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08 अक्टूबर 2015

बिहार में बीफ़ पॉलिटिक्स

दिलीप ख़ान
राजनीति की धुरी 
दादरी के बिसाड़ा गांव में 28 सितंबर की रात उन्मादी लोगों के एक समूह ने अख़लाक़ की गोमांस खाने की अफ़वाह के आधार पर हत्या कर दी। बिहार में चुनाव के मद्देनज़र उसी वक़्त से ये कयास लगाए जा रहे थे कि राजनीतिक फ़ायदा उठाने की कोशिश के चलते पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बे की घटना बिहार की ज़मीन तक खींच लाई जाएगी। हफ़्ते भर चली तीखी बहस के बाद राष्ट्रीय स्तर पर इस घटना पर कई पक्ष उभरकर सामने आए। फ़िलहाल उन तमाम दलीलों, बहसों को स्थगित करते हुए अगर बिहार के सियासी रण में इस घटना के जुड़े तार पर नज़र दौड़ाएं तो ये साफ़ हो चला कि बीजेपी इस घटना को बिहार में भी बड़े मुद्दे के तौर पर उछाल रही है। घटना की आंच को बिहार में हिंदूवादी रंग में रंगने की कोशिश को बीजेपी इस तरह देख रही है कि धार्मिक गोलबंदी के ज़रिए जातिवादी खांचे में बंटे हिंदू समाज वो एक अस्मिता के तौर पर बांध लेगी।

पहले छिटपुट आरोप-प्रत्यारोपों का दौर चला और बाद में जब आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने ये बयान दिया कि हिंदुओं का भी एक तबका बीफ़ खाता है तो पूरे मामले ने बिहार में तूल पकड़ लिया। बीजेपी इसी तरह के बयान के फ़िराक में थी और 5 अक्टूबर को राज्य के पूर्व उपमुख्यमंत्री और बीजेपी नेता सुशील कुमार मोदी ने बाक़ायदा इस पर लंबा बयान देकर जनता को ये संदेश दिया कि महागठबंधन के नेता बीफ़ खाने की तरफ़दारी कर रहे हैं। सुशील मोदी ने कहा, “जहां नरेन्द्र मोदी ने बांग्लादेश सीमा पर चौकसी बढ़ाकर हज़ारों गायों को कटने से रोक दिया है, वहीं लालू-नीतीश और सोनिया गांधी गोमांस खाने की बात कर रहे हैं।” हालांकि ना तो सोनिया गांधी और ना ही नीतीश कुमार ने इस पर कोई बयान जारी किया, लेकिन बीजेपी ने समूचे महागठबंधन को इस राजनीति की आंच में एक कड़ाही में बंद कर दिया।

इसके बाद मीडिया ने जब इसको लपका तो लालू प्रसाद यादव को पीछे हटते हुए सफ़ाई देनी पड़ी कि वो पुश्तैनी तौर पर गाय पालते रहे हैं और गोरक्षा को लेकर उन्हें किसी भी तरह के स्पष्टीकरण की दरकार नहीं है क्योंकि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के मुक़ाबले गाय के प्रति उनका प्यार सार्वजनिक है। लालू प्रसाद शायद इस बयान में अपनी जातिगत पृष्ठभूमि को जाहिर करते हुए यादव और पशुपालन के संबंधों को रेखांकित करना चाह रहे थे। हालांकि वो सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश मार्कंडेय काट्जू और सिने अभिनेता ऋषि कपूर के उदाहरण के ज़रिए इस बात पर भी अड़े रहे कि हिंदुओं का एक तबका बीफ़ खाता है और ये देश की हक़ीकत है।

पशु से मैय्या तक
बिहार के चुनाव को इस बार देश की राजनीति के लिए अहम बताया जा रहा है और इसके बाद पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और केरल में होने वाले चुनाव के लिहाज से बीजेपी के लिए ये अहम पड़ाव है। लिहाजा, बिहार में बीजेपी ने इसे साख का सवाल बना लिया है और महागठबंधन की पार्टियों के लिए भी ये समीक्षा के आख़िरी मौक़ों में से एक है कि जिस राजनीति के आधार पर उन्होंने एकजुट होने का फ़ैसला लिया और “जनता दल’ का प्रयोग आख़िरी मौक़े पर समाजवादी पार्टी के अलग होने से बिखर गया, उसकी राह आने वाले दिनों में कहां तक पहुंच पाएगी?

अब दो प्रमुख मुद्दे उभरते हैं एक तो बिहार की राजनीति में बीफ़ पॉलिटिक्स की दरकार और दूसरा बीफ़ को लेकर प्रचलित मान्यताओं की हक़ीक़त। बढ़ती महंगाई से लेकर बेरोज़गारी, पलायन और बुनियादी सुविधाओं के अभाव से जूझते बिहार में विकास की बात हर पार्टी कर रही है और हर पार्टी का दावा है कि उनके लिए यही सबसे बड़ा एजेंडा है, लेकिन इन बयानों के समानांतर ये भी साफ़ हो चला है कि पहले के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा गहरे स्तर तक ये चुनाव जातिगत और धार्मिक आधार पर लड़ा जा रहा है। महागठबंधन के भीतर जहां आरजेडी मंडल-2 की बात उछालकर सामाजिक न्याय और सोशल इंजीनियरिंग को अपना प्रमुख एजेंडा बनाकर प्रचार कर रही है, वहीं दूसरी तरफ़ उसकी सहयोगी जेडीयू अपने प्रचार में विकास और नीतीश सरकार के काम-काज को रैलियों में तरजीह दे रही है। यानी दोनों पार्टियों ने रणनीतिक तौर पर मतदाताओं के लिए मुद्दे बांट लिए हैं। लालू प्रसाद यादव को तो अगड़े-पिछड़े पर दिए गए एक बयान के बाद चुनाव आयोग ने नोटिस भी भेज दिया।

जातिगत समीकरण के लिहाज से बीजेपी के लिए इस चुनाव को मुफ़ीद नहीं माना जा रहा है, लिहाजा उसके लिए जातिगत अस्मिता को धार्मिक अस्मिता के लबादे से ढंकना फ़ायदे का सौदा है। बीफ़ एक ऐसा शब्द है जो राजनीतिक तौर पर हिंदू पहचान को समेटने की कोशिश में क़ामयाबी देने का माद्दा रखता है। ये अलग बात है कि ऐतिहासिक तौर पर और इस वक़्त भी हिंदुओं का एक तबका बीफ़ खाता ज़रूर है लेकिन राजनीतिक माहौल में बीफ़ को धार्मिक पहचान का मुद्दा मानते हुए वो लकीर के एक तरफ़ खड़ा हो सकता है।

इस पूरे मामले में ग़ौरतलब बात ये है कि बिहार में जातीय पहचान को दरकिनार करने की दो कोशिशें हुईं और दोनों बीजेपी के चलते। एक कोशिश बीफ़ की और दूसरी बिहारी उपराष्ट्रवाद की। नरेन्द्र मोदी ने बिहार में मुज़फ़्फ़रपुर की पहली चुनावी रैली में जब नीतीश कुमार को लेकर डीएनए वाला बयान दिया तो महागठबंधन ने इसे 180 डिग्री मोड़ते हुए बिहारी अस्मिता पर चोट करार दिया। डीएनए जांच करने के लिए कैंप लगाने की राजनीतिक नौटंकी हुई और मामला कुल ऐसा बना कि बिहारी नाम की कोई एक पहचान बिहार के भीतर रह रहा है जिसको अपमानित किया गया। शैवाल गुप्ता ने इसे बिहार के सुसुप्त राष्ट्रवाद को उछालने का मामला बताया। यानी, जिस तरह तमिलनाडु में तमिल अस्मिता, पश्चिम बंगाल में बांग्ला अस्मिता भारतीय राष्ट्रवाद के समानांतर चलती रहती है उस तर्ज पर उत्तर भारत में कभी भी उपराष्ट्रवाद सतह पर नज़र नहीं आया।

डीएनए और स्पेशल पैकेज देने के वक़्त नरेन्द्र मोदी की भंगिमा को जिस तरह महागठबंधन ने बिहारी अस्मिता से जोड़ा वो इस चुनाव में पहली बार बिहारियों को एक ठोस आइडेंटिटी के नीचे खड़ा कर दिया। दूसरी तरफ़ बीजेपी ने बीफ़ को हिंदू अस्मिता के साथ जोड़ते हुए जातीय पहचान को पाटने की कोशिश की। बड़ा सवाल तो ये है कि दोनों गठबंधनों के बीच जिस चुनाव को सीधा मुक़ाबला माना जा रहा है, क्या उसमें जातियों के चक्रव्यूह को भेदने की कोशिश में दोनों आश्वस्त नहीं है?

