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19 मार्च 2012

मौजूदा बजट का जेंडर विश्लेषण


-दिलीप ख़ान

जेंडर बजट या जेंडर सेंसिटिव बजट बीते दो-तीन दशकों में दुनिया के पटल पर उभरा शब्द है। इसके जरिए राष्ट्र-राज्य की कोशिश होती है कि किसी भी सरकारी योजना के लाभ को महिलाओं तक इस तरह पहुंचाया जाए ताकि लैंगिक तौर पर पुरुषों और महिलाओं के बीच जो विकास की खाई बनी हुई है उसको पाटा जा सके। महिलाओं को बेहतर जीवन-स्तर मुहैया कराने की कोशिश की जाती है जिससे सामाजिक तौर पर पुरुषों की तुलना में वो पीछे न छूटे। अवधारणा के बतौर ये महिला सशक्तिकरण का ही विस्तार है जिसमें महिलाओं के विकास को स्वतंत्र रूप से न देखकर पुरुषों के बराबर पहुंचाने की कोशिश की जाती है।
जेंडर बजट या वीमेंस बजट का यह मतलब कतई नहीं है कि महिलाओं के लिए अलग से बजट पेश किया जाए बल्कि इसका मतलब यह है कि मुख्य बजट में ही कुछ ऐसी व्यवस्था की जाए ताकि सामाजिक लैंगिक दरार को भरने में ये मदद कर सके। सरकारी पैसे को किस मद में कितना ख़र्च किया जाए और कहां से पैसा जमा किया जाए बजट में कुल जमा यही दो काम होते हैं। ठीक उसी तरह जैसे किसी परिवार में मासिक और वार्षिक ख़र्च-आमदनी का लेखा-जोखा रखा जाता है। इसी ख़र्च और आमदनी को सरकार यदि इस तरह व्यवस्थित करती है ताकि उसके लाभ से सामाजिक विकास में पीछे छूटती आधी आबादी को मदद पहुंच सके तो उसे लैंगिक तौर पर संवेदनशील बजट कहा जाता हैं। इसमें वंचित, कमज़ोर और बेसहारा महिलाओं पर ज़्यादा ज़ोर होता है। प्रयोग के स्तर पर ऑस्ट्रेलिया से इसकी शुरुआत मानी जाती है जहां पर 1980 के दशक में पहली बार इसका इस्तेमाल किया गया। इस समय भारत सहित दुनिया में तकरीबन 70 देश ऐसे हैं जहां जेंडर बजट के प्रयोग हो रहे हैं। भारत में औपचारिक तौर पर 1997-98 के बजट में इसको पेश किया गया लेकिन सातवें पंचवर्षीय योजना से ही महिला एवं बाल विकास विभाग के तहत इसको लेकर प्रयास शुरू हो चुके थे।
बजट का पिटारा दिखाते वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी

2004 में वित्त मंत्रालय ने जेंडर बजटिंग को लेकर कुछ सिफ़ारिशें की जिनके तहत कई सरकारी मंत्रालयों में अंतर-विभागीय समितियां बनाईं गईं जिन्हें जेंडर बजट सेल के नाम से जाना जाता है। ये समितियां इन विभागों के दायरे में आने वाले विषयों में महिला उत्थान को लेकर सक्रिय रहते हैं।
बीते 16 मार्च को प्रणब मुखर्जी द्वारा पेश किए बजट का अगर जेंडर विश्लेषण करें तो इसे बहुत उत्साही बजट नहीं कहा जा सकता। बीते 6 साल से सरकारी मंत्रालयों और विभागों ने जिन 33 मांगों को जेंडर बजट की खातिर पेश किया उसमें इस बार भी किसी तरह की बढ़ोतरी नहीं देखी गई। नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के अलावा किसी भी विभाग के लिए नई पहलक़दमी नहीं हुई। पुरानी योजनाओं के मद को ज़रूर बढ़ाया गया लेकिन योजनाओं की नए सिरे से समीक्षा नहीं की गई। बजट के कुल आकार में हुई बढ़ोतरी के मुताबिक इन योजनाओं में भी वृद्धि हुई। ये एक तरह से आनुपातिक और स्वाभावित वृद्धि है। मिसाल के तौर पर सबला योजना के मद को बढ़ाकर 750 करोड़ कर दिया गया। स्वर्णजयंती ग्राम रोज़गार योजना को राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत लाने के बाद इसमें उप-घटक के तौर पर महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना को इसमें शामिल किया गया था। इस परियोजना के लिए बीते बजट में आवंटित 2914 रुपए को इस बार बढ़ाकर 3915 करोड़ कर दिया गया। हालांकि खेती-बारी में संलग्न महिला श्रम के आकार को देखते हुए ये बहुत सुकूनदेह तस्वीर अब भी नहीं है। इसी तरह महिला स्व-सहायता समूह विकास निधि के मद को 200 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 300 करोड़ रुपए कर दिया गया। इसके अलावा बच्चों और महिलाओं में व्यापक रूप से फैले कुपोषण पर लगाम कसने की ख़ातिर वित्त मंत्री ने सोया प्रोटीन पर सीमा शुल्क घटाकर 10 फ़ीसदी कर दिया। हालांकि कुपोषित महिलाओं और बच्चों तक इस सोया प्रोटीन को किस तरह पहुंचाया जाएगा इसकी कोई रूप रेखा सरकार द्वारा अब तक पेश नहीं की गई है। जब तक कुपोषित आबादी को लेकर ठोस योजना नहीं बनेगी तब तक सीमा शुल्क के घटे दर का सीधे तौर पर इनके बीच कोई मज़बूत प्रभाव नहीं पड़ सकता। असल सवाल ये है कि किस तरह देश में बड़ी तादाद में मौजूद इस आबादी की क्रय शक्ति को इस रूप में बढ़ाया जाए कि वो सोया खाद्य-पदार्थों को अपने रोज़मर्रा के भोजन में शामिल कर सकें।
जेंडर नज़रिए से देखें तो कामकाजी महिलाओं को प्रोत्साहित किए जाने की पुरानी योजना में कतरब्योंत के साथ ये बजट हमारे बीच पेश हुआ है। आत्मनिर्भरता को लेकर महिलाओं के बीच जिस आत्मविश्वास  को, हल्के स्तर पर ही सही, राज्य द्वारा समर्थन दिया जा रहा था, मौजूदा बजट में उससे हाथ खींच लिया गया। दफ़्तर में काम करने वालीं निम्न-मध्यवर्गीय महिलाओं के लिए यह बजट एक तरह से हताश करने वाला है। बीते साल सामान्य लोगों के लिए टैक्स माफ़ी की न्यूनतम सीमा 1.80 लाख और महिलाओं के लिए 1.90 लाख थी। इस तरह महिलाओं के 10 हज़ार रुपए की अतिरिक्त कमाई को राज्य ने करमुक्त कर रखा था। ये एक तरह से काम-काजी महिलाओं के आत्मविश्वास को हल्का बेहतर करने वाली कवायद थी। वित्त वर्ष 2012-13 के लिए पेश मौजूदा बजट में कर माफ़ी की जो न्यूनतम सीमा रखी गई है उसमें पहले के मुकाबले बढ़ोतरी हुई है। इसे बढ़ाकर 2 लाख रुपए कर दिया गया, लेकिन अब महिला और सामान्य श्रेणी के बीच के अंतर को ख़त्म कर दिया गया। इसे दूसरे तरीके से देखें तो अगर सामान्य श्रेणी के लोगों को वित्त मंत्रालय ने साल में 2000 रुपए के बचत की सुविधा दी है तो महिलाओं को महज 1000 रुपए की। इस तरह लैंगिक संवेदनशीलता के जरिए समाज में बराबरी की जो कोशिश थी उसे वेतन और कर में मिलने वाली छूट में बराबरी के स्तर पर ला दिया गया! वित्त मंत्रालय के मुताबिक समाज की असमानता अब भी बरकरार है लेकिन महिलाओं को कर सीमा में मिलने वाली 1000 रुपए के अतिरिक्त छूट को मंत्रालय ने कतर लिया। बजट में ऐसी कोई ताजी पहलकदमी और दृष्टिकोण भी नहीं झलकता जिसके बिनाह पर ये कहा जा सके कि सरकार महिला मुद्दों पर मंथन की प्रक्रिया में है। बीते एक दशक में बजट में शामिल विषयों और उसकी प्रकृति में स्थिरता बरकरार है और उसमें समय के साथ कुछ नई चीज़ें शामिल करने की जो उम्मीद इस बजट में की जा रही थी उसे झटका ही लगा है।  

