29 सितंबर 2010

एक आने वाले फैसला..... के इंतजार में

अवनीश ( बनारस से एक रिपोर्ट )

राजनाथ की उजड़ी दुकान ने उसकी चटख मुस्कुराहट को बदरंग कर दिया है। अयोघ्या मामले की सुनवाई की पूर्वसंध्या पर शांति स्थापना को निकली पुलिस ने लंका (वाराणसी) स्थित उसकी दुकान उजाड़ दी। उसका चेहरा देख चंद दिनों पहले देखी फिल्म पीपली लाइव्ह का उदास नत्था याद आ गया; महानगर की ऊंची इमारतों और शोर के बीच बैठा नियति के बारे में सोचता हुआ। लेकिन राजनाथ का अफसोस यह है कि ना वह नेहरू के दौर का शंभु महतो है और मनमोहन के दौर का नत्था। वह फुटपाथ पर चाय की दुकान लगाने वाला एक मामूली दुकानदार है। भारत का ऐसा आम आदमी जो विकास के हर नमूने की कीमत अपनी रोजी लुटा कर चुकाता है या कहा जाय जिसकी रोजी लूटने के बाद ही विकास की नींव में ईंट पड़ती है। सुन्दरीकरण की कवायदों की भेंट भी वही चढ़ता है, सुरक्षा इंतजामों का सबसे तगड़ा रोड़ भी वही होता है। यही वजह होती है कि शहर की हर होनी के बाद पहला चुल्हा उसी के घर का बुझता है। लेकिन उसकी कहानी ना 60 साल पहले कही गई ना आज कही जा रही है।
फिलवक्त राजनाथ और उसक जैसे 100 से अधिक दुकानदारों की आजीविका आयोध्या मामले के फैसले के बाद होने वाले दंगों के मद्देनजर छीन ली गई है। मायावती सरकार, केन्द्र सरकार और ब्यूरोक्रेसी को ऐसा लग रहा है कि बाबरी मस्जिद की मिल्कियत के फैसले के बाद देश में विशेषकर उत्तर प्रदेश में दंगे भड़क सकते हैं। इसके कारण उत्तर प्रदेश के 44 जिलों को संवेदनशील घोषित कर दिया गया है। प्रदेश के अधिकाश हिस्सों को पुलिस, पीएसी और अर्द्धसैनिक बलों से पाट दिया गया है। बड़े शहरों और जिला मुख्यालयों को छोड़िए पुलिस के रूटमार्च तहसीलों और कस्बों तक हुए हैं। ‘दंगो से हम सुरक्षित हैं’-यह बोध सरकार ने गांवों के स्तर तक पहुंचा दिया है। अखबारों में इन खबरों की कवरेज यों है मानों युद्ध की तैयारियां चल रही हैं। राजनाथ जैसे दुकानदार इस कवायद में ऐसे हल्के निशानें हैं, जिन्हें साध कर जनता को आसानी से डराया जा सकता है। इसलिए सरकार ने पहले इन्हें ही हटाया है। बाद के कदमों में प्रदेश में हर तरह के प्रदर्शनों, रैलियों और धरनों पर रोक लगा दी गई है। प्रदेश में ऐसे हालात निर्मित कर दिए गए हैं मानों आपातकाल लगा हो।
अयोध्या (बाबरी विध्वंश) ने हमें मुंबई विस्फोट जैसे गहरे घाव दिए हैं। आंतकी हमलों और दहशत का अंतहीन सिलसिला अब भी जारी है। इसकी आड़ में आर्थिक नीतियों की कसी गई चुलों में फंसा आम आदमी लगातार कराह रहा है। लेकिन पिछले 15 दिनों में मायावती और उनकी पुलिस ने एहतियातन जैसी तैयारियां की हैं, उन्होेंने खौफ की नई-नई कहानियां गढ़ी हैं। लोग किसी आसन्न खतरे के कारण डरे हुए हैं। इन तैयारियों की कवायद में ही केन्द्र सरकार ने भी कड़ी जोड़ दी है। प्रधानमंत्री ने देश के नाम अपील की है अयोध्या के फैसले के बाद सभी लोगों को धैर्य और शंाति कायम रखना जरूरी होगा। सभी लोगों में धैर्य और शंति बनी रहे इसलिए ही देश भर में हाई एलर्ट जारी कर दिया गया है। 10 मिनट की नोटिस पर पहुंच जाने के लिए सुरक्षाबल तैयार किए गए हैं। अब हमें सोचना होगा कि क्या खतरा वाकई इतना बड़ा है, जैसी की तैयारियां की जा रही हैं या मायावती सरकार अथवा केन्द्र सरकार भय दिखाकर किन्ही और उद्देश्यों को पूरा करना चाह रही है।
यह पूरी तैयारी इस पूर्वधारणा पर आधारित है कि आम जनता सहिष्णु नहीं है और अयोध्या मामले में आने वाले फैसला जिस भी पक्ष के विरोध में जाएगा, वह विरोध में दंगे भड़का सकता है। हालांकि यह पूर्वधारणा भी जनता के बारे में गलत समझ का ही द्योतक है। यह वास्तविकता है कि भारतीय समाज में धर्म एक प्रतिनिधि चेतना है। लेेकिन मौजूदा अर्थ प्रणाली ने इस मुल्क में संपन्नता और विपन्नता के कई स्तर भी पैदा किए हैं। उन स्तरों की भौतिक स्थितियां ऐसी नहीं के किसी स्वतःस्फूर्त दंगे का हिस्सा बनें या दंगे को नेतृत्व दें। यदि भारत में दंगो का इतिहास देखें तो आम आदमी दंगों के ंिशकार के रूप में ही दिखेगा। वह कभी मुसलमान होगा, कभी सिख होगा और कभी मजलूम हिंदू। आम जनता को असहिष्णु मानने की धारणा ही सरकार की असफलता का प्रतीक है। भारत सरकार 60 साल से धर्मनिरपेक्षता को सविधान की अहम् विशेषता मानती रही है। लेकिन इतने दिनों बाद भी सरकार को इतना विश्वास नहीं है कि जनता इस फैसले को न्यायिक प्रक्रिया की एक कडी़ मानकर स्वीकार करेगी और असहमत होने की स्थिति में उच्चतम न्यायालय से अपील करेगी! दरअसल आम जनता को धर्मनिरपेक्ष बनाने की ईमानदार कोशिश सरकार ने कभी नहीं की। हमारे यहां शिक्षा का ढांचा, प्रशासन और पुलिस की कार्यशैली ऐसी रही है कि उनसे सांप्रदायिकता को खाद-पानी ही मिलता रहा है।
उत्तर प्रदेश में जनता को असहिष्णु मानने जैसी धारणा के आधार पर काम करना क्या संकेत देती है? ऐसे आसार बन रहे हैं मानों जनांदोलनों के दमन के दौर में आम जनता के लिए बचा असहमती का रत्ती भर स्पेश भी समाप्त करने की कोशिश की जा रही है। पिछलंे एक साल में कई राजनीतिक गिरफ्तारियां हुई हैं। माफियाओं की गिरफ्तारी के मामले में भी पक्षपात किया जा रहा है। गंगा एक्सप्रेसवे, यमुना एक्सप्रेसवे जैसी योजनाओं के कारण धारा 144 का लागू होना आम बात हो गई है। आसार तो यह भी जताए जा रहे हैं कि पिछले तीन सालों में अभिशासन के सभी मोर्चों पर असफल रहीं मायावती अयोध्या के फैसले को धु्रवीकरण के नुस्खे के रूप में प्रयोग करना चाह रही है। हालंाकि इसकी सच्चाई आने वाला समय तय करेगा।