तीसरा मामला ये है कि बीफ़ को लेकर जिस तरह की अफ़वाह दादरी से लेकर बिहार के मैदान तक फैलाई गई, उसकी सच्चाई क्या है? राजनीतिक बिसात पर बीफ़ का उदय हाल के दिनों में नरेन्द्र मोदी की देन है, जब लोक सभा चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने कई रैलियों में ‘पिंक रिवोल्यूशन’ का मुद्दा उठाया। ज़्यादा विस्तार में ना जाते हुए दो-तीन बातों का ज़िक्र करना ज़रूरी है। पहली, भारत गोमांस का निर्यात नहीं करता। दूसरी, बीफ़ की अंतरराष्ट्रीय श्रेणी में गाय के अलावा भैंसे का भी मांस आता है और साल भर पहले तक भारत बीफ़ (यानी भैंसे का मांस) निर्यात में दूसरे नंबर पर था और नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद नंबर वन बन गया। तीसरी, देश के कई राज्यों में गोमांस खाना बूचड़खानों में गाय काटना भी क़ानूनी है और जम्मू-कश्मीर और महाराष्ट्र के अलावा किसी भी राज्य में बीजेपी सरकार ने इस पर पाबंदी लगाने की कोई कोशिश नहीं की।

बिहार में गाय की राजनीति को हवा
इन तमाम तथ्यों का बिहार से सीधे तौर पर लेना-देना नहीं है, लेकिन चुनावी बयार में बीफ़ को लेकर चुनिंदा तथ्यों को जिस तरह राजनेता पेश कर रहे हैं उसमें इस लिहाज से ये ज़रूरी है कि अचानक राजनीति में बीफ़ के उदय को मतदाता किस तरह देखें। बिहार अगले एक महीने तक ऐसे कई मुद्दों से होकर गुजरेगा जो वहां के स्थानीय लोगों के लिए कतई मुद्दा नहीं है। ऐसे आसमानी मुद्दे कई दफ़ा वास्तविक मुद्दों को पीछे धकेलने में क़ामयाब हो जाती है। लिहाजा इस क़ामयाबी को असफ़ल करने का पूरा दारोमदार उस समूह पर है, जिसे लोकतंत्र में मतदाता के नाम से बुलाया जाता है।

जो बिहार मानव विकास सूचकांक पर निचले पायदानों पर लगातार अपनी मौजूदगी दर्ज करता रहा है, उसके लिए बीफ़ मतदान का बड़ा मुद्दा नहीं हो सकता। लेकिन, दादरी में बीजेपी कार्यकर्ताओं द्वारा अंजाम दी गई घटना को बिहार में राजनीतिक बढ़त के लिए इस्तेमाल करने की पूरी कोशिश इसी दिशा में आगे बढ़ती दिख रही है। इस मामले के बाद बीफ़ को लेकर सच्चाई बयान करने का जोखिम भी विपक्ष नहीं उठा सकता, क्योंकि अगर ये मुद्दा लंबा खिंचा तो सबसे ज़्यादा फ़ायदा बीजेपी को होगा। तो, बिहार में जातीय पहचान को ओवरलैप करने की दो कोशिशों (बिहारी उपराष्ट्रवाद के ज़रिए और धार्मिक पहचान के ज़रिए) का अंजाम क्या होना है? क्या विकास की बात करने वाली तमाम पार्टियां हमेशा इस फिराक में रहती हैं कि विकास को आगे कर जनता की संवेदनशील नस को किन मुद्दों के ज़रिए छुएं?  चुनाव के बीच में दशहरा और मुहर्रम दोनों होने हैं और बीफ़ जैसे संवेदनशील मुद्दे बिहार की राजनीति को ग़लत दिशा में मोड़ सकते हैं।

फ़िलहाल बिहार के अलावा पूरे देश में जिस तरह की राजनीति इस मसले पर चल रही है उस लिहाज से सभी पार्टियों को समाज के व्यापक हित में इसे बंद कर बिहार की बुनियादी सुविधाओं की बात करनी चाहिए और ये दिखाना चाहिए कि किसके पास बिहार को बेहतर बनाने का अच्छा मॉडल है। एनडीए की मुश्किल ये है कि विकास और तरक्की की बात करेगी तो महंगाई समेत कई मुद्दों पर वो ख़ुद घिर जाएगी क्योंकि केंद्र में वो सत्ता में है और महागठबंधन की मुश्किल ये है कि विकास की बात करते ही बिहार के पिछड़ेपन के लिए नीतीश और पूर्ववर्ती लालू सरकार पर ही प्रश्नचिह्न लग जाएगा।
(ये भी पढ़ें -  बीफ़=गोमांस में अफ़वाहों का संचारशास्त्रीय अध्ययन

26 फ़रवरी 2014

तस्वीर के पर्दे में: मुज़फ्फरनगर राहत शिविरों से लौट कर

रियाज़ उल हक़

मलकपुर शिविर, शामली. अपनी बीमार मां और हताश पिता से बीच चार लोगों के परिवार के लिए आटा गूंधते हुए निसा कैमरा देख कर रुकती नहीं. बस मुस्कुरा देती है. पास के खाट पर उसकी मां की सांसें दमे से उखड़ रही हैं और पिता धुआं उगलते चूल्हे में आग जलाने की कोशिश कर रहे हैं.

बिना दीवारों वाली यह एक ऐसी जगह है जहां रातों में तापमान दो डिग्री तक गिर जाता है. हवा से बचाने के लिए उनके पास पॉलिथीन की चादरों, फटे कपड़ों और चीथड़े हो चुके कंबलों के अलावा कुछ नहीं है. आसपास गन्ने की सूखी हुई पत्तियां हैं, लकड़ी की चिन्नियां हैं, न्यूमोनिया से मरते बच्चों की फेहरिश्त है, खाली पेट दिन गुजारने की मजबूरियां हैं और अपने घर से बेदखल कर दिए जाने की जलील यादें हैं. इन सबके बीच वह कौन सी चीज है जो उन्हें कैमरे के सामने मुस्कुरा उठने के लिए तैयार करती है?

क्या यह सिर्फ कैमरे के आगे खड़े होकर मुस्कुराने की आदत भर है?

लेकिन यह मुमकिन नहीं है. मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ, सहारनपुर और बागपत के जो एक लाख से ज्यादा लोग अपने घरों से उजाड़ दिए गए हैं, गुजर बसर की आखिरी उम्मीदें भी जिनसे छीन ली गई हैं, जिनकी हरेक पुरानी चीज को उनकी जिंदगी से बाहर कर दिया गया है- यह सिर्फ एक आदत भर नहीं हो सकती कि वे कैमरे के आगे मुस्कुराएं.

इसका संबंध काफी हद तक इससे है कि वे अपनी जिंदगी में फोटोग्राफ्स को किस तरह लेते आए हैं.

यह यकीन किया जाता है कि फोटोग्राफ किसी एक चुने हुए पल को हमेशा के लिए, या कम से कम लंबे समय तक के लिए, सहेज कर रख लेता है. वक्त गुजर जाता है, आदमी गुजर जाते हैं, जगहें बदल जाती हैं, लेकिन तस्वीरों में बचा कर रखा हुआ वह पल ज्यों का त्यों बना रहता है. बदले हुए हालात में वह उस जिंदगी की यादगार के रूप में मौजूद रहता है. फोटोग्राफ द्वारा यह भूमिका अपना लेने के कारण इंसानी याद्दाश्त पर उस खास मौके को हमेशा ज्यों का त्यों बचा कर रखने की जिम्मेदारी नहीं रहती. और चूंकि एक फोटोग्राफ भौतिक रूप में मौजूद रहता है न कि महज किसी की याद में, इसलिए वह सबके लिए सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होता है. इस सहूलियत के कारण फोटोग्राफ्स को उन हालात के एक सच्चे सबूत की तरह लिया जाता है, जिनसे एक खास वक्त में जिंदगी को गुजरना पड़ा था.

यानी ये आदतें नहीं बल्कि यादें हैं, जो इन हालात में फोटोग्राफ के लिए तैयार होने को सहज बनाती हैं.

वे यादें खौफ और आतंक में डूबी हुई रातों की यादें हैं. जब मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ, सहारनपुर और बागपत जिलों के दूर दराज के उनके गांवों में प्रभुत्वशाली हिंदू भू-स्वामी जातियों तथा खाप पंचायतों के नेतृत्व में दक्षिणपंथी सांप्रदायिक ताकतों द्वारा जनसंहार, औरतों पर यौन हमले, आगजनी और लूटपाट की गई. झूठी खबरों और अफवाहों के बूते पूरे मुस्लिम समुदाय के खिलाफ ऐसा माहौल बनाया गया कि उनका गांवों में रहना मुमकिन नहीं रह गया. मुस्लिम आबादी वाले मुहल्लों पर हमले हुए, उनकी दुकानें और मकान लूट लिए गए. औरतों के खिलाफ किए गए अमानवीय अपराधों की ऐसी शिकायतें हैं, जिन पर एकबारगी यकीन नहीं होता. आरा मशीन पर उन्हें चीर देने की शिकायतें. कांच के टुकड़ों पर, निर्वस्त्र करके नाचने पर मजबूर करने की शिकायतें. मुस्लिम गोरी औरतों को हमलावरों द्वारा जबरन अपने घर में कैद कर रख लेने की शिकायतें.

शामली जिले के फुगाना गांव में मेहरदीन की नंगी लाश पिंकू जाट के घर में बल्लियों से लटकी हुई मिली. एक दूसरे गांव में घटना की पड़ताल करने दिल्ली से गई एक टीम को कहा गया कि इससे क्या फर्क पड़ता है कि मुसलमान कितनी संख्या में मार दिए गए? उनके तो बच्चे ज्यादा होते हैं.