11 मार्च 2011

क्रिकेट का भीतरी खेल


-दिलीप खान
क्रिकेट विश्वकप जैसे-जैसे अगले चरण की ओर बढ़ रहा है नतीजों को लेकर तस्वीरें साफ होती जा रही हैं. कुछेक अप्रत्यासित जीतों के बावजूद कमजोर मानी जाने वाली टीमें नीचे की ओर खिसकती जा रही है. इस स्थिति को सामने रखते हुए विश्वकप के तकरीबन शुरुआत में ही आईसीसी ने यह मंशा जाहिर की कि छोटी टीमों के लिए मौजूदा क्रिकेट विश्वकप आख़िरी साबित हो सकता है. यदि आईसीसी अपने फ़ैसले पर कायम रहा तो चौथे साल जब विश्वकप आयोजित किया जाएगा तो उसमें ग़ैर-टैस्ट टीमों की भागीदारी नहीं होगी. असल सवाल यहीं पैदा होता है. विश्वकप में रुचि का औंचक खयाल इस समय आईसीसी के मन में क्यों आया? क्रिकेट में जिस तरह के ढ़ांचागत परिवर्तन हुए हैं और खेल की संरचना को जिस तरह व्यावसायिक हितों ने हाल में प्रतिस्थापित किया है उनके मद्देनज़र यह सवाल भी उठता है कि इस फ़ैसले का स्रोत क्या है और खेलों के लिए यह कैसी ज़मीन तैयार कर रहा है? जब दुनिया के अधिकांश देशों में क्रिकेट को प्रसारित करने के उद्देश्य से आईसीसी ने अपने कुछ बड़े टूर्नामेंटों में अमेरिका और बरमूडा जैसे देशों को हिस्सेदारी दी तो उसका तर्क था कि जल्द ही ये देश बेहतर क्रिकेट खेलना सीख जाएंगे और क्रिकेट के विकास के लिए दुनिया में नए क्षेत्र विकसित होंगे. ऐसा कुछ नहीं हुआ या यों कहें कि आईसीसी ने ऐसा कुछ नहीं किया.
पिछले दस सालों में क्रिकेट की संरचना में जो बदलाव आए हैं उनकी प्रकृति पर गौर किया जाना चाहिए. इस दौरान इसमें बेहिसाब पैसा आया है, इसकी गति तेज हुई है, आईसीसी के भीतर भारत की स्थिति और मजबूत हुई है, 20-20 ओवरों वाले मैच होने लगे हैं और काउंटी क्रिकेट को आईपीएल ने प्रतिस्थापित किया है. लेकिन जो सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं वे ये कि एकदिवसीय विश्वकप के रोमांच को आईपीएल तथा 20-20 विश्वकप ने लील लिया. मनोरंजन प्रमुख हो गया और मैदान में चीयर लीडर्स आ गईं. इस जमीन से उठने वाले फैसले को इसी रूप में तब्दील होना था. मास मीडिया के युग में मनोरंजन के तरीके का चुनाव करना दर्शकों की व्यक्तिगत रुचि का मसला नहीं है बल्कि इसे तीव्र प्रचार के जरिए दर्शकों के मन में स्थापित किया जाता है. टीवी पह जब यह कहा जाता है कि आईपीएल के दौरान भारत बंद रहेगा तो दर्शकों के बीच उत्सुकता और घृणा का मिला-जुला असर होता है. इस तीव्र प्रचार और आक्रामकता ने एकदिवसीय विश्वकप को परदे के पीछे का विषय बना दिया. दर्शकों के लिए वास्तविक टूर्नामेंट यह रह ही नहीं गया. जब आईसीसी यह तर्क देती है कि तटस्थ मैदान पर कीनिया और जिंबाबवे के मैच के लिए दर्शक नहीं जुट रहे तो उन्हें होने वाले ढ़ांचागत परिवर्तनों की ओर भी ध्यान दिलाना चाहिए कि क्यों दक्षिण अफ्रीका के मैदानों पर राजस्थान और दिल्ली के मैचों के लिए स्टेडियम भर जाता था. इसलिए, इस दलील में जितना बताया जा रहा है उससे कहीं अधिक छुपाया जा रहा है.
80 के दशक में जब कैरी पैकर ने वर्ल्ड सीरीज की शुरुआत की और वहीं से फिर रात-दिन के मुकाबले की शुरुआत हुई तो आईसीसी ने शुरुआती हिचकिचाहट के बाद इस परिवर्तित स्वरूप से अधिकाधिक देशों को जोड़ने की योजना बनाई. इस ढांचे को अपनाने के पीछे भी प्रमुख कारण यही था कि उस दौर में वह संरचना अधिक पैसा पीटने का जरिया साबित हुई. एक टूर्नामेंट के खात्मे के बाद जब यह बताया जाता है कि इसमें इतने करोड़ रुपए का मुनाफा हुआ या फिर किसी टीम ने इतने करोड़ रुपए महंगी ट्रॉफी जीती तो इन आयोजनों का अर्थशास्त्र खुल कर सामने आ जाता है. कोई कंपनी क्यों अरबों रुपए फंसाकर खरीदे गए मैच के प्रसारण अधिकार में कीनिया और नीदरलैंड्स के मैच दिखाना पसंद करेगी? सवाल स्टेडियम में दर्शक जुटने से अधिक महत्त्वपूर्ण टीवी पर दर्शक जुटाने का है. जब कोई कंपनी 20-20 दिखाकर कम समय में विश्वकप से अधिक कमा सकती है तो उसकी स्वाभाविक इच्छा ऐसे टूर्नामेंटों को ही प्रोत्साहित करने में होगी. आईसीसी के भीतर भारत के बढ़ते प्रभाव के बारे में जब बात की जाती है तो क्या यह खेल के स्तर में आए सुधारों के मुतल्लिक की जाती है अथवा बीसीसीआई के धनकुबेर होने की वजह से? दुनिया भर में तमाम बड़ी खेल संस्थों का व्यवहार व्यापारिक कंपनी की तरह होता जा रहा है. पूंजीवाद अपने भीतर ऐसी संरचनाओं को समेटता है जो बहस के प्रचलित दायरे से बाहर होती है. इन खेल संस्थाओं के भीतर से राष्ट्र-राज्य तक को चुनौती देने के वाकये देखे गए हैं. बीसीसीआई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने जब यह कहा था कि यहां के क्रिकेटर भारत के लिए नहीं बल्कि बीसीसीआई के लिए खेलते हैं तो इसे दुःसाहस का पराकाष्ठा बताया गया था जबकि यह दुःसाहस से अधिक इन संस्थाओं की राजनीति और अर्थशास्त्र को रेखांकित करता है. मौजूदा विश्वकप में जब न्यूजीलैंड के हाथों कीनिया को दस विकेट की हार मिली तो उसके कप्तान जिमी कमांडे ने कहा कि उन्हें टैस्ट टीमों से भिड़ने का मौका दो साल में एक बार मिलता है. अगर उन्हें इन देशों से लगातार खेलने का मौका मिले तो टीम में ज़्यादा सुधार होगा. आईसीसी को कीनिया के सुझाव को मानने का क्या गरज है!
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24 जनवरी 2011