संभवतः गुरुवार को अयोध्या के कानूनी कुचक्र का अंत हो जाए। साथ ही उत्तर प्रदेश मंे पखवाड़े भर से लगा आंतरिक आपात काल भी खत्म हो और राजनाथ और उस जैसे कई चाय, पान, सब्जियों, खोमचांें, और ठेलों वालों की भटिठ्यों से धंुआ उठे, उनकी दुकानें फिर से गुलजार हो और उनके बुझ चुके चेहरों पर फिर रौनक लौटे। इस फैसले के साथ ही मायावती सरकार द्वारा की जा रही है युद्ध की तैयारियों को भी विराम लगे। कुछ होगा! क्या हो सकता है? कुछ होगा नहीं!! जैसी अड़ीबाज अटकलबजियां भी बंद हों और लोगांें के भीतर के घर कर गई अनिश्चितता का तनाव भी खत्म हो। जनता अपनी सहिष्णुता का परिचय एक बार फिर दे!

27 सितंबर 2010

अफगानिस्तान को बांटो और वापस चलो?

अवनीश
अमरीकी रक्षामंत्री राबर्ट गेट्स ने हाल ही में लॉसएन्जिल्स टाइॅम्स को दिए साक्षात्कार में कहा कि ‘‘ अगले वर्ष की गर्मियों से अफगानिस्तान में मौजूद अमरीकी सैनिकों की वापसी की शुरूआत निश्चित है। इस बारे में किसी को कोई आशंका नहीं होनी चाहिए’’। गौरतलब है कि पिछली सर्दियों मंे अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जुलाई 2011 तक अफगानिस्तान से अमरीकी सैनिकों की वापसी की समयसीमा तय की थी। लेकिन अफगानिस्तान में नाटो के नवनियुक्त कमांडर जनरल डेविड पैट्रियॉस के इस बयान के बाद कि वह राष्ट्रपति ओबामा से सैनिको की वापसीे की समयसीमा बढ़ाने की मंाग करेंगे, ऐसी आशंका जताई जा रही थी कि अमरीका अफगानिस्तान के सैन्य वापसी के इरादे पर अमल टाल सकता है। बीते जुलाई महीने में अफगानिस्तान में हुए अंतर्राष्टीय सम्मेलन में राष्टपति हामिद करजई ने वहां तैनात सैनिकों की पूर्ण वापसी के लिए वर्ष 2014 का लक्ष्य प्रस्तावित किया था तथा इसके लिए 2011 से वापसी शुरू करने की अपीेल की थी। तब नाटो महासचिव एडर्स फाग रासमुसेन ने टिप्पणी दी थी कि सैनिकों की वापसी का रोडमैप कैलेण्डर नहीं, बल्कि हालात तय करेंगे। उन्होंने कहा था कि फिलहाल अफगानी सैनिक इतने सक्षम नहीं कि सुरक्षा की जिम्मेदारी सम्हाल सके। अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी के अमरीका के फैसले से इस आशंका को बल मिला है कि वह अफगानिस्तान जंग हार रहा है। पिछले दिनों ब्रितानी सेना प्रमुख जनरल डेविड रिचर्डस ने सुझाव दिया था कि अफगानिस्तान कि स्थिरता के लिए तालिबान से बातचीत फायदेमंद होगी; तब तालिबान ने नाटो के साथ किसी भी समझौते से इनकार कर दिया था। उन्हांेने हिकारत भरे अंदाज में कहा था कि अमरीकी युद्ध हार रहे हैं और इस समय बातचीत के किसी भी प्रस्ताव को वह नाटो की कमजोरी के रूप मंे देखते हैं। तालिबान के तेवरों को उस समय पर्यवेक्षको बहुत अधिक तवज्जो तो नहीं दी थी, लेकिन अफगानिस्तान में अमरीका की हार की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। उस समय कुछ अमरीकी राजनयिकों ने भी अफगानिस्तान में अमरीका की चरमपंथ विरोधी मौजूदा रणनीति को लेकर संदेह जताया था। भारत में अमरीका के राजदूत रह चुके राबर्ट ब्लैकविल ने फाइनेंशियल टाइम्स में प्रकाशित एक आलेख में लिखा था कि अमरीका की आतंक के खिलाफ युद्ध की मौजूदा रणनीति सफल नहीं होगी और शांति स्थापना की कोशिश कर रहा अमरीका ताकतवर तालिबानियों को समझौते के लिए तैयार नहीं करा पाएगा। अमरीका, अफगानिस्तान में ना युद्ध जीत पाएगा और ना सम्मान भरी वापसी कर पाएगा। विकिलिक्स ने द्वारा जारी किए गए दस्तावेजों मंे भी अमरीका के अफगानिस्तान में जंग हारने की आशंका जाहिर की गई है कि अमरीका। इन संशयांे के बीच ही यदि यह मान लिया जाय कि अमरीका अफगानिस्तान में युद्ध हार रहा है, तो क्या अमरीकी सैनिकों की सहज वापसी संभव है ? अफगानिस्तान में तालिबान चरमपंथियों की पकड़ मजबूत होने से दक्षिण एशिया की भौगोलिक राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ सकता है ? ये ऐसे प्र्रश्न हैं जो इन दिनों अफगानिस्तान की राजनीति में जेरे-बहस बने हुए हैं। यह तो स्पष्ट हो चुका है कि अमरीका अपने सामरिक और साम्रज्यवादी हितों की खातिर अफगानी जमीन पर डंटा हुआ है, क्षेत्र की स्थिरता और शांति को खतरा पैदा होगा उसकी तवज्जों नहीं है। जिस लोकतंत्र स्थापना की भेरी बजाता अमरीका अफगानिस्तान आया था, उसकी हकीकत भी हाल ही में विकिलिक्स के दस्तावेजों में जाहिर हो चुकी है। दस्तावेजों से उजागर हुआ है कि पिछले 5 सालों मंे नाटों ने 144 ऐसे हमले किए, जिनमें आम नागरिक मारे गए। और इन कार्रवाइयों की वजह रही है नाटो सैनिकों पर हमला होेने की आंशंका! यह सुनना स्तब्धकारी है कि अमरीकी या नाटो के