सचमुच कोई फर्क नहीं पड़ता. कम से कम उस व्यवस्था को तो बिल्कुल ही नहीं, जिसे बटन दबा कर बदल देने के दावों की गूंज अभी ठीक से खत्म भी नहीं हुई है. मेहरदीन की तरह सीधे हमले में मार दिए गए लोगों की तादाद सरकारी तौर पर अधिक से अधिक 80 है लेकिन गैर सरकारी तौर पर यह संख्या 130 के ऊपर जाती है. जो इन हमलों में जीवित बच गए वे एक अनिश्चित भविष्य में दाखिल हुए. उनमें से ज्यादातर पिछले चार महीनों से ज्यादा वक्त इन शिविरों में गुजार चुके हैं, जहां बाहर से आ रही नाकाफी मदद किसी तरह जिंदा रख पा रही है. कभी कभी वह भी नहीं. जैसे कि चित्तमखेड़ी, बागपत से आईं महबूबा के लिए अपनी बच्ची को भूल पाना मुश्किल हो रहा है. 2 दिसंबर को बुखार और उल्टी शुरू हुई तो उन्होंने पाया कि उसे ठंड लगी है. अगले दिन सवेरे वे उसे पास के कैराना कस्बे में एक डॉक्टर को दिखाने ले गईं. इंजेक्शन देकर इंतजार करने के बाद भी जब उसकी हालत नहीं सुधरी तो डॉक्टर ने उन्हें लौटा दिया. उस रात दो बजे उनकी बच्ची गुजर गई. खुशनुमा! अब बस यह एक नाम बचा रह गया है, एक खाली जगह की शक्ल में, जो यह महसूस कराता है कि वह बच्ची कभी इस दुनिया में हुआ करती थी.

महबूबा के पति फावड़े की मजदूरी करते हैं. यानी जमीन के मालिक प्रभुत्वशाली तबके के गन्ने के खेतों में काम करते हैं. उनके पास अपनी जमीन नहीं हुई कभी. सांप्रदायिक हमलों में परिवार के उजड़ जाने और रोजगार खो बैठने के बाद उनके पास कुछ भी नहीं है, सिवाय इस तंबू के, जूट की रस्सियों से बुनी हुई एक खाट के, दर्जन पर कपड़ों के और कुछ बरतनों के. आप इसे एक दुस्वप्न भरी जिंदगी कह सकते हैं, जो पिछले साल सितंबर में शुरू हुई.

लेकिन महबूबा के लिए इसकी शुरुआत कभी हुई ही नहीं. वे इसे हमेशा से जीते आए हैं. अपनी सात साल की बेटी के बाल ठीक करते हुए वे बताती हैं, ‘कई साल पहले मेरे ससुर बारू को बीच मोहल्ले में मार दिया गया पीट पीट कर. न कोई केस बना न किसी को सजा हुई. जिन्होंने मारा वे ऊंची जाति के हैं. जमीन उनकी है, पुलिस और सरकार में उनका रोब-दाब है. हम कौन हैं? हम तो उनकी हाजिरी में जीने वाले लोग हैं. हमारी कोई ताकत नहीं है.’ इस साल जब रमजान का महीना चल रहा था, जबरन उन्हीं तबकों से आने वाले लोगों ने मस्जिद पर से लाउडस्पीकर उतरवा दिया, जिस पर अजान दी जाती थी और रोजा खोलने के वक्त का ऐलान होता था. कोई कुछ न कर सका. महबूबा कहती हैं, ‘बच्चे पूछते हैं कि हम मुसलमान क्यों हैं? हम जिस तरह जीना चाहते हैं, हमें इसकी आजादी क्यों नहीं है? हमारे पास आज तक एक मस्जिद तक नहीं है. बस एक चबूतरा है, जिसे हम मस्जिद कहते हैं.’

और अब महबूबा से वह गांव भी छूट गया है जिसमें एक चबूतरेनुमा मस्जिद हुआ करती थी. और अगर सरकार की चली तो यह शिविर भी छूट जाएगा. प्रेस और अदालतों में राहत शिविरों की दुर्दशा की खबरों की चर्चा के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने जबरन शिविरों को बंद कराया जाने लगा है. साल के पहले हफ्ते में, जब मुजफ्फरनगर और शामली जिलों में तापमान शून्य के आसपास गिर गया था, पुलिस और प्रशासन ने जबरन शिविरों को खाली कराया. जिस वक्त महबूबा अपनी बच्ची के बाल संवार रही थीं, सरकारी अधिकारियों की गाड़ियों का एक काफिला मलकपुर शिविर से धूल उड़ाता हुआ रवाना हुआ. वे इस शिविर को खाली कराने के लिए 12 घंटे में दूसरी बार आए थे. पहली बार वे आधी रात के बाद उस वक्त आए थे जब उन्हें उम्मीद थी कि लोग सो रहे होंगे. लेकिन परिवारों के मर्द और बच्चे सड़क को घेरे हुए रात भर बैठे रहे थे, ताकि पुलिस को जबरन शिविर में घुसने से रोका जा सके. अगले दिन दोपहर में जब वे दोबारा आए तो फिर लोगों ने उन्हें घेर कर वापस लौटा दिया. इलाके में लगभग सभी शिविरों में यह कहानी थोड़े-बहुत अंतर से दोहराई गई.

मलकपुर, नूरपुन खुरगान, सुनेठी और लोई जैसे करीब 25 राहत शिविरों में रह रहे तीस हजार से अधिक लोगों के पास कोई विकल्प नहीं है. शिविर छोड़ कर वे जाएंगे कहां? जिन लोगों ने पिछले चार महीनों में कभी अपने पुराने गांव लौटने की कोशिश की, उन्हें अपमान और धमकियां सहनी पड़ीं. खेड़ी गांव, जिला शामली के मो. सलीम दिसंबर में एक बार अपने गांव लौटे थे. उनके मकान पर प्रभुत्वशाली जाट समुदाय के लोगों ने कब्जा कर लिया है. सलीम को देख कर उन्होंने गाली गलौज की और कहना शुरू किया कि ‘मुल्ले फिर आ गए. देखते हैं कि ये कैसे यहां रहते हैं.’ डरे हुए और अपमानित सलीम लौट आए.

राज्य या केंद्र, किसी भी सरकार ने इनको फिर से बसाने की कोई कोशिश नहीं की है. लेकिन ये हमेशा के लिए विस्थापित जिंदगी जीते रहें, इसे यकीनी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है. सरकार राहत शिविरों में रह रहे सभी लोगों को पीड़ित मानने को राजी नहीं. इसलिए उन्हें मुआवजा भी नहीं मिलेगा. अगस्त सितंबर के दौरान इन इलाकों में हुए सांप्रदायिक हमलों के कारण 162 गांवों के मुसलमान विस्थापित हुए. लेकिन सरकार महज 9 गांवों को ही ‘दंगा’-ग्रस्त स्वीकार करने को तैयार है. वे गांव हैं- लाक, लिसाढ़, बहावड़ी, कुतबा, कुतबी, मोहम्मदपुर रायसिंह, काकड़ा, फुगाना, और मुंडभर. सरकार इन गांवों के कुल 1800 परिवारों को प्रति घर पांच लाख की रकम मुआवजे के बतौर देने की बात कर रही है. लेकिन एक घर में अगर अनेक परिवार हों तब या तो यह रकम बंट कर बहुत थोड़ी सी रह जाएगी या फिर रकम किसी एक परिवार के पास ही रहेगी और बाकी परिवारों को कोई रकम नहीं मिल पाएगी. ऐसा अनेक मामलों में देखने में आया भी है.

राज्य सरकार ने अब तक जिन गिने-चुने लोगों को मुआवजा राशि दी है, उन्हें इसके लिए एक हलफनामा दायर करना पड़ा है कि वे लौट कर अपने गांव नहीं जाएंगे. अगर गए तो यह राशि उनसे उसी तरह जब्त कर ली जाएगी जैसी बकाया लगान वसूला जाता है.

बाकी 153 गांवों के विस्थापित लोगों के बारे में सरकार का कहना है कि वे मुआवजे की लालच में शिविरों में रह रहे हैं, जबकि उनका कोई नुकसान नहीं हुआ है. यह सही नहीं है. लोगों ने हमले से आतंकित होकर गांव छोड़ा और जो लोग पीछे रह गए वे मार दिए गए या लापता हैं, जैसे कि लिसाढ़ से आए अलीबान के अब्बा के साथ हुआ. अगस्त सितंबर में जब वे लोग गांव से भागे तो उनके अब्बा नसीरुद्दीन नहीं आए. उनके साथ साथ 12 दूसरे लोगों ने भी गांव छोड़ना कबूल नहीं किया. अगले दिन वे सभी 13 लोग मार दिए गए. उनमें से सिर्फ दो की लाश मिल पाई. साफ है कि अगर लोग गांव से नहीं भागते तो मार दिए जाते.

अलीबाज का एक सवाल है: ‘जिस घर में मेरे चाचा (अजमू), चाची (अलीमन) और अब्बा (नसीरुद्दीन) का कत्ल कर दिया गया, मैं वहां जाकर कैसे रह सकता हूं? मुझे यह भरोसा कौन दिलाएगा कि वहां मुझे मार नहीं दिया जाएगा?’

अलीबाज ने सिर्फ अपने परिजन ही नहीं खोए हैं. उन्होंने अपनी जिंदगी को लगातार तबाह होते देखा है. और यह एक ऐसी घटना है जिसे कैलेंडर की कुछ तयशुदा तारीखों में नहीं मापा जा सकता. यह इस व्यवस्था में धार्मिक अल्पसंख्यकों और दलितों का सामाजिक इतिहास भी बनाता है.