जुर्माना भरने का नया कॉरपोरेट पाठ

-दिलीप खान

लवासा परियोजना के संबंध में पर्यावरण मंत्रालय की हालिया पेशकश कि जुर्माना अदायगी के साथ कंपनी अपने काम को चालू रख सकती है, भारतीय राजनीति के कॉरपोरेट गठजोड़ को नए सिरे से रेखांकित करती है. यह पेशकश अपने में नायाब है. मंत्रालय का स्पष्ट मानना है कि इस परियोजना में नियमों की अनदेखी की गई है और इस बयान से ठीक पहले तक जयराम रमेश कई बार लवासा में तत्काल काम रोकने का फ़रमान सुना चुके थे. हाल के दिनों में पर्यावरण मंत्रालय नियमों को लांघने वाली ऐसी कई परियोजनाओं को काला झंडा दिखा चुका हैं जिसमें शुरुआती चरण का काम खत्म हो चुका था. पास्को, नियामगिरी से होते हुए यह लकीर अरुणाचल प्रदेश तक जाती है, जहां करोड़ों रुपए दांव पर लगे थे. लेकिन लवासा में जो बुनियादी फ़र्क है वह यह कि इसमें सीधे तौर पर राज्य के कई रसूखदार नेताओं के हित दांव पर है.
इस घोषणा से ऐसा प्रतीत होता है कि किसी भी नियम का उल्लंघन करने के बाद पैसा अदायगी से उसे ढंका जा सकता है. संवैधानिक व्यवस्था के मुतल्लिक तो ऐसा कई बार जाहिर हुआ है कि व्यावहारिक रूप से इसके क्रियान्वयन में कई जगह समानता नहीं हैं लेकिन जुर्माना अदायगी का भाव कुछ इस तरह है जैसे किसी आपदा के समय राज्य पीड़ित नागरिकों को लाख-दो लाख देकर उनके दुःख को हरना चाहती हो अथवा किसी नागरिक को ग़लत जुर्म में सजा देने के बाद कुछ पैसे दे दिया जाता हो. यह संविधानेत्तर व्यवस्था है और जुर्माना के आधार पर यदि देश में परियोजना चालू रखने की व्यवस्था की यहां से शुरुआत होती है तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए यह एक तोरण द्वार खोलने जैसा होगा. पॉस्को या फिर वेदांता क्या जुर्माना भरने से हिचकेंगे? नियामगिरी में संगठित प्रतिरोध के बाद जिस तरह राजनीतिक हलकों इसकी आवाज़ गूंजी उससे मंत्रालय के लिए कार्रवाई करना ज़रूरी हो गया था. पॉस्को और वेदांता एक तरह से कॉरपोरेट लूट के पर्याय के रूप में प्रकट हुए थे, ठीक उसी तरह जैसे कर्नाटक के रेड्डी को खनन का प्रतीक माना जाता है. यह अकारण नहीं है कि लवासा पर टिप्पणी करने के आस-पास ही अनिल अग्रवाल नियामगिरी में अपनी कंपनी वेदांता के लिए वापस काम शुरू करवाने के उद्देश्य से जयराम रमेश से घंटे भर बातचीत करते हैं, प्रधानमंत्री से मिलते हैं और दो दिन बाद ही सुप्रीम कोर्ट की दूसरी खंडपीठ भी वेदांता विश्वविद्यालय की सुनवाई से इनकार कर देती है. बहरहाल, वेदांता और पॉस्को पर आए मंत्रालय के फ़ैसले के बाद इन कंपनियों के पक्ष में ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का आग्रह कई बार झलका था. साफ़ है कि अग्रवाल हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से ही दिल्ली आए थे.
मुद्दा यह नहीं है कि किसी परियोजना के काम शुरू करने के बाद उसे बंद करने का आदेश सुनाना पूंजी की बर्बादी साबित होगी, असल मुद्दा यह है कि जब ऐसे किसी भी परियोजना को शुरू करने से पहले पर्यावरण मंत्रालय की मंजूरी लेना अनिवार्य है तो इस उम्मीद में मंजूरी से बचते हुए कि बाद में किसी बिंदु पर समझौता हो ही जाएगा, इसका उल्लंघन करना संवैधानिक ढांचे से छेड़छाड़ करना हैं. देश में कई परियोजनाओं को इसी ठसक भरी उम्मीद के साथ शुरू किया जाता है. ऐसे कई उदाहरण हैं जहां बिना पूर्व अनुमति के काम शुरू हुए हैं और बाद में उन्हें सरकार ने इसी आधार पर नहीं रोका कि यह विकास योजनाओं को हतोत्साहित करना होगा. कुछेक मामलों में तो सरकार संवैधानिक नियमों को छेड़ने वाली कंपनियों की पैरवी करती नज़र आई. नर्मदा घाटी में नियमों के भारी उल्लंघन के मामले आने पर विश्व बैंक ने ब्रेडफ़ोर्ड मोर्स की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी कि वे जांच करके बताए कि विश्व बैंक का भारत को पैसा देना उचित है अथवा नहीं. मोर्स समिति ने जो रपट सौंपीं उसके मुताबिक घाटी में पर्यावरणीय नियमों के छेड़छाड़ सहित विस्थापन के नियमों का भी पालन नहीं हुआ था. भारत उस रिपोर्ट से असंतुष्ट था और इसलिए उसी काम को दुबारा जांचने के लिए पामेला कॉक्स समिति गठित की गई. कॉक्स समिति की भी रिपोर्ट जब मोर्स सरीखा ही रहा तो विश्व बैंक को पैर खींचने पड़े थे.
ऐसे में सवाल उठता है कि सरकार की जिम्मेदारी संविधान के प्रति हैं अथवा कंपनियों को पैसे डूबने से बचाने के प्रति? यदि विकास के मौजूदा स्वरूप को ही सरकार लागू करवाना चाहती है ऐसे संवैधानिक नियमों को बदल देना चाहिए. लेकिन, दिक्कत यह है कि जनपक्षधरता और पर्यावरणीय चिंता दर्शाने के चलते ये बदलाव मुश्किल हैं. कुछ परियोजनाओं के काम रोकने के संबंध में संसदीय राजनीतिक दलों के बीच ही पर्यावरण मंत्रालय की जिस तरह आलोचना हो रही है, उससे यह संभव भी है कि विकास के लोकप्रिय पैमानों के प्रति मोहाशक्त ये नेता संसद के भीतर बदलाव का एक एजेंडा भी प्रस्तुत करें. वैसे भी सांसदों पर कॉरपोरेट छाप लगातार गहरी होती जा रही है, दूसरे शब्दों में कहे तो कई सांसद ही अब व्यवसायी के रूप में अवतरित हो रहे हैं. लवासा पर लिए गए फ़ैसले के दूरगामी नतीजे होंगे.


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17 जनवरी 2011

बैंक चला ठाकरे की राह!