अन्य कमांडर अफगानिस्तान में महज आशंका के आधार पर पुरे के पुरे परिवार के कत्ल का आदेश दे रहे है। बेचैनी इस बात पर भी होती है कि हठ भरं अंदाज में वह ऐसे हमलों की बात खरिज भी करते रहे हैं। महीने भर पहले अफगानी राष्ट्रपति हामिद करजाई ने नाटो सैनिकों पर आरोप लगाया था कि उन्होंने दक्षिणी अफगानिस्तान में राकेटों से हमला कर 52 नागरिकों की हत्या कर दी है। तब अफगानिस्तान में नाटो सहयोगी सैन्य बल आईएसएएफ के प्रवक्ता कर्नल वायेन स्वैन्क ने इन आरोपों को सिरे से नकार दिया था; जबकि लीक हुए दस्तावेजों में इसके पुख्ता प्रमाण है कि वह हमला अमरीकी मरीन ने जान बुझकर किया था। इन मुद्दों और इन पर जारी बहस के आलोक में देखेें तो अमरीका की अफगानिस्तान से सहज वापसी संभव नहीं लगती। अफगानिस्तान की सुरक्षा का दारोमदार अफगानी सैनिकों को संभवतः 2014 तक सौपा जा सकता है। बराक ओबामा नेे जिन 30 हजार अतिरिक्त सैनिको को भेजने की बात की है, उनकी उपस्थिति भी अफगानिस्तान में बनी रहेगी। हालांकि अमरीका अफगानिस्तान में अपने दीर्घकालीन हितों के मद्देननजर इस क्षेत्र मंे प्रभाव को बनाए रखने के कुछ और उपाय कर सकता है। अमरीकी प्रशासन इसी कवायद के तहत तालिबान के उदार धड़ों से बातचीत की कोशिश भी कर चुका है, लेकिन वहां उसे आशानुरूप सफलता नहीं मिली है। राजनयिक हल्कों में इन दिनों अमरीका की सम्मान भरी वापसी और और लंबे समय तक अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए जिस विकल्प की खासी चर्चा हैं वह है अफगानिस्तान कोे दो हिस्सों में विभाजित करने की। बिलकुल औपनिवेशिक दौर की ‘बांटों और राज करो’ की नीति के तर्ज पर ‘बांटो और वापस चलो’ की राजनीति की। अफगानिस्तान मंे अमरीका की हार की भविष्यवाणी करने वाले अमरीकी राजदूत राबर्ट ब्लैकविल इस प्रस्ताव के प्रबल पैरोकार बनकर उभरे हैं। बकौल ब्लैकविल अफगानिस्तान में अमरीकी सेना के हारने की स्थिति में अफगानिस्तन का बंटवारा ही ऐसा विकल्प है, जिसके जरिए इस क्षेत्र मंे शंाति स्थापित हो पाएगी। इस प्र्रस्ताव के मुताबिक दक्षिणी और पूर्वी अफगानिस्तान को पख्तूनों को सौंप दिया जाय; और उत्तरी व पश्चिमी अफगानिस्तान पर अमरीका व उसके सहयोगी देशों के समर्थक अफगानी गुटों का कब्जा बरकरार रखा जाय। ब्रितानी उपपिवेशवाद के दौर जैसा यह विचार दरअसल अफगानिस्तान की पख्तून और गैरपख्तुन आबादी को आतंकी और गैरआतंकी मानकर देखेने की अमरीकी मानसिकता का अभिव्यक्ति भी है। अफ-पाक क्षे़त्र में नाटो सैनिकों को मिले जबर्दस्त प्रतिरोध के कारण अमरीकी इंटेलीजेंसिया पख्तुनों को आतंकी अथवा अलकायदा और तालिबान जैसे संगठनांे के संरक्षक के रूप में देखती है। अमरीकियों की इस सोच का उदाहरण पाकिस्तान के ख्ैाबरपख्तूनख्वा और स्वात घाटी में आई जबर्दस्त बाढ़ के बाद प्रभावितों की सहायता के लिए दिए जाने वाले धन मे बरती जा रही कूटनीतिक चालाकी में देखा जा सकता है। अफगानिस्तान के किसी भी प्रकार के भौगोलिक विभाजन का अर्थ होगा आम जनता के मानवाधिकारों की सदा-सर्वदा के लिए हत्या और अफगानियों की राष्ट्रीयता की भावना को गहरा आघात। तालिबान का मानवाधिकारों के हनन का जैसा रिकार्ड रहा है, उसे देखते हुए कतई यह उम्मीद नहीं की जा सकती की विभाजन की स्थिति में तालिबान शासित क्षेत्रों में स्त्रियों और गैर पख्तूनों के मानवाधिकारों की रक्षा संभव होगी; कमोेबेश यही हालात अमरीकी सैनिकों की उपस्थिति के कारण गैरपख्तून खित्ते की भी होगी । हालांकि अफगानी अपने मुल्क के विभाजन को कतई स्वीकार करेेंगे। राष्ट्रीयता की भावना अफगानियों विशेष पहचान रही है। 1996 में भी आईएसआई ने तालिबान को अफगानिस्तान को बांटने का प्रस्ताव दिया था। उस समय अफगानिस्तान के अधिकतर हिस्सों में तालिबान का कब्जा था, लेकिन उत्तर का इलाका नार्दर्न एलायंस के कब्जे में था। तब तालिबान ने आईएसआई ने प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। इसके अलावा ऐसे किसी प्रस्ताव से पाकिस्तान में भी हालात बिगड सकते हैं; पाकिस्तान में चार करोड पख्तून आबदी रहती है, जबकि अफगानिस्तान में महज डेढ करोड; ऐसे में तालिबान इन हिस्सों को एक कर अलग पख्तूनिस्तान बना लेता है तो मुश्किलें और बढ जाएंगी। नया मुल्क आतंक की नई पनाहगाह होगा। इसलिए बेहतर होगा की अफगानिस्तान में शांति स्थापना के लिए अधिक व्यावहरिक, अफगानी जनता और क्षेत्रीय हितों के अनुकूल किसी उपाय पर विचार किया जाय। यदि यह उपाय अफगानी जनता के भीतर से विकसित होते हैं तो अफगानिस्तान में लोकतंत्र बहाली की गारंटी दी जा सकती है।