पच्चीस साल पहले तक अलीबाज के पास पहले अपने दो हथकरघे हुआ करते थे, जिस पर बुने कपड़ों को उनके मुहल्ले के लोग घूम घूम कर बेचा करते थे. पूंजी की कमी, सूत की महंगाई और सरकारी मदद की गैर मौजूदगी में उन्हें यह काम बंद कर देना पड़ा. इसके बाद वे शहर की दुकानों से थोक में कपड़े खरीद कर गांव गांव में बेचने लगे. लेकिन 20 साल यह काम करने के बाद इस काम को भी बंद कर देना पड़ा, क्योंकि उनके पास पर्याप्त पूंजी नहीं बच पाती थी. सो उन्होंने घूम घूम कर रद्दी-कबाड़ खरीद कर बेचना शुरू किया. इस धंधे में उनका यह तीसरा साल था. लेकिन अब धंधा भी हाथ से गया और थोड़ी बहुत जमा पूंजी भी. उनके पास कुल मिला कर 300 गज जमीन हुआ करती थी, जिस पर उनके घर के सात कमरे थे. उन्हें दुख इस बात का है कि जब हिंदू समूह ने हमला किया तो उनमें वे दलित भी थे, जिनके पास उन्हीं जितनी जमीन है. या उतनी भी नहीं. वे समझ नहीं पाते कि आखिर दलितों को उनसे क्या शिकायत थी?

अगर इलाके में जमीन के मालिकाने पर नजर डालें तो इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है. इलाके में ज्यादातर जमीनों के मालिक संपन्न जाट हैं. सबसे संपन्न 4.78 फीसदी लोगों के पास कुल भूमि का 26.73 फीसदी मालिकाना है, जबकि सबसे नीचे के 60 फीसदी लोगों के पास करीब 20 फीसदी जमीन है. जाहिर है इस दूसरे समूह के पास बहुत छोटी जोतें हैं-एक हेक्टेयर से भी कम. भूमिहीन लोगों में मुस्लिम और दलित सबसे बड़े दो समूह हैं. वे अपनी आजीविका के लिए जाटों के खेतों और उनके द्वारा संचालित दूसरे धंधों पर निर्भर हैं. वे एक दूसरी वजह से भी निर्भर हैं. संपन्न जाट महाजनी का एक समांतर धंधा भी करते हैं. वे 10 फीसदी तक की ऊंचे सूद पर पैसा गरीब भूमिहीनों को देते हैं. कुरमल गांव से आकर नूरपुर खुरगान में रह रहे मो. दिलशाद ने 2003 में 40000 हजार रुपए एक जमींदार सूदखोर से लिए थे, जिसके बदले में उनपर 2006 में एक लाख 80 हजार रुपए की देनदारी थी. पैसा न चुका पाने की हालत में उन्हें जमींदारों के यहां बंधुआ मजदूर के रूप में काम करना पड़ता है, जो ज्यादातर मामलों में पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है. इस प्रभुत्वशाली तबके का कानूनी और साथ साथ कानून के बाहर की राजनीतिक-सामाजिक संगठनों पर पूरा कब्जा होता है-चाहे वह पंचायतों के सरपंच हों, मुखियाहों या प्रधान या फिर खाप पंचायतें हों. उनका पुलिस और स्थानीय प्रशासन पर पूरा नियंत्रण होता है. दिशलाद ने मुसलमानों द्वारा झेले जा रहे सामंती उत्पीड़न और हमले के डर के बारे में बताया, ‘अगर हम नए कपड़े पहनें तो वे हमें गाली देते हैं और सूअर कहते हैं. वे हमारे साथ गाली के बगैर बात ही नहीं करते…और तो और वे किसी को भी कभी भी गिरफ्तार करा सकते हैं.’

खेती से होने वाले आय को सूद पर चलाने और बाजार की स्थिरता के बीच भारी मशीनी के इस्तेमाल की वजह से खेती की उत्पादकता में कोई खासी तरक्की नहीं दिखी है, राज्य की उत्पादकता में सात फीसदी वृद्धि दर के बरअक्स इस इलाके में खेती की वृद्धि दर महज 4.5 फीसदी है. जाहिर है कि बड़े किसान, जो ज्यादातर गन्ना की खेती करते हैं और जिन्हें अपर्याप्त सरकारी समर्थन मूल्य की शिकायत रही है, संकट का सामना कर रहे हैं. इस संकट का एक दूसरा पहलू भी है. इस संकट ने एक सामाजिक तनाव को पैदा किया है, जिसका नतीजा सांप्रदायिक हमले के रूप में सामने आया है और जो पूरे देश में दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों के खिलाफ लगातार बढ़ रहे हमलों का ही एक हिस्सा है. दलित तबका आर्थिक और समाजिक रूप से संपन्न और भूस्वामी जाट तबके पर इस कदर निर्भर है, कि वह उनके दबाव से तब बाहर नहीं जा सका, जब खाप पंचायतों के जरिए आरएसएस और संपन्न तबके ने मुसलमानों पर हमले की योजना पर अमल किया.

इसलिए, जिन्हें मुआवजा नहीं मिला है, वे भी अब अपने गांव नहीं लौटना चाहते. अब दोबारा उस बंधुआ जिंदगी को जीने की चाहत उनमें नहीं है.

वे अपने गांव नहीं लौट सकते. वे शिविरों में नहीं रह सकते. उनके पास कोई संसाधन नहीं है. वे कहां जाएं?

महबूबा गुस्से में हैं, ‘आग लगा दो अपने मुआवजे में. मेरी बच्ची को जिंदा कर दो.’

जिस जगह पर उनकी बच्ची दफ्न है, उसे छोड़ कर वे कहीं नहीं जाएंगी.

याद. अपनी मरी हुई बच्ची की याद, जो इस जमीन पर दफ्न है. इसलिए वे इस जमीन से नहीं जाएंगी. इंसान किसी को क्यों याद करता है. अब हम उस जगह पर पहुंच गए हैं जहां हम यह सवाल कर सकते हैं: चीजें याद में क्यों बनी रहती हैं? खास कर अगर वो नाइंसाफी और जुल्म से, गुनाह और जुर्म से जुड़ी हुई हों? ऐसी यादों के बने रहने के साथ यह उम्मीद जुड़ी होती है कि इनका कभी इंसाफ होगा. इंसाफ की यह उम्मीद किसी हुकूमत या व्यवस्था से भी हो सकती है और किसी ऐसी ताकत से भी जिनके बारे में उन्हें यकीन हो कि वह मौजूद है और वह सबकुछ देखती और इंसाफ करती है.

हुकूमत और व्यवस्था ने उनके सामने बार बार यह साफ किया है कि वे उनसे कोई उम्मीद नहीं रखें. ठंड से ठिठुरते हुए जिन हफ्तों में उन्हें पुलिस और प्रशासन से शिविरों की हिफाजत के लिए रात-रात भर सड़कों जागते हुए बैठना पड़ा, उत्तर प्रदेश की सरकार और प्रशासन मुलायम सिंह के गांव सैफई में भव्य जलसे में जुटा हुआ था. इस आयोजन में 200 से 300 करोड़ रुपए खर्च किए जाने का अनुमान लगाया जा रहा है. इसके अलावा सात हजार की आबादी वाले इस गांव के लिए 334 करोड़ रुपए की योजनाएं मौजूदा सरकार के दौरान घोषित की गई हैं. लेकिन सांप्रदायिक हमलों में तबाह लोगों को बहाल करने की जरूरत इस सरकार को कभी महसूस नहीं हुई.

अगर सरकार और मौजूदा व्यवस्था इस इंसाफ को यकीनी नहीं बनाती तो जब तक यह इंसाफ मिल नहीं जाता, तब तक के लिए जरूरी है कि अपराध के सबूत बने रहें. और जिनके खिलाफ ये अपराध किए गए हैं, वे भी. बदहाली और तकलीफों से गुजर रही जिंदगी के बीच कैमरे के सामने अपनी मौजूदगी को दर्ज कराने में किसी झिझक के न होने के पीछे यह जिद है. राहत शिविरों में रह रहे हजारों लोग महसूस करते हैं कि उन पर किया गया हमला एक कौम के रूप में उनके अस्तित्व पर किया गया हमला है. वे महसूस करते हैं कि एक पूरे समुदाय के रूप में उनकी जिंदगी को तबाह कर देना इस हमले का मकसद है. वे यह भी बताते हैं कि यह ऐसा हमला नहीं है, जिसे महज तारीखों के साथ गिनाया जा सके. यह शायद उनके होने के साथ ही शुरू हो गया था. इसलिए, जब वे काले से डिब्बे के भीतर एक शटर के खुलने और बंद होने के बीच कैमरे की तरफ देखना चुनते हैं तो वे एक बयान दे रहे होते हैं कि एक संप्रदाय के रूप में मिटा दिए जाने की सारी कोशिशों के बावजूद वे बने हुए हैं. यहां. इस तरह. हाड़ मांस की शक्ल में. रगों में दौड़ते हुए खून और आती जाती सांसों के साथ. ताकि सनद रहे.

वे जानते हैं कि अगर यादें बनी रहीं तो इंसाफ की उम्मीदें भी बची रहेंगी. अगर उन्हें भुला दिया गया तो जुर्म का आखिरी सबूत भी मिट जाएगा. वे देखते हैं कि कैसे उनकी सारी तकलीफों को, उनके दर्द और उनकी बेदखली को पिछले चार महीनों में झुठलाने की कोशिशें हुई हैं. ये कोशिशें तब हुई हैं जब एक लाख लोग इन चार महीनों में उजड़े और राहत शिविरों में बसने को मजबूर किए गए. अगर वे यहां से चले गए तो क्या कोई मानेगा कि यहां कोई जुर्म हुआ भी था? अगर इस जुर्म के होने को स्वीकार करना है तो सबसे पहले उनकी मौजूदगी को भी स्वीकार करना होगा, जिन के खिलाफ जुर्म हुआ.