अवनीश, अम्बाला से (संपर्क- 256avani@gmail.com)
उत्तर प्रदेश व बिहार के प्रवासी श्रमिकोंं के साथ दुव्र्यवहार का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है। कभी उन्हें असम के चरमपंथी गुटों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का शिकार होना पड़ रहा है तो कभी शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माणसेना जैसे लम्पट समूहों के हाथों लुटना-पिटना पड़ रहा है। विभेद और अलोकतांत्रिकता की इस कड़ी में अब जालंधर (पंजाब) स्थित यूनियन बैंक ऑफ इंडिया की बस्ती नौ शाखा का नाम भी जुड़ गया है। इस शाखा ने हाल ही में पंजाब में काम कर रहे प्रवासी श्रामिकों को लेन-देन का काम करने के लिए सप्ताह में एक दिन गुरुवारमुकर्रर करके रंगभेद की एक नई प्रथा शुरू करने का प्रयास किया है। गत दिनों इस बैक के ब्रांच मैनेजर ने उत्तर प्रदेश और बिहार के श्रमिकों को यह कहकर बैंक आने से मना कर दिया कि वे देखने में गंदे और जाहिल लगते हैं। उन्हें बैंक के कामों के बारे में जानकारी नहीं है और उनके कारण स्टाफ को परेशानी होती है। इस तैश में ही उस मैनेजर ने यह इलहाम भी कर दिया कि जलंधर की बस्ती नौ शाखामें उत्तर प्रदेश और बिहार के श्रमिकों का लेन-देन का काम केवल गुरुवार को किया जाएगा। इसलिए सप्ताह के अन्य दिनों में ये श्रमिक बैंक ना आएं। अब यह निर्णय बैंक मैनेजर की अपनी विवेकशीलता थी या प्रवासी श्रामिकों को लेकर बैंक की नीतियों में आए बदलाव का संकेत, यह कह पाना मुश्किल है।
घटनाक्रम के अनुसार गत २० दिसंबर को जलंधर के बस्ती दानिशमंदा इलाके की एक फैक्ट्री में काम करने वाला श्रमिक उदयवीर कोरबैंकिंग के जरिए अपने पैसे घर भेजने के लिए नजदीक की यूनियन बैंक की शाखा में पहुंचा। यह श्रमिक देवरिया जिले का रहने वाला है और इस बैंक से ही वह पहले भी अपने पैसे भेजता रहा है। लेकिन उस दिन बैंक कांउटर पर बैठे क्लर्क ने यह कहकर कि बाहरी लोगों के काम केवल गुरुवार को होंगे, उसके पैसे लेने से मना कर दिया । श्रमिक ने पैसे जमा करने की लिए मिन्नतें की लेकिन बात नहीं बनी। इसलिए वह वापस लौट गया और अपने फैक्ट्री मालिक को साथ दोबारा आया। उसने सोचा की शायद स्थानीय व्यक्ति के साथ होने पर उसके पैसे जमा कर लिए जाएं। लेकिन इस बार भी ऐसा नहीं हुआ । क्लर्क ही नहीं बैंक मैनेजर तरसेम जैन ने भी बाहरी लोगों के पैसे केवल गुरुवार को जमा करने की बात दोहराई। श्रमिक और फैक्ट्री मालिक ने जब मैनेजर से पूृछा कि बाहरी लोगों के पैसे गुरुवार को ही जमा होंगे इस बाबत आपने नोटिस कहां लगाई है ? इस पर मैनेजर उखड़ गया और उन दोनों बैंक से बाहर चले जाने को कहा। मैनेजर के इस रवैये से बैंक में हंगामा खड़ा हो गया। पैसा जमा न होते देख फै क्ट्री मालिक और श्रमिक दोंनो वापस लौट आए। वापस आकर फैक्ट्री मालिक ने पैसे जमा करने के लिए अपने छोटे भाई को भेजा और दिलचस्प यह रहा कि इस बार पैसे जमा कर लिए गए।
प्रवासी श्रमिक के साथ हुए इस दुव्र्यवहार के खबर सामने आते ही बैंक की इस शाखा की पंजाब में औद्योगिक, राजनीतिक और सरकारी स्तर पर जबर्दस्त आलोचना हुई, जिसके बाद यूनियन बैंक आफ इंडिया के उच्च पदाधिकारियों को माफी मांगनी पड़ी। बैैंक प्रबंधन ने ब्रांच मैनेजर का तबादला कर दिया और प्रेस विज्ञप्ति जारी करके कहा कि बैंक की सभी शाखाएं सभी ग्राहकों को सभी दिन सुचारु रूप से बैंकिंग सुविधाएं प्रदान कर रही हैं। इस संबध में यदि किसी ग्राहक या किसी व्यक्ति को असुविधा हुई तो इसके लिए खेद है। हालंाकि इस आपातकालीन कार्रवाई के बावजूद विरोध थमने का नाम नहीं ले रहा है और कई संगठनों ने बैंक प्रबंधन द्वारा सार्वजनिक रूप से माफी मांगने की अपील की है। इस मामले में अप्रवासी श्रमिक बोर्ड के चेयरमैन आरसी यादव ने जालंधर के पुलिस कमिश्रर गौरव यादव से मिलकर बैंक मैनेजर के खिलाफ कार्रवाई किए जाने की मांग की है। पंजाब में सक्रिय प्रवासी श्रमिकों के संगठन पूर्वांचल विकास महासभा ने रिजर्व बैंक आफ इंडिया के पास शिकायत दर्ज कराई है कि राज्य के कई बैंक प्रवासी मजदूरों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार कर रहे हैं। सभा के अनुसार बैंको ने प्रवासी मजदूरों के लिए अलग कांउटर बना रखे हैं और उनको लेनदेन जैसे काम करने के लिए सप्ताह में एक दिन मुकर्रर किर दिया है। ऐसा करने की वजह बैंक