21 सितंबर 2010

भगवा आतंक में सत्ता की उलझन

चन्द्रिका

गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने “भगवा आतंकवाद” कहा और कांग्रेस ने इस शब्द से रंग वापस ले लिया. कांग्रेस के महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने आतंकवाद को किसी रंग में ढाले जाने से परहेज जताया. दरअसल हिन्दू बाहुल्य देश में संसदीय पार्टियों के साथ यह समस्या है कि वे यथार्थ का निर्धारण वोट के आधार पर करती हैं और वोट को धर्म के आधार पर लेने की संस्कृति विकसित कर दी गयी है. लिहाजा किसी पार्टी का एक नेता बयान देता है दूसरा उसमे तब्दीली कर देता है. वे आदिवासियों के वामपंथी रुझान वाले आंदोलन को “लाल आतंक” तो कह देंगे पर भगवा आतंक से उन्हें भय है. जबकि देश में हिन्दुत्व की स्थापना के लिये भगवाधारियों के करतूतों से पन्ने भरे पड़े हैं और जिस मुस्लिम आतंक के नाम पर देश के कई मुस्लिम नवयुवकों को पकड़ा या मारा गया है उनकी मनः स्थिति इस भगवा आतंक के फलस्वरूप ही उभर कर आयी हैं.

मसलन दिल्ली में हुए बम धमाके के आरोपी जिया-उर-रहमान का यह कहना था कि हम उसी की खिलाफत में ये सब कर रहे हैं जो गुजरात या महाराष्ट्र में हुआ. जब आजमगढ़ में मुस्लिम आतंकवादियों की अचानक खान मिलती है तो क्या तीन माह पहले से हिन्दू संगठनों द्वारा लगाया जा रहा नारा कि “यू.पी. अब गुजरात बनेगा आजमगढ़ शुरुआत करेगा, की कोई भूमिका नहीं है. गुजरात दंगे के वक्त मोदी के वाक्य को हाल में लालकृष्ण आडवानी फिर से अलाप रहे हैं कि हर मुस्लिम आतंकवादी नहीं होता पर हर आतंकवादी मुस्लिम होता है. ऐसे सातिरानापूर्ण वाक्यों का जवाब क्या विस्फोटक नहीं होगा. कुछ राज्यों में अल्पसंख्यकों को धार्मिक उन्माद भरी धमकी (गुजरात बनाने) मिल रही है. उनके कौम के कत्लेआम को महिमा मंडित किया जा रहा है. आखिर अल्पसंख्यक मनोदशा किस स्थिति में जायेगी. भारतीय संदर्भ में मुस्लिमों में धार्मिक उग्रता भरने का काम भगवा धारियों ने ही किया.