जाहिर है अब तक उन्हें निराशा ही मिली है. लेकिन इस दुनिया में चार गुना चार हाथ के तंबू के सामने अपने परिवार के लिए आटा गूंथती इस लड़की की तस्वीर जब तक रहेगी, वह इंसानी याद को इस बेचैनी से निजात दिलाती रहेगी कि इंसाफ की जरूरत को साबित करने वाली अकेली वही नहीं है. एक तस्वीर भी है.

(इस लेख में फोटोग्राफी संबंधी कुछ बुनियादी स्थापनाओं के लिए लेखक जॉन बर्जर और सूसन सॉन्टैग का आभारी है.)

25 अप्रैल 2013

फारबिसगंज की पुलिस क्रूरता और जनसंघर्ष के बीच नीतीश का छ्द्म सेकुलरवाद


सरोज कुमार
बिहार का राजनैतिक खेल देश की राजनीति को प्रभावित करने की कोशिश कर रही है। भाजपा के साथ जदयू गठबंधन की गहरी दोस्ती में चल रही उठापटक ने माहौल गरमा दिया। मोदी के रथ पर सवार होने की कोशिश कर रही भाजपा को अपने सहयोगियों के ही विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इसी में शामिल है सुशासन बाबू की जदयू। कहा तो ये भी जा रहा है कि नीतीश को आगे करने में भाजपा का ही एक धड़ा सक्रिय है। लेकिन फिलहाल इस ओर ना भी जाएं और पूरे घटनाक्रम को सामान्य तरीके से देखें तो भी नीतीश के सेकुलर तिकड़म और सुशासन का खेल साफ नजर आ जाएगा। नीतीश कुमार जिस सेकुलर छवि व मुसलमानों के प्रति प्रेम को जाहिर कर रहे हैं वह फारबिसगंज जैसे मामले में हवा हो जाती है। पिछले दो सालों से अररिया जिले के फारबिसगंज गोलीकांड के पीड़ित इंसाफ व अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन सुशासन बाबू की पुलिस-प्रशासन ने दोषियों की बजाय पीडि़तों के दमन में ही लगातार जुटी हुई है। अब पुलिस ने गोलीकांड में पुलिस की गोली से मारे गए 3 लोगों और मर चुके 3 अन्य लोगों समेत 50 ग्रामीणों पर ही वारंट जारी कर दिया है। हाल ये है कि फारबिसगंज के भजनपुरा गांव के सारे पुरुष भागे फिर रहे हैं। और ये सारे गरीब मुसलमान ग्रामीण हैं। मुसलमानों की बड़ी आबादी वाला जिला अररिया  बिहार के सबसे पिछड़े जिलों में है जहां गरीबी बहुत ही ज्यादा है। लोगों को मूलभूत सुविधाएं भी नहीं मिल पाती।

कैसे भूला जा सकता है मर रहे नौजवान पर कूदती सुशासन की पुलिस को...

अररिया जिले के फारबिसगंज के भजनपुरा गांव में 3 जून 2011 को लोकतंत्र के उस क्रूर प्रदर्शन को कैसे भूला सकता है। कैसे भूल सकते हैं हम कि पुलिस की गोलियों का शिकार हो घायल मुसलिम नौजवान पर नीतीश कुमार की पुलिस का जवान कूद-कूद कर उसे पैरों से रौंद रहा था? आखिर जिसपर जनता की सुरक्षा की जिम्मा हो वह कैसे इतना क्रूर अट्टाहस कर सकता है। इस दर्दनाक वीडियो देख साफ जाहिर होता है कि बिहार पुलिस का वह जवान किस तरह घृणा के वशीभूत अट्टाहस करते हुए गालियां बक रहा था और युवक को रौंद रहा था। यह उसी सामंती , सांप्रदायिक घृणा व हिंसा का ही नमूना था।
हम कैसे भूल सकते हैं कि अपने पति के लिए खाना  लेकर जा रही यासमीन को भी पुलिस की छह गोलियां      लगी थीं। वह सात महीने की गर्भवती थी। और उस आठ महीने के मासूम नौशाद का भी क्या कसूर था जिसे पुलिस ने गोलियों से भून दिया था। इनके अलावा एक और युवक यानि की कुल चार मुसलमान ग्रामीणों को पुलिस ने मार डाला था। मरने वाले दो यवुकों में एक 18 साल का मुख्तार अंसारी व 20 साल का मुश्ताक अंसारी थे।
और पुलिस ने ये घोर दमनकारी कार्रवाई केवल इसलिए की क्योंकि भजनपुरा गांव के ग्रामीण अपने आम रास्ता को बंद किए जाने का विरोध कर रहे थे जिसका प्रयोग वे शहर जाने के लिए करते थे। उस सड़क की जमीन को ऑरो सुंदरम इंटरनेशनल कंपनी को दे दिया गया था जिसके शेयर हॉल्डरों में सत्तासीन भाजपा के नेता भी हैं। साफ है कि सत्ता व शासन के इशारे पर यह लोमहर्षक कार्रवाई की गई थी। यह पूरी कार्रवाई एसपी गरिमा मल्लिक व अन्य उच्चाधिकारियों की मौजूदगी में हुई। पर किसी ने इसे नियंत्रित करने की कोशिश नहीं की। वह तो किसी ने इस घटना के वीडियो को इंटरनेट पर डाल दिया जिससे की पूरी दुनिया में यह कार्रवाई पता चल गई।

अब पीड़ितों समेत शिकायत करने वाले 50 ग्रामीणों पर ही जारी कर दिया गया वारंट...

इस पूरे वाकये को याद करना इसलिए जरुरी है कि इसके बावजूद नीतीश की पुलिस ने ग्रामीण गरीब मुसलमानों का दमन जारी रखा है। पिछले करीब दो हफ्ते पहले पुलिस ने दो साल पहले हुई इस घटना में मारे गए 3 लोगों, मर चुके 3 अन्य लोगों, पीड़ित परिवार के 14 लोगों और जांच आयोग में गवाही व कोर्ट में हुई शिकायत में हस्ताक्षर करने वाले 23 प्रत्यक्षदर्शियों को मिला कर कुल 50 ग्रामीणओं पर ही वारंट जारी कर दिया है। हाल ये है कि भजनपुरा गांव के सारे पुरुष घर छोड़ कर भागे फिर रहे हैं। पुलिस लगातार गांव में जाकर घर की महिलाओं व बच्चों को परेशान कर रही है। वह रात को भी गांव में छापेमारी करने आ जाती है। साफ है कि सुशासन की पुलिस का रवैया वैसा ही बना हुआ है।

दो साल पहल घटना के बाद पुलिस ने ग्रामीणों पर ही तीन एफआईआर दर्ज कर दिया था कि उन्होंने पुलिस पर हथियारों से लैस होकर हमला बोल दिया था और इसी कारण गोली चलानी पड़ी। पुलिस ने 4000 लोगों पर एफआईआर दर्ज किया था। पुलिस ने 28 पुलिसकर्मियों के घायल होने की बात कही थी। अब यह समझा जा सकता है कि मारा गया 8 माह का नौशाद या 7 महीने पेट से यासमीन कैसे हथियारो से पुलिस पर हमला बोल सकती थी? फारिबसगंज थाना में कांड संख्या 268/11, 273/11 और 273/11 में ग्रामीणों पर 307, 120, 427, 452, 436,379,149,148 व 147 जैसी धाराएं लगाई गई हैं। साफ है कि पुलिस कानून का उपयोग पीड़ितों के दमन में ही कैसे करती है।

जिनसे दूरी है मज़बूरी
वहीं दूसरी ओर देश-दुनिया में इसकी खबर फैल जाने से विरोध सामने आए थे। नीतीश कुमार पर बहुत दबाव बनाने की कोशिश हुई फिर भी केवल मर रहे ग्रामीण युवक पर कूदने वाले पुलिस के जवान सुनील कुमार यादव को छोड़ किसी पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। केवल सुनील कुमार को गिरफ्तार किया गया था जिसे फिलहाल बेल मिल जाने की खबर है। वहीं घटना में शामिल एसपी व अन्य अधिकारियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। बाद में एसपी का प्रोमोशन भी कर दिया गया।

इसके अलावा ग्रामीणों की ओर से कोई एफआईआर दर्ज करने से पुलिस ने इंकार कर दिया। इसके बाद वे अररिया कोर्ट में चार शिकायत दर्ज कराई पर उसका कोई संज्ञान नहीं लिया गया। बाद में सुप्रीम कोर्ट में इसकी सीबीआई जांच के लिए जनहित याचिका डाली गई जिसपर अभी सुनवाई ही चल रही है। जिसपर पिछले 4 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार से 4 हफ्ते में पुलिस इंक्वायरी रिपोर्ट पेश करने कहा है।

जांच आयोग का बढ़ता कार्यकाल, न्याय की वही देरी और पीड़ितों-गवाहों को मिल रही धमकियां...

