17 अगस्त 2009

जांच आरोपियों को बचाने का एक बहाना है

दिलीप (लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में मीडिया के छात्र हैं)
शोपियां कांड के बारे में सीबीआई की केन्द्रीय फ़ारेंसिक प्रयोगशाला द्वारा जम्मू कश्मीर के विशेष जाँच दल को 11 अगस्त 2009 को भेजी गई रिपोर्ट से पूरे घटनाक्रम में कई नये सवाल भी खडे़ हुए हैं. पुरानी जांच साफ़ खारिज़ हो जा रही है. नवीनतम रिपोर्ट में कहा गया है कि दोनों पीड़ितों की लाशों से डीएनए जाँच के लिए जो नमूने लिए गए थे, वे उन पीड़ितों के ही खून और अंगों से मेल नहीं खाते. इस सनसनीखे़ज़ हत्याकांड के आरोप में जिन चार पुलिसकर्मियों को गिरफ़्तार किया गया था, हालिया रिपोर्ट के बाद वे दोषमुक्त हो जाएँगे. रिपोर्ट में कहा गया है कि युवतियों के शरीर से लिए गए नमूने में पाए गए वीर्य से इन चारों पुलिसकर्मियों के डीएनए मेल नहीं खाते.

पिछली ३० मई को शोपियां में दो युवतियों-नीलोफ़र और आशिया- के साथ हुए बलात्कार और हत्या के बाद कश्मीर के राजनीतिक हलकों के साथ- साथ इस घटना की जाँच में लगातार नाटकीय परिवर्तन देखा जा रहा है. शोपियां कांड के लिए विधानसभा में प्रश्न न पूछे दिए जाने के बाद गुस्से में महबूबा मुफ़्ती ने विधानसभा अध्यक्ष पर माइक फ़ेंकना चाहा, जिस पर काफी हंगामा मचा और तत्कालीन सरकार की जमकर आलोचना हुई. पीडीपी ने शोपियां कांड के साथ उभरे कश्मीरियों की संवेदना को अपने पक्ष में करने के लिए उमर अब्दुल्ला पर पुराने सैक्स स्कैंडल में शामिल होने का आरोप भी लगाया. जवाब में अब्दुल्ला ने नैतिक आधार पर मुख्यमंत्री पद से सशर्त इस्तीफ़ा देने का ऎलान किया,वग़ैरह-वग़ैरह. लेकिन, इसके साथ-साथ पृष्टभूमि में चल रहे इस कांड की जाँच –जिस पर काफी दबाव के बाद राज्य सरकार ने एक सदस्यीय जाँच कमेटी गठित की - में लगातार नए-नए तथ्य उभरकर सामने आते गए . सरकार के विरूद्ध पूरी घाटी में प्रदर्शन भी लगातार ज़ारी रहा जिसके कारण सरकार के लिए जाँच में प्रगति दिखाना एक तरह की मज़बूरी सी बन गई . जे.के. बार एसोसिएशन द्वारा दायर जनहित याचिका के बाद मामला उच्च न्यायालय के पास चला गया, जहाँ अब सुनवाई हो रही है. तहकीका़त के क्रम में लाशों के पोस्टमार्टम करने वाले डाक्टर निघट शाफी ने पहले ही यह स्पष्ट कर दिया था कि हत्या से पहले बलात्कार हुई है.