आर.एस.एस., बजरंग दल, वि.हि.प., शिवसेना, मनसे, जैसे संगठन यदि भारतीय सत्ता की नजर में भगवा आतंकवादी नहीं हैं तो जिस नये आतंकवाद का प्रोपोगेंडा मीडिया तंत्र द्वारा रचा जा रहा है इसके पीछे के पेंच को समझने की जरूरत है जिसे समय-समय पर कसना और ढीला करना ही भारतीय संसदीय राजनीति को टिकाये हुए है.

दूसरे अन्य जिन राजनितिक समूहों और संगठनों को आतंकवादी घोषित किया गया है. चाहे वह राष्ट्रीयता की मांग करने वाले हों या फिर माओवादी आंदोलन इनकी स्थितियाँ भिन्न हैं. क्योंकि कई बार आतंकवाद समय सापेक्ष भी होता है. एक समय भगत सिंह को आतंकवादी माना गया था, अभी कुछ वर्ष पूर्व तक नेपाल के माओवादी भी आतंकवादी थे पर आज वे देशभक्त हैं. धार्मिक आधारों पर लोगों का बटवारा व धार्मिक आधार पर राष्ट्र निर्माण की संकल्पना के लिये उन्माद निश्चित तौर पर आतंकवाद से अलग नहीं है.

दरअसल कोई भी पार्टी हिन्दुत्व के बढ़ रहे उन्मादी संगठनों का लोकतांत्रिक हल नहीं चाहती. क्योंकि इसी के सहारे समय-समय पर वे वोट बैंक बनाने का काम करती हैं. राष्ट्र के प्रति कर्तव्य, देशभक्ति का झूठा ढोंग रचा जा सकता है. जहाँ सत्ताधारी वर्ग ने अधिकांस लोगों के दिलो दिमाग में राष्ट्र के प्रति गौरव दर्शाने के नये चेहरे को खडा़ कर दिया है. बंदूक के बल और कानून के सहारे, दमन के वास्ते इंसानियत के मायने बदल दिये गये हैं और देश व देशभक्ति का एक खोखला चेहरा सेना, पुलिस, विशेष सुरक्षा बल का है.

सत्ता के पोषण में ही धार्मिक आतंक बढ़ता जा रहा है. नजदीकी वर्षों की घटनाओं पर नजर डालें तो उडी़सा में 37 इसाईयों के मारे जाने, 4000 घर जलाने, जिसके कारण 50,000 इसाई घर छोड़ कर भाग गये, केरल के सबसे पुराने गिरजाघर की लूटपाट, माले गाँव के बम विस्फोट, कानपुर में बम बनाते पकडे़ जाने की घटना, राजस्थान के सिमरौली गाँव से मुस्लिमों को भगाकर आदर्श हिन्दू गाँव बसाने की घटना, दिल्ली विश्वविद्यालय में ए.बी.बी.पी. के छात्रों द्वारा गिलानी पर किया गया हमला, ऐसी कई घटनायें हमारे सामने है और प्रतिबंध तो दूर की बात इस संदर्भ में गिरफ्तारी तक नहीं हुई है. इतना ही नहीं बल्कि गुजरात के मोदासा में जो मोटरसायकिल बम धमाका हुआ तो उसमे शुरुआती दौर में सिमी से जुडे़ इंडियन मुजाहिद्दीन की बात आयी. जब मानवाधिकार संगठनों और अन्य जनसंगठनों ने बात उठायी तो इसकी जाँच होनी शुरू हुई और वह मोटरसायकिल जिसमे बम धमाके हुए अखिल भरतीय बिद्यार्थी परिषद के किसी सदस्य की थी. बाद में जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया वे हिन्दू जन जागृत मंच से जुङे थे. गुजरात के मुस्लिमों की स्थिति यह हो गयी है कि उन्हें अपने मोटर गाङी तक में हिन्दू देवी देवताओं के पोस्टर, मूर्तियां लगाकर चलने पड़ रहे हैं.

तो ऐसे में क्या यह मान लेना चाहिये कि सत्ता में बैठा वर्ग हिन्दू आतंक का पोषक है या हिन्दू आतंक सत्ता के सय पर चल रहा है. अंततः इन सभी उन्मादों के पीछे के कारण धार्मिक हैं जहाँ कई बार हिन्दू कट्टरपंथ की प्रतिक्रिया में मुस्लिम कट्टरपंथ आ रहा है और इसका फौरी फायदा अलग-अलग रूप से संसदीय पार्टियों को हो रहा है. अर्थात वोट की राजनीति को मजबूती देने के लिये धर्म और धर्मिक उन्मादों का होना जरूरी हो गया है. धार्मिक आतंक से मुक्ति धर्म विहीन समाज बनाकर ही मिल सकती है जिसके लिये सरकार और किसी भी संसदीय पार्टियों के पास कोई एजेंडा नहीं है.