ग्रामीणों पर पुलिसिया वारंट तब जारी कर दिया गया है जबकि अभी इस गोलीकांड की न्यायिक जांच को बने आयोग ने रिपोर्ट सौंपी भी नहीं है। भारी दबाव के बीच नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार ने अपना दमनकारी चेहरा छिपाने के लिए एक सदस्यीय न्यायिक जांच आयोग का गठन  कर दिया था। इसका गठन 22 जून 2011 को 6 माह के कार्यकाल के लिए किया गया था। इसकी सुनवाई भी अभी चल ही रही है। देखने वाली बात है कि इसने 6 महीने में कोई रिपोर्ट नहीं दिया फिर 22 दिसंबर 2011 को 6 माह की अवधि खत्म होने पर एक साल के लिए इसका कार्यकाल और बढ़ा दिया गया। उसके बाद फिर 22 दिसंबर 2012 को एक साल पूरा होने के कुछ ही दिन पहले इसका कार्यकाल तीसरी बार एक साल के लिए और बढा दिया गया। जाहिर है कि न्याय के लिए पड़ितों को पता नहीं कितना लंबा इंतजार करना पड़ेगा और उन्हें क्या न्याय हासिल होगा ये भी समझ नहीं आ रहा। फिलहाल जांच आयोग अररिया में इसकी सुनवाई कर रही है, जिसमें ग्रामीण व पीड़ित अपना बयान दर्ज करा रहे हैं।
वहीं दूसरी ओर स्थानीय पुलिस-प्रशासन, सत्तासीन सरकार के नुमाइंदों-नेताओं और कंपनी की ओर से लगातार ग्रामीणों को डराया धमकाया जा रहा है। ऐसा ही एक मामला बताते हुए सामाजिक कार्यकर्ता महेंद्र ने बताया कि एक गवाह युवती तालमुन खातून को स्थानीय जदयू नेता व प्रशासन ने इतना डराया कि वह सुनवाई नहीं दे सकी। बाद में ग्रामीणों की शिकायत व विरोध के बाद दुबारा उसकी गवाही हुई। इसी तरह की धमिकयों का सिलिसला जारी है।
वहीं जांच आयोग को लेकर सामाजिक कार्यकर्ता महेंद्र एक बात और बताते है कि आयोग में कंपनी की ओर से ही ज्यादा शपथपत्र दाखिल किए गए हैं यानि इनके पक्ष से कहीं ज्यादा गवाहियां होनी है। करीब 189 शपथपत्र दिए गए हैं जिनमें करीब 20 ही शपथपत्र पीड़ित पक्ष की ओर से हैं। वैसे एक थपथपत्र में कई लोगों के हस्ताक्षर हैं। वे ये भी बताते हैं कि सारे शपथपत्र एक ही फॉर्मेट में हैं।

पुलिस की झूठ पे झूठ....सारी कवायद ग्रामीणों को समझौता के लिए मजबूर करने की है....

पुलिस की ओर से जारी किया गया वारंट हो या गवाहों को लगातार मिल रही धमकियां, ये सारी कवायद ग्रामीणों पर समझौता करने का दवाब बनाने के लिए की जा रही है। न्यायिक आयोग में चल रही सुनवाई हो या सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका पर सुनवाई सत्ता-प्रशासन व कंपनी ग्रामीणों के संघर्ष व लड़ाई को दबाना चाहते हैं। वहीं दूसरी ओर ग्रामीण लगातार इसके खिलाफ खड़े हैं। ग्रामीणों पर गवाही न देने का दबाव बनाया जाता रहा है। बिना नाम के दर्ज हुए एफआईआर में गिरफ्तार करने की धमकियां दी जाती रही हैं।
इससे पहले भी पुलिस ने लगातार झूठ पे झूठ का सहारा लिया है। तत्कालीन एसपी गरिमा मल्लिक ने ग्रामीणों को हिंसा पर उतारु व हथियारों से लैस हमलावर बताते हुए 28 पुलिसकर्मियों के घायल होने की बात कही थी। लेकिन बाद में एक सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचना में यह झूठ निकल आया। गरिमा मल्लिक ने स्वयं समेत सारे घायलों का इलाज फारबिसगंज के रेफरल अस्पताल में होने की बात कही थी। लेकिन अस्पताल से बाद में मांगी गई सूचना में अस्पताल ने बताया कि वहां केवल दो लोगों (एसपी और एसडीओ) का इलाज करवाया गया था। जबकि एसपी की ओर से घायलों की दी गई सूची में एसडीओ का नाम ही नहीं था। वहीं सुप्रीम कोर्ट में मांगी गई स्टेटेस रिपोर्ट व जांच आयोग में दिए गए प्रतिवेदन में पुलिस की ओर से दी गई घायलों की सूची में घायल पुलिसकर्मियों का नाम अलग-अलग है। इतना ही नहीं बल्कि सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचना में कहा गया कि घटना के तीन दिन पहले से डीएम के कंट्रोल रुम के वायरलेस सेट से कोई बातचीत नहीं हुई। वहीं एसपी कार्यालय में वायरलेस सेट न होने की बात कही गई।

बिहार की मीडिया ने नीतीश का अफीम सूंघ लिया है....

वहीं इस पूरे घटनाक्रम में भी बिहार की मीडिया का वहीं सरकारी भोंपू  के साथ विकास के नाम पर बरगलाने वाला चेहरा ही सामने आया है। गोलीकांड के बाद भी उस दौरान बिहार के अखबारों ने इसे जरुरी खबर तो क्या ठीक-ठाक छापी जाने लायक खबर तक नहीं समझा था। इसे बिल्कुल ही नजरअंदाज कर दिया था। इसे मुद्दा बनने ही नहीं दिया। जैसे कि बिहार से सबसे बड़ा अखबार दैनिक हिन्दुस्तान  ने इस पूरी तरह ब्लैक आउट कर दिया। दैनिक जागरण व प्रभात खबर का रुख भी इसी के जैसा रहा। दिलीप मंडल ने अपने एक अध्ययन व रिपोर्ट में जो कि मोहल्ला लाइव व कथादेश में छपी थी दिखाया कि मीडिया ने बिहार में लोगों के लिए इस मुद्दे को मुद्दा नहीं बनने दिया। 5 जून से 11 जून तक की पटना संस्करण के पहले पन्ने की खबरों के अध्ययन में देखें तो दैनिक हिन्दुस्तान ने इसे पूरी तरह नहीं छापा। जबकि दिल्ली में बाबा राम देव मसले की खबरें, 'बचना है तो पेड़ लगाएं', 'संदेश बढाने फिर नीतीश पहुंचे धरहरा' या 'समंदर से निकला शुगर का रामबाण इलाज' जैसी खबरें पहले पन्ने पर प्रमुखता से छपती रहीं। वहीं दैनिक जागरण ने फारबिसगंज पर इसी दौरान पहले पन्ने पर केवल दो दिन खबरें चलाई जिनका फ्लेवर सरकार के पक्ष में ही जाता था। 6 जून को एक कॉलम की खबर 'आरोपी होमगार्ड पर चलेगा हत्या का मुकदमा' और 11 जून को दो कॉलम की खबर 'मारे गए बच्चे परिजन को तीन लाख' की खबरें छपीं। वहीं प्रभात खबर का भी हाल ऐसा ही रहा। साफ था कि अगर बिहार के तीनों प्रमुख अखबारे फारबिसगंज को मुद्दा न बनने देने पर तुल गए थे तो इसका मुद्दा बन पाना आसान नहीं था। और ये सारा तिकड़म सरकार के इशारे पर ही चल रहा था। जिसमें विज्ञापन से लेकर कंपनी में सत्ताधारी नेताओं की भागीदारी व सांप्रदायिक व गरीब विरोधी रंग मिला-जुला था।

मोमबत्ती जलाकर सेक्युलर बने
इस बार भी अखबारों का हाल बिल्कुल वैसा ही रहा। दैनिक हिन्दुस्तान ने जहां इस 8 अप्रैल 2013 को ग्रामीणों पर वारंट की खबर को एक कॉलम, करीब 50 शब्दों में 15वें पन्ने पर छापा। तो 11अप्रैल को 15वें पन्ने पर ही दो कॉमल की खबर करीब 100 शब्दों में छापी। वहीं दैनिक ने भी 11 अप्रैल को अंदर के पन्ने पर ही करीब सौ-सवा सौ शब्दों की खबर छापी। 11 अप्रैल को ये खबर इसकारण भी छप भी गईं कि फारबिसगंज की पीड़ित परिवारों के परिजनों ने सामाजिक संगठनों क मदद से 10 अप्रैल को राजधानी पटना आकर संवाददाता सम्मेलन आयोजित किया और अपनी आपबीती सुनाई। वरना यह माजरा पूरी तरह दबाया गया। संवाददाता सम्मेलन को एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट(एपीसीआर), फारबिसगंज एक्शन कमिटी, मोमिन कांफ्रेंस और नेशनल एलॉयंस फॉर पीपुल्स मूवमेंट(एनएपीएम) ने आयोजित करने में पीड़ितों की मदद की।  फिर बाद में मीडिया नीतीश व मोदी के खेल में शामिल हो गई। बिहार की मीडिया का यह रुप लगातार देखने को मिला चाहे वह मधुबनी कांड हो, छठ हादसा हो या फिर शिक्षकों का सरकार की ओर से चलाया जा रहा दमनकारी अभियान। ये अखबार स्पष्ट रुप से सरकार के प्रवक्ता की तरह सामने आते रहते हैं। खासकर हिन्दुस्तान व प्रभात खबर की खबरों पर लगातार हम नजर रखें तो। संपादकीय लेख, टिप्पणियां व राजनीतिक संपादकों, ब्यूरों की खबरें सरकार के पक्ष में ही लिखी जाती रहती हैं और विरोधी खबरों को दबाया जाता है।

गैर-सेकुलर नीतीश का सेकुलरवाद.... कहां चला गया नीतीश का मुसलमान प्रेम व सुशासन....