में आने वाले सभं्रात ग्राहकों को होने वाली परेशानी बताई जा रही है। इस मामले में एक दिलचस्प बात यह सामने आई है कि प्रवासियों के लिए अलग दिन तय करने अथवा अलग काउंटर बनाने के निर्णय को बैंको ने प्रिविलेज बैंकिं गका नाम दिया है यानी एक ऐसी सुविधा जो केवल प्रवासी श्रमिकों को उपलब्ध कराई गई है। बैंकों के अनुसार इस विशेष सुविधा की वजह निरक्षर श्रमिकों को बैंको के कामकाज में आने वाली परेशानी है। इस सुविधा के जरिए उन्हें सप्ताह में एक दिन बुलाकर उनका कामकाज आसानी से निपटाया जा सकता है। यूनियन बैंक आफ इंडिया के प्रबंधन ने कहा कि ऐसा करने की वजह प्रवासी मजदूरों को सुविधाजनक बैंकिंग सेवाएं उपलब्ध करवाना है। प्रवासी श्रमिक किसी भी दिन आकर बैंक में लेनदेन का काम कर सकते हैं लेकिन गुरुवार के दिन जलंधर की सभी फैक्ट्रियों में अवकाश रहता है इसलिए इस दिन उनके लिए अलग से एक काउंटर खोल दिया जाता है।
अलग दिन और अलग काउंटर खोले जाने के बारे में बैंक जो भी वजह बताते हों लेकिन प्रवासी श्रमिकों के संगठनों ने इसे भेदभाव भरा कदम ही बताया है । प्रवासी श्रमिक संगठनों द्वारा ऐसा कहे जाने की वजह भी है। दरअसल पंजाब में प्रवासियों के साथ भेदभाव व शोषण नई बात नहीं है। पूर्वंचल विकास सभा के प्रवक्ता एके मिश्रा ने बताया कि पंजाब के बैंक मे भेदभाव की घटना पहली बार नहीं घटी है । इसके पहले लुधियाना में पंजाब नेशनल बैंक की गिल रोड स्थित शाखा में भी ऐसी ही वाकया हो चुका है। बैंक के अलावा आम जीवन में भी प्रवासी श्रमिकों को अक्सर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। जालंधर में काम कर रहे पत्रकार चंदन मिश्रा ने बताया कि पंजाब में प्रवासी मजदूरों के साथ रेलवे टिकट काउंटर पर, डाक खाने में , स्कूलों में बच्चों का दाखिला करते समय अक्सर भेदभाव की घटनाएं होती हैं। रेलवे टिकट काउंटरों पर तो कई बार बाहरी मजदूरों को टिकट देने से भी मना कर दिया जाता है।
एक अनुमान के मुताबिक पंजाब में लगभग ४० लाख प्रवासी श्रमिक काम करते हैं, इनमें से अधिकतर उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं। इन श्रमिकों ने पंजाब की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान भी दिया। इसका अंदाजा बैंको में बचत के रूप में हर महीनें जमा होने वाली करोंड़़ों की रकम से लगाया जा सकता है। एक मजदूर अपनी रोजमर्रा की अर्थिक गतिविधियों द्वारा भी राज्य की अर्थव्यवस्था को मजबूत करता है। पंजाब में कई विधान सभा सीटों में भी प्रवासी मजदूर राजनीतिक रूप से सशक्त हैं, इसलिए राजनीतिक दल इनका इस्तेमाल वोट बैंक के रूप में भी खूब करते हैं। इन सबके बावजूद पंजाब सरकार ने कभी भी इनके लिए किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा योजना या इनके हितों की रक्षा की लिए कोई कानून लाने की नहीं सोची। जबकि भारत के ही एक राज्य केरल में इस तरह के कानून भी है और योजनाएं भी। इस राज्य ने मई महीने में प्रवासी मजदूरों के कल्याण के लिए प्रवासी मजदृूर कल्याण योजनाभी लागू की है । इस योजना के तहत पंजीयन कराने के बाद हर प्रवासी मजदूर सलाना २५००० रुपए तक की चिकित्सा सहायता व बच्चों को पढऩे के लिए हर महीने ३००० रुपए का शैक्षणक भत्ता दिया जाता है। किसी दुर्घटना में श्रमिक की मृत्यु होने की स्थिति में उसके संबधियों को ५०००० रुपए की सहायता दी जाती है । इस योजना के तहत एक निर्धारित समय तक केरल में में काम करने के बाद राज्य छोडऩे की स्थति में २५००० रुपए का आर्थिक लाभ दिया जाता है। केरल मे भी अनुमानत: ३० लाख उत्तर भारतीय मजदूर काम करते हैं। केरल में इन मजदूरों की स्थिति स्थानापन्न मजदूरों जैसी है क्योंकि केरल की अधिकांश श्रामिक आबादी खाड़ी देशों में काम करती है। पंजाब में भी श्रमिक मजदूरों की स्थिति स्थानापन्न मजदूरों जैसी ही है। इस राज्य के भी अधिकांश श्रामिक अधिक पैसे और बेहतर अवसर की तलाश में विदेशों की ओर रुख कर चुके हैं। इस आबादी द्वारा पैदा की गई जगह को ही प्रवासी श्रामिकों ने भरा है। इसलिए ऐसा भी नहीं कि यहांं श्रमिकों की आबादी बहुत है और उनके पलायन की स्थिति में पंजाब अपनी अर्थव्यवस्था सम्हाल पाएगा! मनरेगा की सफलता के बाद पंजाब में प्रवासी कृषि मजदूरों की संख्या में आई कमी के बाइ यह बात जाहिर भी हो चुकी है। इस योजना के बाद पंजाब में मजदूरों की कमी के कारण १०० रुपए पर भारी, एक बिहारीका जुमला आम तौर पर सुना जाता है।