14 सितंबर 2010

पोला की खुशियों में किसान आत्महत्या

चन्द्रिका
राहुल गांधी विदर्भ में अपना भाषण दे कर चले गये उनको यहाँ से गये अभी कुछ ही घंटे हुए थे जबकि यहाँ के पाँच किसानों ने आत्महत्या कर ली. वर्धा के निवासी हनुमान चौधरी बारिस से हुई तबाही को बर्दास्त नहीं कर सके और कुएं में कूदकर अपनी जान दे दी. इसके पहले हनुमान तीन बार आत्महत्या का प्रयास कर चुके थे और चौथी बार का यह प्रयास उनकी जिंदगी ले बैठा. अन्य चार किसान दिलीप राजूरकर मेढ़े, विजय पंधरे, महादेव वाहने, गंगूबाई ने भी आत्महत्या कर ली. महाराष्ट्र में यह किसानों के सबसे बड़े पर्व पोला का अवसर था जब वे अपने बैलों के साथ सड़कों पर खुशी मनाते और नाचते देखे जा सकते थे पर खुशियां तारीखों और त्योहारों में टंग कर नहीं आती वे जिंदगी के कार्य कलापों और रोजमर्रा की स्थितियों का प्रतिफलन होती हैं. जब पूरा विदर्भ इस बार गीले अकाल में डूबा हुआ है और बारिस ने सोयाबीन व कपास की फसलें बर्बाद कर दी है ऐसे में यहाँ का किसान अपने परम्परा के निर्वाह के तौर पर पोला भले ही मना लें, अपने बैलों को भले ही सजाकर घूम ले पर सही मायने में इस बार की बारिश ने उसकी खुशियाँ डुबो दी हैं. एक तरफ वह पोला की खुशी मनाकर लौट रहा है तो दूसरी तरफ अपने किसी पड़ोसी किसान की आत्महत्या देख रहा है. दरअसल लाखों में पहुंच चुके आत्महत्या के इस आंकड़े को देखा जा सकता है, दस्तावेजों से उनके तथ्य इकट्ठा किये जा सकते हैं पर उन किसानों के आंकड़े का महज अंदाजा लगाया जा सकता है या नहीं भी लगाया जा सकता है, जो आत्महत्या की दहलीज पर खड़े हैं. और अपनी रोज की जिन्दगी को घुट-घुट कर बिता रहे हैं. किसानों की कर्ज माफी और यू.पी.ए. सरकार द्वारा दिये गये विशेष पैकेज से किसानों की आत्महत्या में कोई कमी नहीं आयी है यह तथ्य को विदर्भ दौरे के दौरान अपने भाषण में राहुल गांधी ने स्वीकार किया पर इसके पीछे जो कारण और तर्क उन्होंने दिये वह एक रटा रटाया वर्षों पुराना कांग्रेसी जुमला था कि सरकार १०० रूपये भेजती है तो आम आदमी तक १० रूपये ही पहुंचते हैं. क्या किसान आत्महत्या का मामला रूपये की लेन-देन व कर्ज माफी से ही जुड़ा है या उसके और भी कारण हैं.

दरअसल सरकार किसान आत्महत्या को घटना के तौर पर लेती है लिहाजा जब कोई किसान आत्महत्या करता है या करती है तो उसके परिवार को कुछ रूपये दे दिये जाते हैं पर इसके लिये भी उस परिवार को आत्महत्या के कारण पुख्ता तौर पर जुटाने पड़ते हैं. जबकि यह मामला तंत्र की अवधारणा से जुड़ा है जहाँ देश के ७० प्रतिशत आबादी जो कि किसानी से किसी न किसी रूप से जुड़ी है उस तौर पर तंत्र के विकास व देश के विकास की धुरी के रूप में किसान को रखा जाना चाहिये था पर उसके लिये कोई स्पष्ट पॉलिसी नहीं बनायी गयी है अलबत्ता विकास की अवधारणा के तहत यह कहा जा रहा है कि अब समय है जब शहरों के बजाय गाँवों का औद्योगीकरण कर रोजगार के नये अवसर पैदा किये जायें. यह सरकार की विकास नीति को स्पष्ट करता है कि वह देश में औद्योगीकरण को ही प्राथमिक तौर पर रखती है और यह औद्योगीकरण अब शहरों के बजाय गाँवों में प्रसारित करने का तरीका है, गाँवों को सड़कों से इसीलिये जोड़ा गया था क्योंकि शहरों में पानी व अन्य संसाधन समाप्त व दूषित हो चुके हैं और उद्योगों को जिंदा रखने के लिये जरूरी है कि ऐसे जगहों की तलाश की जाय जहाँ यह प्रचुरता में मौजूद हों. इस लिहाज से अब वे उपजाऊ क्षेत्र जहाँ पानी व अन्य संसाधन मौजूद हैं उनकी बारी है. यह बेहतर होता कि जहाँ पर गाँवों की जमीने किसानी के योग्य थी और वहाँ किसान खेती कर रहा था वहाँ का विकास व रोजगार किसानों को सुविधा मुहैया करा कर किया जाता, विकास की ऐसी नीतियां बनायी जाती जो किसानों के लिये अनुकूल होती. बजाय एक किसान की आत्महत्या के पश्चात धन देने के उसकी उन मूलभूत जरूरतों को पूरा किया जाता जिससे कृषक वर्ग को लाभ होता और उत्पादन बढ़ता. मसलन विदर्भ के किसानों के पास सिचाई के अल्प साधन हैं और उन्हें इन साधनों से लैस किया जाता, उनके लिये महंगे विदेशी बीजों के बजाय सस्ते व अच्छे बीज उपलब्ध कराये जाते. ऐसा नहीं किया गया क्योंकि सरकार की मंशा किसानों का विकास नहीं है बल्कि आत्महत्या की दर को और बढ़ाना है जिसके पश्चात वह धन देने का लोभ किसानों में पैदा करती है. विदर्भ के किसानों की आत्म्हत्यायें तबतक नहीं रुक सकती जब तक इनका विकास, इनकी स्थितियों को देखते हुए नहीं किया जाता, जब तक इन्हें वे सुविधायें नहीं मुहैया करायी जाती जो कि इनके किसानी के लिये जरूरी है. इस बार गीले अकाल से किसानों की अधिकांस फसल नष्ट हो चुकी है. शायद यह किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा और भी बढ़ा दे.