इस पूरे मामले में नीतीश की पुलिस-प्रशासन व सत्ताधारी नेता, कहें तो नीतीश शासन फारबिसगंज के पीड़ितों के खिलाफ खड़ा है। स्थानीय पुलिस-प्रशासन व सरकारी नेता लगातार गरीब मुसलमानों पर दबाव बनाते रह रहे हैं। ठीक इसी समय नीतीश कुमार की नजर पीएम की कुर्सी पर है। जो इनके सहयोगी भी स्वीकार कर रहे हैं। इसके लिए नीतीश कुमार सांप्रदायिकता के खिलाफ बताते हुए मोदी के विरोध का स्वांग रच रहे हैं। जबकि वे भाजपा के रथ पर ही बिहार में सत्तासुख का भोग करते आ रहे हैं। वे मुसलमानों के प्रति प्रेम प्रदर्शित कर रहे हैं। नजर इस वोटबैकं पर है। वहीं उत्तरी बिहार में आतंकवाद के नाम पर एनआईए की टीम लगातार मुस्लिम युवकों को पकड़ रही है और अभी भी उनकी छापामारी लगातार पूरे जोर-शोर से जारी है। दूसरी ओर देखें तो फारबिसगंज के गरीब मुसलमानों के दमन में इसी नीतीश सरकार के  पुलिस-प्रशासन व नेता कोई कसर नहीं छोड़ रहे। दो साल बीत जाने पर भी इन गरीब मुसलमानों को न्याय के लिए भटकना ही नहीं पड़ रहा बल्कि उल्टे पुलिस ने अब इनपर ही वारंट जारी कर धड़-पकड़ कर रही है। रात को इनकी महिलाओं व बच्चों को पूछताछ के बहाने परेशान कर रही है। अब ये सब सरकार की शह पर नहीं हो रहा कैसे मान लिया जाए? अब ऐसे हाल में नीतीश किस मुंह के असांप्रदियक होकर मुसलमानों के हितैषी होने का दावा करते फिर रहे हैं। उस मारे गए आठ माह के नौशाद, सात माह की पेट से यासिमन व उन दो मुसलिम नौजवानों का हिसाब कौन देगा। भजनपुरा गांव में 90 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है। गुजरात में मोदी की शह पर पुलिस-प्रशासन-नेता की मिलीभगत से जिन मुसलमानों को मारा गया, इसे भी हम वैसे क्यों ना देखें? इस तथाकथित सेकुलर नीतीश के पास न्याय कहां हैं? बहरहाल नीतीश के सेकुलर नारों व मोदी विरोध के बीच भजनपुरा के ग्रामीण सत्ता की शह पर दमन जारी है।

04 अक्टूबर 2012

दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल का खोखला 'सच'.



