदा परिप्रेक्ष्य में ये दोनों सवाल काफी अहम हैं। शार्ली एब्दो में व्यंग्य, कार्टून और कैरीकेचर ही प्रमुख सामग्री है और हफ़्तेवार प्रकाशन में विवाद का मामला सिर्फ़ धर्म को लेकर ही बार-बार आया। इसलिए पत्रिका के बारे में पढ़ने पर ऐसा लगता है गोया पत्रिका हर अंक में धार्मिक मामलों पर विवादित कार्टून प्रकाशित करती रही हो। जबकि ऐसा है नहीं। जिस दूसरे कार्टून पर ज़्यादा विवाद है वो है- पोप का कंडोम पहनना। ये तब की ख़बर है जब ख़बर आई थी कि पोप चर्च के भीतर सेक्स करते हैं। हालांकि अब तो ब्रूसेल्स मे एक पोप पर बाल तस्करी, बलात्कार सहित कई मामले अदालत में साबित हुए। इसलिए पोप पर चोट करने पर हैरानी नहीं होनी चाहिए, लेकिन हैरानी सिर्फ़ इसलिए होती है क्योंकि पोप को आलोचना से परे कर दिया गया है। 

ठीक पराशक्ति अल्लाह या ईश्वर की तरह। अगर पोप के सेक्स करने के तथ्य को कार्टून का रूप दे दिया गया तो धार्मिक असहिष्णुता का मामला कैसे हो गया? तथ्य, तथ्य है। चर्च के भीतर सेक्स पर पाबंदियों पर व्यंग्य करते हुए किसी कार्टून में अगर नन को हस्तमैथुन करते दिखाया गया है तो ये व्यक्तिगत और निजी मामला नहीं है। किसी ख़ास नन के बारे में नहीं है, बल्कि उस ट्रेंड पर बात करता हुआ ये कार्टून है जिसमें नन की सैक्सुअल ज़रूरत को पूरा करने के तरीके को रेखांकित किया गया है। क्या सेक्स पर बात करना या सेक्स पर कार्टून छापना अश्लील है? या, धार्मिक लोगों के सेक्स पर बात करना अश्लील और नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त है? या, धार्मिक मान्यताओं को चुनौती देते हुए राजनीतिक यथार्थ को बयां करने के लिए पैगंबर मोहम्मद का कार्टून बना देना दुनिया के लिए ख़तरनाक है?  अभिव्यक्ति के टूल हर दफ़े अगर समाज के हर तबके से पूछकर तलाशे जाए तो शायद कार्टून और कैरीकेचर में दर्ज़ होने वाले कैरेक्टरों की संख्या मुट्ठी भर रह जाएगी। 

राजनीतिक मामलों को लेकर प्रतिबंध

1970 के दशक में प्राकृतिक आपदा को लेकर निकाले गए एक अंक के बाद इस पत्रिका को प्रतिबंधित कर दिया गया था। तब तक ये दूसरे नाम से निकलता था। प्रतिबंध के दायरे से बाहर निकलने के लिए इसका नाम शार्ली एब्दो रखा गया। हालांकि इस पत्रिका में कई बार ये आरोप भी लगे हैं कि इसके कुछ कार्टून्स नस्लवादी रहे हैं। लेकिन, नस्लीयता का मामला जहां भी रहा शार्ली एब्दो के भीतर भी विरोध हुए। कोई भी पत्रिका ग़लती करती है, शार्ली ने भी की। कुछ लोग निकलकर नई पत्रिका भी निकाले। लेकिन नस्लीयता के जितने इल्ज़ाम है, उनमें से ज़्यादातर धार्मिक संगठनों ने ही लगाए। लिस्ट उठाकर चेक कर लीजिए।  मैं फ्रेंच नहीं जानता, इसलिए ये दावा नहीं कर सकता कि मैंने पत्रिका पढ़ी है। 

लेकिन, इस पत्रिका पर हमले के बाद इंटरनेट सहित समाचार एजेंसियों पर जितनी सामग्रियां थीं, उनमें से ज़्यादातर को पढ़ा क्योंकि अगले दिन आधे घंटे को प्रोग्राम बनाना था इस पर। कुल जमा इस नतीजे पर हूं कि असहमत हैं तो असहमति जताइए लेकिन जो सहमत हैं उनपर क्यों पिल पड़ रहे हैं? आपकी असहमति किसी कार्टून पर ठीक वैसे ही हो सकती है जिस तरह आपकी किसी बात पर किसी और की असहमति। आपकी असहमति के चलते कोई बात करना बंद नहीं कर देगा। आप आहत हैं तो आहत होना मुबारक़। कार्टून और कैरीकेचर के नाम पर ज़रा-ज़रा सी बात पर आहत होने के चलन को जिस तरह सिद्धांत के तौर पर पेश करने की कोशिश की जा रही है वो अंतत: बहुत संकुचित दिशा की तरफ़ लेकर हमें बढ़ेगा।