श्रमिकों की पंजाब सरकार द्वारा की जा रही अनदेखी के बावजूद उतर प्रदेश और बिहार में प्रवासन एक ऐसी समस्या है जिसका हल निकाला जाना जरूरी है। पिछले ६० वर्षों में देश में जिस प्रकार असंतुलित और विसंगतिपूर्ण विकास हुआ है, उसके बाद आंतरिक प्रवासन एक सामान्य परिघटना हो चुकी है। ७० के दशक में हुई हरित क्रांति के बाद पंजाब में बहुपरतीय आर्थिक प्रगति हुई है। राज्य में कृषि क्षेत्र में अतिरेक के बाद कुटिर व लघुस्तर के उद्योगों का भी विस्तार हुआ। वैज्ञानिक व कृषि यंत्रों, होम आप्लयसेंज और स्पोर्टस के सामन बनाने के उद्योग पंजाब में पिछले तीन दशकों में खूब फले- फूले हैं। इसके परिणामस्वरूप यहां रोजगार के अवसर पैदा हुए हैं और गरीबी में जबर्दस्त कमी आई । जबकि इस दौर में उत्तर प्रदेश और बिहार में रोजगार का पहिया बिलकुल ही थमा रहा। केन्द्र सरकार ने उत्तर प्रदेश व बिहार की आर्थिेक प्रगतिके के लिए कभी कोई ठोस कार्यक्रम लागू करने का प्रयास नहीं किया। इन राज्यों की सरकारें भी कभी विकास की बाबत बहुत गंभीर नहीं रहीं। कृषि उत्तर प्रदेश और बिहार में रोजगार का अहम जरिया रही है। लेकिन पिछले दो दशकों में अर्थिक नीतियों में आए बदलाव के कारण इन राज्यों में खेती -बारी चौपट होती चली गई। जिसके परिणामस्वरूप जहां इन राज्यों में बेरोजगारी बढ़ी वहीं गरीबी और अपराध ने भी यहां अपनी जडेें़ जमा लीं। खेती -बारी के नष्ट होने का दुष्प्रभाव कस्बों और छोटे शहरों पर भी पड़ा। उत्तर प्रदेश और बिहार में कस्बे और छोटे शहर ग्रामीण आबादी की वाणिज्यिक गतिविधियों को प्रमुख केन्द्र रहे हैं । यहां मौजूद लाखों खुदरा दुकानों की जीवन रेखा इन क्षेत्रों की कृषि का अतिरेक ही रहा है। लेकिन खेतीबारी का खत्म होना कस्बों और छोटे शहरों के लिए प्राणघातक साबित हुआ। इन क्षेत्रों में रोजी रोटी के अवसर अब बिलकुल ही खत्म हो गए हैं और यहां कि श्रामिक आबादी पंजाब व हरियाणा जैसे संपन्न राज्यों की ओर रुख करने लगी है। आंकड़ों पर गौर करें तो २००४-०५ में पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी रेखा के नीेचे मात्र ९.०२ प्रतिशत आबदी रहती थी, जबकि उत्तर प्रदेश और बिहार में यह आबादी क्रमश:४२.१ और ३३.४ प्रतिशत थी। गरीबी रेखा के नीचे रह रही आबादी का यह अंतर उत्तरप्रदेश और बिहार की दुर्दशा की कहानी खुद बयां कर रहा है।
असंतुलित विकास के कारण हो रहे प्रवासन ने राजनीतिक समस्या का रूप भी ले लिया है। रोजगार के अवसर कम होने की स्थिति में मजदूरों पर क्या गुजरती है इसके उदाहरण महाराष्ट्र और असोम जैसे राज्यों में अक्सर ही देखने को मिलते रहते हैं। इन राज्यों में राजनीतिक दल इनके हितों को ही इंधन बनाकर अपनी रोटी सेंकते हैं और अपनी ताकत का मुजाहिरा करने के लिए इन श्रमिकों को ही अपना शिकार भी बनाते हैं । दरअसल प्रवासन में तेजी भी पिछले दो दशकों में ही आई है। पंजाब में ही गौर करें तो १९८१ की जनगणना में यहां उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों की संख्या क्रमश:२२०२१६ और ५८२३५ थी वहीं १९९१ में बढक़र संख्या २८०३५० और ९०७३२ हो गई। २००१ की जनगणना में ये संख्या ५१७३५१ और २६७४०९ हो गई। २००१ की जनगणना में पंजाब में प्रवासी मजदूरों में उत्तर प्रदेश और बिहार के श्रमिकों का प्रतिशत क्रमश: ३२.९२ और १७ .०१ हो गया । पंजाब में २००१ में प्रवासी श्रमिकों के बीच आधी आबादी उत्तर प्रदेश और बिहार के श्रमिकों की थी। जबकि इसी दौर में हिमांचल, हरियाणा और राजस्थान से पंजाब आए श्रमिकों की संख्या में कमी आई थी। ये आंकड़े भी दरअसल पिछले दो दशकों में हुए असंतुलित आर्थिक विकास की ओर ही संकेत कर रहे हैं। इसलिए आवश्यकता इस बात की है इन क्षेत्रीय विसंगतियों को समाप्त किया जाए और रोजगार के अवसर स्थानीय स्तर पर उपलब्ध कराने के प्रयास किए जाएं। लोकतंत्र होने के नाते सभी नागरिकों देश में कहीं भी काम करने की आजादी है , इसलिए आर्थिक संस्थाओं की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए प्रयास करें। बैंंको और व्यापारिक संगठनों से तो यह कतई अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे भेद भाव की प्रथा के पैरोकार बनेगें। इसलिए पंजाब में हुई घटना दोहराई नहीं जाएगी, इसकी उम्मीद की जानी चाहिए।