जम्मू-कश्मीर में राजसत्ता और सरकारी तंत्र पर शुरू से ही सवाल उठते रहे है जिसको तर्कों के ज़रिए न्यायोचित ठहराने ही कोशिश भी लगातार की जाती रही है. बलात्कार की पुष्टि होने के बाद सरकार के विरूद्ध जनाक्रोश और भी तेज हो गया. इस तीव्र होते आंदोलन का कारण यह था कि इसमें राज्य सरकार के ऎसे विभाग (पुलिस) के चार लोग आरोपी थे जिसको लोगों की सुरक्षा–व्यवस्था को बनाए रखने के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है. १६ जुलाई को न्यायालय ने विशेष जाँच दल को शोपियां के एसपी जावेद मट्टो और उसके तीन सहयोगियों के खून के नमूने लेने का आदेश दिया ताकि फ़ारेंसिक विज्ञान की प्रयोगशाला में युवतियों के शरीर से जांच के लिए लाए गए दूसरे नमूने में पाए गए वीर्य के साथ डी.एन.ए. का मेल किया जा सके. इस समूची अवधि के दौरान राजनीतिक खींचतान और हरेक दूसरे दिन नए-नए वक्तव्यों का दौर चलता रहा. २२ जुलाई को न्यायमूर्ति जान कमेटी की सिफारिश को अंतत: जम्मू- कश्मीर सरकार ने स्वीकार किया जिसमें उन चारों पुलिसकर्मियों को स्पष्ट तौर पर दोषी ठहराया गया और दोनों युवतियों के साथ हुए बलात्कार की भी पुष्टि की गई . अब सवाल यह है कि २० दिनों के अंतर में ही रिपोर्ट पूरी तरह बदल कैसे गई? पहली रिपोर्ट सही थी या दूसरी रिपोर्ट सही है? क्या इसको राजनीतिक दांवपेंच के तहत परिवर्तित किया गया है? लोगों के मन में सैकड़ों सवाल उठ रहे हैं जो ऎसी हर घटना के बाद सरकारी जाँच के परस्परविरोधी फैसलों से जन्म लेते हैं, लेकिन इस घटना में रसूख का वर्चस्व का या फिर लोगों के आक्रोश को शांत करने के लिए किए गए सरकारी उपक्रम का असर साफ़ दिख रहा है. पुलवामा में पोस्टमार्टम टीम के मुख्य चिकित्सकीय पदाधिकारी गुलाम क़ादिर ने प्रश्न किया है कि जाँच नमूने को तुरंत श्रीनगर फ़ारेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला में क्यों नही भेजा गया? कार्यकारी मजिस्ट्रेट के सामने डाक्टर ने उस पार्सल को सील क्यों नहीं किया? सरकार और जांच टीम के पास इसका कोई जवाब नहीं है.
३१ मई को जब नमूने को श्रीनगर की प्रयोगशाला में जांच के लिए भेजा गया तो सील को खुली देखकर प्रयोगशाला ने जांच से इंकार कर दिया. फ़िर उस लिफ़ाफे को डा. निघाटी के घर लाया गया जहां उसको सील कर वापस फ़ारेंसिक प्रयोगशाला भेज दिया गया. नई रिपोर्ट में उस सैंपल को ही ग़लत बताया जा रहा है. जम्मू- कश्मीर सरकार की विशेष जांच दल अब दो संभावित जगहों –पुलवामा अस्पताल और श्रीनगर फ़ारेंसिक प्रयोगशाला- पर नमूनों की तलाश कर रही है, जहां फ़ेरबदल होने की आशंका है. लेकिन जितने सपाट तरीके से फ़ेरबदल या छेड़छाड़ होने की बात कही जा रही है उससे यही मालूम पड़्ता है कि यह सब अनजाने में हुआ. लेकिन क्या इसको मान लिया जाए? अगर नई रिपोर्ट को सच मानें तो स्थिति यह बनती है कि सरकार ने लोगों को तत्काल न्याय दिलवाते दिखने के लिए चारों संदिग्ध पुलिस अधिकारी को उसी तरह दोषी ठहरा दिया जैसे हरेक बम विस्फ़ोट के बाद चार मुसलमानों को पकड़ लिया जाता है, और अब स्थिति स्पष्ट होने के बाद उसको निर्दोष करार देने के लिए वातावरण तैयार करने की कोशिश की जा रही है. लेकिन अब देश भर में घटना की सही तस्वीर दिखाने की मांग की जा रही है. दूसरी स्थिति में अगर वे पुलिसकर्मी सचमुच दोषी हैं और बाद की रिपोर्ट को किसी दबाव के तहत तैयार किया गया है तो हालात उससे अधिक चिंताजनक है. इससे तो सीधा संदेश जाता है कि अगर ऊँचे स्तर तक पहुँच है तो इस तरह की घटनाओं को कई बार अंजाम देने के बाद भी बचा जा सकता है. ऎसे कई मामले हाल के दिनों में देखे जा सकते हैं. संजीव नंदा और अशोक मल्होत्रा जैसे लोग इसी पहुँच का इस्तेमाल करके बचते रहे हैं या फिर सज़ा कम करवाते रहे हैं.
अब इस पूरे केस को सीबीआई को सौंपने की मांग की जा रही है जिसमें अभी कई जगह अड़ंगे हैं. लेकिन यह कोई ज़रूरी नहीं है कि सीबीआई रिपोर्ट के बाद सही- सही फ़ैसला हो ही जाएगा, क्योंकि एक मुद्दे को जब तक देश में अंतिम संभावित स्थिति तक भुना नहीं लिया जाता तब तक न्याय नहीं होता.

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