11 सितंबर 2010

पत्रकारों की हत्या का लोकतंत्र

chandrika

हमारे समय के पत्रकार हो जाओ...सरकारी रोशनाई में कलम डुबोकर सरकार के चेहरे की शिकन लिखो...२०२० तक सरकार के मिशन लिखो इतना काफी हो तो हांथों में दस्ताने बांधकर समय के मुंह पर कालिख लगा दो और पोंछ लो अपने हांथ किसी सरकारी गमछे में.... जरूरत पड़े तो थोड़ा मुस्कराओ, आँखे भी नम कर लो...... और इस अदब के साथ हाँथ मिलाओ कि लोकतंत्र जैसी कोई चीज आस-पास की हवा में घुल-मिल रही है. अखबारों में छपी ख़बरों की स्याही के रंग जैसा कुछ इतना गाढ़ा लिखो कि सरकार की आंखों में मुहब्बत की तरह उतर जाओ और एक दिन ढेर सारे पदकों के साथ अपने घर लौटो दिल्ली से.... या दिल्ली जैसे किसी शहर से, या फिर दिल्ली को अपना घर और उस सरकार को अपना परिवार मान लो जो पाँच सालों में अदला-बदली करके वापस लौट आती है. विपक्ष में रहो पर उतना जितना मनमोहन सिंह-आडवानी के, मुलायम सिंह-मायावती के, ममता बनर्जी-बुद्धदेव के या कोई भी पार्टी, संसद के इर्द गिर्द किसी पार्टी के. इतने विपक्षी मत बनों की सरकार के लिये माओवादी हो जाओ....कि बेगुनाही के बावजूद सलाखों के पीछे भेजने का लोकतंत्र है...इतने विपक्षी होना प्रशांत राही होना है, लिखने की इतनी आज़ादी मत मांगो कि सीमा आज़ाद या लक्ष्मण चौधरी जैसा बर्ताव करना पड़े सरकार को. इतने भी नहीं कि लिखने और लड़ने की कीमत हेमचन्द्र पाण्डेय जितना अदा करनी पड़े सरकार द्वारा की गयी हत्या के रूप में. पत्रकारिता के ये वूसूल जिंदगी को सुकून और भविष्य में लोकतंत्र को फुर्सत देंगे. लोकतंत्र के बुढ़ापे का समय है, मौत धीरे-धीरे इसी तरह आयेगी.

जंगलों में आदिवासी अपने विस्थापन, प्रताड़ना, असंतुष्टि के खिलाफ लड़ रहे हैं और उनकी लड़ाई को माओवादियों ने सशस्त्र बना दिया है और एक राजनैतिक सांगठनिक स्वरूप में वे ज्यादा मजबूती के साथ उभर कर आये हैं इतनी मजबूती कि सरकार नहीं बल्कि संसदीय संरचना अपने को असुरक्षित मान रही है. स्थानीयता के लिहाज से अपनी समस्याओं के खिलाफ और एक बड़े फलक पर तंत्र के खिलाफ इस उभार को देखा जा सकता है. अभी हाल के दिनों में जबकि यह बहस जारी ही है कि माओवादी जंगलों तक ही क्यों सीमित हैं? इस बीच पिछले कुछ सालों में कई ऐसे पत्रकारों को सलाखों के पीछे भेजा गया है, प्रताड़ित किया गया है या फिर उनकी हत्यायें की गयी हैं, जिन्हें सरकार ने माओवादी के रूप में चिन्हित किया है या माओवादी गतिविधियों में शामिल पाया है . वरिष्ठ माओवादी नेता आज़ाद के साथ हेमचन्द्र पाण्डेय की हाल में की गयी हत्या या पुलिस हिरासत में पीपुल्स मार्च के बंगला संस्करण के सम्पादक स्वप्न दास गुप्ता की मौत बहस में कुछ नये पन्ने जोड़ती है. मसलन, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हेमचन्द्र एक पत्रकार थे बावजूद इसके यदि माओवादी भी थे तो वह कौन सी चीज थी जिसने एक पत्रकार को माओवादी बना दिया और सरकार को उनकी हत्या करनी पड़ी. वे तो उन जंगलों से थे जहाँ जमीनों को छीना जा रहा है और लोगों को विस्थापित किया जा रहा है और ही वे लालगढ़, सिंगूर, बस्तर, गड़चिरौलि से थे, सलवा जुड़ुम का दमन उनके घरों तक नहीं पहुंचा था बावजूद इसके एक पत्रकार माओवादी क्यों हो गया. आदिवासियों के असंतुष्टि के आधार पर माओवादी होने की प्रक्रिया को समझना थोड़ा आसान है क्योंकि रोज-बरोज हो रही मौत और गाँवों में सुबह मिल रही किसी पड़ोसी की लाश, चुप-चाप मौत से पहले लड़ने का एक साहस तो देती ही है. पर पत्रकारिता को जारी रखते हुए, सुकून की जिंदगी जीते हुए और शायद सरकारी लोकतंत्र का समर्थन करते हुए हेमचन्द्र, प्रशांत राही, सीमा आज़ाद, स्वप्न दास गुप्त के अलावा कई ऐसे पत्रकार थे और हैं जो अपनी जिंदगियां वैसी ही गुजार सकते थे जैसी ठीक-ठाक जिंदगी के बारे में आप सोच सकते हैं, पर नाम बदल कर, गुमनामी और बगैर किसी पहचान के जीना महज़ जुनून नहीं होता बल्कि यह माओवाद की जंगल से ज़ेहन तक की यात्रा है. दरअसल माओवाद का सैद्धांतिक और बौद्धिक पक्ष यहीं मजबूत होता है जहाँ सत्ता को कार्यवाहियों और संस्थानों के टूटने का भय ही नहीं बल्कि एक ऐसी संरचना के बेनकाब होने का खतरा है जो अपने चरम व्यवस्थित स्थिति में क्रूरता और तानाशाहीयों के साथ चंद लोगों के वर्चस्व को ही चरम पर पहुंचायेगी. शायद ऐसी व्यवस्था के खिलाफ उग्र होने की कवायद ही एक पत्रकार को उग्रवादी या उग्रवाद समर्थक बना देती है. मणिपुर, असम से लेकर देश के किसी भी शहर में मिल सकते हैं अपने नाम या किसी और नामों के साथ, अपनी कलम को हथियार बनाते हुए.