13 दिसंबर 2010

लवासा नेतृत्व हीनता में बंद पड़ी लड़ाई

चन्द्रिका
लवासा पुणे और मुंबई के पास वरसगांव बांध (वरसगांव बांध एवं जलाशय) के पीछे बाजी पासलकर जलाशय के किनारे, पश्चिमी घाट में स्थित है. यह शहर दीर्घीभूत वरसगांव बांध जलाशय को चारों तरफ से घेरने वाली आठ बड़ी-बड़ी पहाड़ियों की गोद में स्थित है. इस परियोजना में लगभग २५,००० एकड़s (१०० कि.मी.२) भूमि शामिल है. लवासा पुणे (लगभग 50 किमी) से 80 मिनट और मुंबई (लगभग 180 किमी) से 3 घंटे की दूरी पर स्थित है.
पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने लवासा को नोटिस भेजकर बड़े पैमाने पर चल रहे पेड़ों की कटाई और पहाड़ियों के उत्खनन को स्थगित कर दिया है जिस पर कोई फैसला आने तक मुंबई हाई कोर्ट ने भी मुहर लगा दी है. शरद पवार नाराज हैं कि आखिर नोटिस क्यों भेजी गयीं. लवासा के साथ शरद पवार के खड़े होने की वजह है. वजह है कि उनकी पारिवारिक रकम इस योजना में बड़ी मात्रा में लगी है और हिन्दुस्तान कंस्ट्रक्सन कम्पनी के मालिक अजीत गुलाबचंद पवार के करीबी माने जाते हैं. बहरहाल सरकार और कार्पोरेट के करीबीपन का रिस्ता किसी भी रिस्ते से अधिक नजदीकी होता है. पवार की नाराजगी इसी मिलीजुली दायित्वबोध की अदायगी है. यह कम्पनी का अजीत पवार के प्रति महज प्रेम नहीं है कि महाराष्ट्र का उपमुख्यमंत्री बनने के बाद लवासा में उनके बधाईयों के बड़े-बड़े बैनर-पोस्टर टांग दिये गये हैं. यह लवासा की विवादित परियोजना में महाराष्ट्र सरकार की अनिष्टकारी दखलंदाजी न होने की अपील है जो शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले द्वारा अपने भाई से की जा रही है. इसे पारिवारिक सम्पत्ति की राजनैतिक हिफाजत के रूप में देखा जाना उचित होगा.लवासा पुणे और मुम्बई के स्थित पहाड़ियों में योजनाबद्ध तरीके से बनाया जाने वाला देश का पहला शहर है जिसका नाम मराठी में अलंकृत कर दिया गया है. शायद यह राजठाकरे का भय हो कि इस योजनाबद्ध शहर को मराठी शब्दों से नामित कर दिया गया हो. २५ हजार एकड़ भूमि में बन रहे इस शहर में मुम्बई और पुणे की ऊब से निकलकर धनाड्य वर्ग लवासा में सुकून पा सके यह एक दूरगामी मकसद है. देश के धनाढ्य वर्ग को शहर और सुकून के साथ प्राकृतिक सौंदर्य से भरापुरा गाँव भी चाहिये, सब कुछ एक साथ. लिहाजा बड़े शहरों के आसपास की सुंदरता को इनके लिये संरक्षित कर दिया जा रहा है जिसकी कीमत वहाँ के मूलवासियों को अपने घरों से उजड़ कर देनी पड़ रही है. हजारों अपार्टमेंट्स और विलाओं के साथ यह योजना चार चरणों में पूरी की जायेगी जिसकी अनुमानित लागत २० हजार करोड़ रूपये से अधिक आंकी गयी है. जिसे देश के विकसित होने का स्वप्न वर्ष विजन २०-२० के एक साल बाद पूरी तरह से निर्मित देखा जा सकेगा. लेकिन इस परियोजना के कई और भी पेंच हैं जो कार्पोरेट और सरकार के मधुर सम्बन्धों को बयां करती है. जिसके तहत हिन्दुस्तान कंस्ट्रक्सन कम्पनी ने कई आदिवासी गाँवों की जमीने औने-पौने दामों पर ले रखी हैं. जिस जगह यह परियोजना निर्मित की जा रही है और जिन आदिवासियों के गाँवों को उजाड़ कर लवासा बनाया जा रहा है वहाँ के मूलनिवासियों को अभी तक सरकार विजली, पानी, स्कूल पहुंचाने में अक्षम रही है. जबकि दुनिया की सर्व सुविधा सम्पन्न निर्माणाधीन इस नगरी को कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है वहीं आसपास के गांवों में एक अनुमान के मुताबिक बिजली पहुंचाने का खर्च ३ करोड़ रूपये ही लगेगा पर वह अभी तक नहीं पहुंचाई जा सकी. महज कुछ वर्षों में ही २० हजार करोड़ से अधिक लागत की इस परियोजना को चालू कर दिया गया. दरअसल यह सरकार का आदिवासियों के प्रति उपेक्षा का दृष्टिकोण है. उन्हें मूलभूत सुविधाओं से वंचित रखे जाने और उनके विद्रोह की प्रतिक्षा करने की परम्परा विकसित हो गयी है. मुंबई और पुणे के बीच यहाँ का आदिवासी उसी जीवन स्तर के साथ जीता है जैसा कि बस्तर और गड़चिरौली में. शहरों से दूर स्थित आदिवासी क्षेत्रों में सरकार विकास न कर पाने, स्कूलों की अव्यवस्था का तर्क इस तौर पर देती रही है कि माओवादी इसे बाधित करते हैं जबकि माओवादी आंदोलन से कोसों दूर बसे इन आदिवासियों की दयनीय स्थिति के लिये सरकार के पास आखिर क्या जवाब हो सकता है. लिहाजा यह एक संरचनात्मक समस्या है जिसमे आदिवासी अपने को संरक्षित नहीं पाता और इसके विरुद्ध खड़ा होता है. जिसके पश्चात भी सरकार कोई कार्यक्रम आदिवासियों के उत्थान के लिये बनाने के बजाय इनके दमन के लिये ही कार्यक्रम बनाती रही है. पूरे देश में आदिवासियों के बीच चल रहे माओवादी आंदोलन का स्वरूप और प्रक्रिया यही रही है. उन्हें सुविधाओं और अधिकारों से वंचित रखा गया और जब सुविधाभोगी शहरों की जमीने खोखली हो गयी तो आदिवासियों द्वारा प्राकृतिक रूप से संरक्षित पहाड़ों और जंगलों को कार्पोरेट जगत के हांथों देकर हथियाने का काम किया गया जिसमे सरकार आदिवासियों का विस्थापन करने में मदद करती रही. अभी देश में प्राकृतिक सम्पदायें वहीं सुरक्षित बच पाई हैं, जहाँ आदिवासी निवास कर रहे हैं.पर्यावरण मंत्रालय द्वारा लवासा को जो नोटिस भेजी गई है वह अन्ना हजारे और मेधा पाटेकर जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं का दबाव ही है पर इसके कोई दूरगामी परिणाम नहीं निकलने वाले क्योंकि सरकार ने विस्थापन की जो नीतियां बनाई हैं राज्यों के लिये उसमे कुछ ऐसे रास्ते छोड़ दिये गये हैं जहाँ से वे मनमानी कर सकें. इन गाँवों के आदिवासी शायद अपनी जमीने बचा लेते यदि इनके साथ कोई बड़ा आंदोलन खड़ा हो पाता पर यह सम्भव इसलिये भी नहीं है कि देश के जिन हिस्सों में आदिवासियों ने अपने विस्थापन के खिलाफ बड़े आंदोलन खड़े किये हैं और सफल रहे हैं उनमें माओवादियों का जुझारू नेतृत्व ही रहा है जबकि इस क्षेत्र में माओवादीयों की कोई खास पैठ नहीं है लिहाजा सरकार और संविधान से आगे की संगठित लड़ाई लड़नी मुमकिन नहीं दिखती.