महताब आलम,
दिल्ली पुलिस की प्रतिष्ठित स्पेशल सेल, इन दिनों एक बार फिर काफी चर्चा में है. पर आतंकवाद माओवाद, उग्रवाद और न जाने क्या-क्या से 'लड़ने' के लिए चर्चित दिल्ली पुलिस का ये विशेष बल, जिसकी स्थापना सन 1946 में, "दी दिल्ली स्पेशल पुलिस एसटैबलिस्मेंट एक्ट-1946" तहत हुयी थी. लेकिन  इस चर्चा से स्पेशल सेल कुछ ज़यादह खुश नहीं है, बल्कि  परेशान नज़र आ रही है. और आयदिन अखबारों में तरह-तरह के बयान दे रही है. इसका मुख्य कारण है, पिछले दिनों दिल्ली के विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले शिक्षको के एक मानवाधिकार संगठन, जामिया टीचर्स सोलिडरिटी असोसिऐशन (JTSA) द्वारा इस विशेष बल की करतूतों पर लायी गयी रिपोर्ट, जिसका नाम है, आरोपित, अभिशप्त और बरी: स्पेशल सेल का खोखला 'सच'.  इस रिपोर्ट को  2008 में सितम्बर की 19 तारीख को जामिया नगर के बटला हाउस में हुए तथाकथित मुडभेड की चौथी बरसी की पूर्व संध्या पर एक बड़े कार्यक्रम में दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश राजेंद्र सच्चर, चर्चित लेखिका और एक्टिविस्ट अरुंधती राय, वरिष्ठ अधिवक्ता एन डी पंचोली, फर्जी मामलो में दिल्ली पुलिस फ़साये गए और जेल से चौदह साल बाद रिहा मोहम्मद आमिर और मकबूल शाह ने रिलीज किया. इस मौके पर विद्यार्थितियों, शिक्षकों, पत्रकारों, एक्टिविस्ट्स और वकीलों की बड़ी तादाद के अलावा पुलिस के लगभग सौ नौजवान, उनके ऑफिसर्स का एक बड़ा अमला और सादी वर्दियों में पुलिस और गुप्तचर एजेंसियों के लोग भारी संख्या में  मौजूद थे.
200 पृष्ठों के इस रिपोर्ट में उन सोलह मुकदमो की पड़ताल की गयी है, जिसमे पहले -पहल पुलिस ने दावा किया था कि उनके द्वारा पकड़ा गया व्यक्ति 'खूंखार आतंकी' है और इनका ताल्लुक हरकतुल जिहाद इस्लामी (हुजी), लश्करे तोयबा, अल बद्र या इन जैसे अन्तराष्ट्रीय आतंकी संगठन से है. ये लोग एक नहीं बल्कि कई बड़ी आतंकी घटना' अंजाम देने वाले थे पर हमारे बहादुर पुलिस ने अपनी जान की बाज़ी लगाकर इन्हें धर दबोचा. लेकिन हकीकत ये है कि इनलोगों के बारे में अदालतों से ये साबित हुआ कि इन व्यक्तियों   का ऐसी किसी गतिविधि से दूर-दूर तक का कोई लेना देना नहीं है. कोर्ट ने कई मामलो में आरोपियों को बरी करते हुए साफ़ तौर पर कहा : “पुलिस वालों ने इन्हें जान-बूझकर फर्जी मुकदमों फसाया”.  जिसकी वजह से उन्हें लम्बे समय तक, बिना किसी गुनाह के, जेलों में गुज़रने पड़े. इन सोलह में से दो आरोपी ऐसे हैं, जिन्हें अपने जवानी के चौदह साल भारत के विभिन्न जेलों में गुजारने पड़े. लेकिन छूटने के बाद आज भी उनकी ज़िन्दगी नरक बनी हुयी है-- कमाने के लिए रोज़गार नहीं, वक़्त बिताने के लिए दोस्त नहीं, कईयों के माँ-बाप ये उम्मीद लेकर ही इस दुनिया से चल बसे कि उनका बेटा एक दिन छूट कर आएगा, कोई इनके साथ शादी के लिए  जल्दी अपनी बेटी देने के लिए तैयार नहीं. कुल मिलाकर इनकी जिंदगियां बर्बाद कर दी गयी और जेल से छूटने के बाद भी 'आतंकी' कहलाते है. और ये सब इनके साथ इस लिए नहीं हो रहा कि इनमे से कोई भी ऐसी किसी घटना में लिप्त हो. बल्कि इनको इनकी बेगुनाही की सज़ा मिली है और आजतक मिल रही है. और इस सब का ज़िम्मेदार है: दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल. ये रिपोर्ट इन्ही कुकर्मो को उद्घाटित करता है और इसलिए दिल्ली पुलिस के रातों की नींद उडी हुयी है.
आईये, राज्य बनाम गुलाम मोहिउद्दीन डार के मामले पर एक नज़र डालते हैं, जिसे छह साल, बिना किसी गुनाह के जेल में गुज़रने पड़े. बात 2005 की है,  पुलिस के मुताबिक 27 जून को उन्हें, उनके बेनाम खबरी द्वारा पता चलता है कि दो कश्मीरी आतंकी, जाहिद और मसूद, नापाक इरादों के साथ दिल्ली में दाखिल हो रहे हैं. पुलिस अपने खबरी से कहा कि वो इस खबर की के बारे में और पता करें. और इसी बीच, 1 जुलाई को खबरी बताता है कि दो आतंकी अपने दो और साथियों के साथ, गोला- बारूद और हथियारों का एक बड़ा ज़खीरा लिए हुए जयपुर से HR26S0440 नंबर वाली  टाटा इंडिका गाड़ी में दिल्ली की तरफ आ रहे है.  इस पूरे मामले पर निगाह रखे हुए इस्पेक्टर रविंदर त्यागी ने तुरंत पुलिस वालों की एक टोली बना कर दिल्ली -जयपुर हाईवे पर मोर्चा डाला. पुलिस बल ने, 2 जुलाई के तडके उस गाड़ी को देखा, जो दिल्ली की तरफ आ रही थी. पहले रुकने के लिए हाथ दिया पर न रुकने पर पुलिस ने उनका पीछा किया और गोलीबारी के बाद उन्हें पकड़ने में कामयाब रही.  पर जब मामला कोर्ट में पहुंचा तो पुलिस के ये सारे दावे न सिर्फ धरासायी हो गए बल्कि फर्जी साबित हुए. बहस के दौरान इन्स्पेक्टर रविंदर त्यागी, जो इस मामले अगुवाई कर रहे थे, अपने किसी भी दावे के लिए कोई सबूत पेश करने में नाकामियाब रहे. और कोर्ट ने साफ़ तौर पर कहा कि किसी व्यक्ति  को भी सिर्फ संदेह की बुनियाद पर सज़ा नहीं दी जा सकती. यही नहीं, कोर्ट में पुलिस का ये दावा किया था कि उन्होंने आरोपी के पास से आर्मी की वर्दी और पालम एअरपोर्ट का नक्शा बरामद किया है  पूरी तरह फर्जी साबित हुआ. कोर्ट ने पाया  कि आर्मी की वर्दी आरोपी की नहीं थी और पुलिस ने ही रखा था. इस मामले जो गवाह पेश किया गया था वो फर्जी था जिसने दिल्ली केंट इलाके एक फूटपाथ पर अपना दुकान लगाने देने के एवज में, 'हफ्ते' के तौर पर ये गवाही दी थी. इसी प्रकार, पालम हवाई अड्डे के नक़्शे के बारे में कोर्ट ने कहा, अगर ये नक्शा आरोपी के पाकेट से बरामद हुआ है तो क्यूँ कर ये एक बार ही मुड़ा है? क्या इस नक़्शे से आरोपी की लिखावट मिलती है ? और अगर हवाई अड्डे पर इतना बड़ा हमला होने वाला था तो पुलिस से एअरपोर्ट ऑथोरिटी को क्यूँ खबर नहीं दी और न पुलिस के आला ऑफिसर्स को खबर की ? पुलिस के पास इन सब सवालो का कोई जवाब नहीं था क्यूंकि हकीक़त में ऐसी कोई कार्यवाही हुयी ही नहीं थी. इस मामले की सुनवाई कर रहे जज, वीरेन्द्र भट, अतिरिक्त सत्र न्यायधीश, द्वारका कोर्ट्स ने फैसला सुनानते हुए लिखा: “तमाम पहलुओं से इस केस का जायजा लेने बाद, ये साफ़ होता है कि ऐसी कोई कार्यवाही हुयी ही नहीं थी. ये सब धौला कुआँ पुलिस थाने में बैठ कर लिखी हुई कहानी है. और इसके ज़िम्मेदार हैं: सब इंस्पेक्टर रविंदर त्यागी, सब इंस्पेक्टर निराकार , सब इंस्पेक्टर चरण सिंह और महिंदर सिंह".  
उपर्युक्त मामले अपना फैसला सुनाते हुए जज ने सिर्फ इतना ही नहीं कहा बल्कि उनका कहना था: "ये चार पुलिस वाले पूरे पुलिस बल के लिए सबसे शर्मनाक साबित हुए हैं.
मेरी राय में, किसी पुलिस अधिकारी द्वारा किसी निर्दोष नागरिक को झूठे मुक़दमे से फ़साने से ज़यादह गंभीर और संगीन अपराध और कोई नहीं हो सकता है. पुलिस अधिकारीयों द्वारा की कई गयी इन हरकतों को हलके में नहीं लेना चाहिए और इनके खिलाफ सख्त से सख्त कार्यवाही करनी चाहिए".  कोर्ट ने आदेश दिया कि इनके खिलाफ एफ आई आर होनी चाहिए और मुकदमा चलना चाहिए. पर आज तक ऐसा कुछ नही हुआ. डेढ़ साल से ज़यादह का वक़्त गुज़र चूका  है लेकिन पुलिस वाले कोई कारवाही करने के लिए तैयार नहीं है बल्कि उन्हें पदौन्नती दी जा रही है. जब सूचना के अधिकार के तहत इस बाबत पता किया गया तो पुलिस का जवाब था कि हमने इस फैसले हो उच्च न्यायलय में चुनौती दी है. यहाँ सबसे उल्लेखनीय बात ये है कि ये मुकदमा पुलिस, यानी पब्लिक के खर्चे से लड़ी जा रही है.  
खैर, आईये एक दुसरे मामले पर नज़र डालते हैं. ये मामला है, राज्य बनाम मुआरिफ कमर और मोहम्मद इरशाद अली का. बात 2006 की है. पुलिस के दावे के मुताबिक, फ़रवरी की 6 तारीख और शाम के चार बजे. सब इन्स्पेक्टर विनय त्यागी को ख़ुफ़िया जानकारी मिलती है कि दो आतंकी, जिनका नाम मुआरिफ कमर और मोहम्मद इरशाद अली और ताल्लुक अल-बद्र नामी आतंकी संगठन से है, जम्मू -कश्मीर स्टेट बस से , जिसका नंबर JK 02Y 0299 दिल्ली पहुँच रहे है. और ये लोग जी टी करनाल रोड के पास मकबरा चौक पर उतरने वाले हैं. ये सूचना पाकर पुलिस का एक बल वहां पहुंचा और काफी कोशिशो के बाद भारी मात्र में  गोले बारूद के साथ उनके गिरफ्तार कर लिया. इस मौके पुलिस ने स्थानीय लोगों का सहयोग भी लेना चाहा पर, उन्होंने कोई सहयोग नहीं दिया ! लेकिन इस मामले की हकीक़त ये है कि ये लोग वहां से गिरफ्तार किये ही नहीं गए. बल्कि इन्हें दिसंबर 2005 में ही दिल्ली पुलिस ने अगुवा कर लिया गया था . ये मैं नहीं कहतासी बी आई की रिपोर्ट कहती है जो उन्होंने अतिरिक्त सत्र न्याय्धीस, एस एस मुखी के समक्ष 11 नवम्बर 2008 को  दाखिल किया है. रिपोर्ट कहता है कि, "इन दोनों आरोपियों को दिसंबर 2005 में अगुवा किया गया था और 9 फ़रवरी 2006 तक गैर-कानूनी हिरासत में रखा गया”. इस मामले में सी बी आई ने कुछ अहम कॉल रिकार्ड्स भी प्रस्तुत किया जिस से साफ तौर पर साबित होता है कि जिस दिन गिरफ़्तारी दिखाई गयी है उस से बहुत पहले से ही दोनों आरोपी पुलिस की ही गिरफ्त में थे. सी बी आई की रिपोर्ट गोली-बारूद की बरामदगी से सिलसिले में कहती है : "ये सब फर्जी है, और ऐसा कुछ आरोपियों को फ़साने की मकसद से दिखाया गया है". रिपोर्ट आगे साफ़ तौर पर कहती है ये लोग मासूम है और इन्हें फसाया गया है. यही नहीं सी बी आई ने अपनी रिपोर्ट में कहा है  कि इन पुलिस वालों के साथ सख्त से सख्त कार्यवाही होनी चाहिए. पर जैसा कि हम पहले वाले केस में देख चुके हैं, इस मामले भी, ये पुलिस वाले न कि सिर्फ खुले घूम रहे बल्कि उन्हें दुसरे ऐसे मुकदमों के जाँच की जिम्मेवारी भी दी जा रही है.
ये सिर्फ दो केसेस के बारे में संशिप्त जानकारी है. JTSA के इस रिपोर्ट में शामिल सोलह केसेस में एक के बाद बाद एक केस में इस तरीके को दुहराया गया है.  जो कुछ लोगों को  फ़िल्मी कहानी भी लग सकती हैं पर हकीक़त यही हैं कि ये बातें किसी हिंदी फिल्म की पटकथा नहीं बल्कि पुलिस की कार्य-प्रणाली बन चुकी है कि अगर  आतंकी नहीं मिलते हैं या नहीं पकड़ में आते हैं तो मासूम मुस्लिम नौजवानों को, फर्जी मामलो में फसा का आतंकी के तौर पर पेश करो.  अभी जब मैं ये लिख रहा हूँ, तो आज ही अख़बार ( देखिये दी हिन्दू, 25 सितम्बर, पृष्ठ संख्या 9) में एक खबर छपी है कि कल मुंबई उच्च न्यायालय ने मोहम्मद अतीक मोहम्मद इकबाल को बेल पर रिहा करने का आदेश दिया. 2008 में गिरफ्तार, इस व्यक्ति बारे में पुलिस का दावा है कि ये इंडियन मुजाहीदीन नामी आतंकी संगठन का सदस्य है. पर हकीकत ये है कि जिस मामले (अहमदाबाद और सूरत ब्लास्ट) में गिरफ्तार किया गया है उस मामले वो अभियुक्त नहीं भी है, ये कहना है सरकारी वकील प्रदीप हिन्गूरानी का. उसके खिलाफ अगर कोई ‘सबूत’ है तो वो है  इकबालिया बयान (‘confession’) जिसमे में उसने 'कबूल' किया है कि आतंकियों द्वारा आयोजित लेक्चर्स में उसने हिस्सा लिया था ! यहाँ जहाँ एक तरफ ध्यान रखने वाली बात है कि हम सब जानते है कि पुलिस किस प्रकार चीज़ें कबूल करवाती है वही दूसरी ओर ये भी याद रखने की ज़रुरत है कि कोर्ट में ऐसे इकबालिया बयानों की कोई अहमियत नहीं है क्यूंकि भारतीय साक्ष्य अधिनियम इसे नहीं मानता.
अब ऐसे में ये सवाल एक बार फिर उठता है कि आखिर कब तक ये  सिलसिला चलता रहेगा?  सिलसिला मासूम लोगो को आरोपित, अभिशप्त और बरी करने का. कब तक 'आतंकवाद' से लड़ने के नाम पर मासूम मुस्लिम नौजवानों को फर्जी मुकदमो में फसाया जाता रहेगा? कब तक उन्हें अपनी ज़िन्दगी का बड़ा और महत्व्पूर्ण हिस्सा जेलों में गुज़रना होगा? कब तक उनके घर वालों को कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने होंगे? क्या, खाकी वर्दी वाले इन आतंकियों के खिलाफ कभी कोई कार्यवाही भी होगी, जिनके अपराध साफ़ साबित हो चुके है? इन सवालो का जवाब सरकार को देना होगा. या सरकार ने ये तय कर लिया है कि भारत एक पुलिस स्टेट है और पुलिस द्वारा किया कुकर्म माफ़ है? चाहे वो कितना ही घिनोना ही क्यूँ न हो?
(लेखक मानवाधिकारकर्मी और स्वतंत्र पत्रकार हैं.)