जब २६ जनवरी १९५० को लिखी गयी एक मोटी पोथी का १९वाँ अनुच्छेद धुंधला पड़ने लगे और लोकतंत्र की एक संरचना में इतना कम लोकतंत्र बचे कि आँखों पर चढ़े चश्में का कांच सरकारी तस्वीर के अलावा कुछ भी देखने से मना कर दे तो ज़ेहन के पत्थर पर अपनी भाषा और कलम की धार कुछ लोग तेज करते ही हैं जबकि यही एक स्थिर और जड़ संरचना का अतिवाद होता है, लोकतंत्र को पूरा का पूरा मांगना. छोटी-बड़ी कमियों को तलाशने के बजाय पूरी संरचना का मूल्यांकन करना और उसके खिलाफ खड़े होना.

दुनिया में जब लोकतंत्र की बहस चल रही थी तो कई ऐसे विचारक थे जिन्होंने लोकतंत्र की व्यापकता के लिये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अहम माना १७वीं सदी में फ्रांस के विचारक वाल्तेयर की जुबान को भी हम जमीन पर नहीं उतार सके जिसमें उन्होंने कहा था किमैं जानता हूं कि वह झूठ बोल रहा है, पर वह अपनी बात कह सके इसके लिये मैं अपनी जान दे दूंगावरन आज की स्थितियाँ इसके उलट पत्रकारों को यह चेतावनी दे रही हैं और सत्ता हेमचन्द्र की हत्या के साथ यह एलान कर रही है कि तुम अगर इतना सच बोलोगे तो वह तुम्हारी जान ले लेगी. जबकि हमारे समय में एक सच को स्थापित करने के लिये हजार बार बोले जा रहे झूठों को खण्डित कर, हजार बार, हजारों तरीके से सच को बोलने की जरूरत है कितना मुश्किल है यह सब कुछ मौत से बेपरवाह होकर ऐसा करना, किसी हत्या में मारा जाना और वर्तमान के इतिहास में दर्ज तक होना.

एक पत्रकार के माओवादी या माओवाद समर्थक होने का मसला यहीं से जुड़ा है. १८२८ में जब ब्रिटिश के राजनीतिज्ञ एडमण्ड बर्क ने मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा था तो वह इस रूप में कतई नहीं था कि मीडिया को लोकतंत्र की किसी एक संरचना का जनसम्पर्क माध्यम हो जाना चाहिये बल्कि उसे लोकतांत्रिक मूल्यों के लिये लगातार व्यापक आज़ादी के संघर्ष का सहयोगी बनना चाहिये और सत्ता तंत्र द्वारा प्रतिस्थापित किये जाने वाले लोकतंत्र से आगे जाकर सोचना चाहिये. ऐसी स्थिति में एक पत्रकार का आज के समय में यह अंतर्द्वन्द है जब वह व्यक्ति की व्यापक आज़ादी के लिये संसदीय संरचना को नाकाफी पाता है तो उस जनपक्षधरता के साथ खड़ा होता है जो इस ढांचे से संघर्ष कर रहे हैं फिर तो माओवादी शक्तियाँ ही आज देश के फलक पर जुझारूपन के साथ सत्ता से लड़ती हुई दिखती हैं, भले ही इनमे कई खामियां हों और इनके क्षेत्र अभी सीमित हों. एक बौद्धिक तबका इन सीमित क्षेत्रों में चल रहे संघर्षों का आलोचनात्मक विश्लेषण करता है और उन्हें मजबूत बनाता है. किसी समय में चल रहे संघर्ष की यह एक भूमिका है, अपने लिये उचित स्थान की तलाश करना जबकि सरकार द्वारा हत्या किये जाने की सम्भावनायें जंगलों और शहरों में कम--बेस बराबर हो चुकी हैं और लोकतंत्र आज़ादी के स्वप्न हमारे प्रतिलोम में खड़े हैं.

ऐसे में यदि कोई पत्रकार उस आज़ादी को मांगेगा जिससे चंद लोगों या एक वर्ग की स्वक्षंदता को खतरा हो तो वर्ग संघर्ष की लड़ाईयां और तीखी ही होंगी. तब हत्याओं के लिये मुठभेड़ का नाम नहीं दिया जायेगा, आफ्सपा जैसे कानून बनाकर हत्यायें वैध कर दी जायेंगी. छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा अधिनियम जैसे कानून कई लोगों के जिन्दगी के उस हिस्से को सलाखों के पीछे धकेलने में काफी होंगे जिसमे सच बोलने का साहस जिंदा बचा रहता है.