27 अप्रैल 2010

तुम्हारी चुप्पियाँ और उनकी हत्यायें

वहाँ की खबरें नहीं रही हैं बेसक ये खबरें हत्या और कत्ल के रूप में आयेंगी पर युद्ध की खबरों के चेहरे ऐसे ही होते हैं. उनके लिये और उन सबके लिये सूचना क्रांति असफल हो चुकी है, जो जंगलों की रक्षा महज खनिज संसाधनो की लूट के लिये नहीं करते, जिनके लिये आदिवासियों को अपनी जमीन पर जीने का उतना ही हक है जितना दिल्ली में प्रधानमंत्री को. उन्हें अपनी सुरक्षा का भी हक है जबकि बारूद और बंदूक आदिवासियों की खोज नहीं रहे.
उन तक संसद में महिला आरक्षण की चर्चायें वर्षों बाद तक नही पहुंच पायेंगी और पहुंचने के कोई अर्थ भी नहीं, उन्हें शायद दिल्ली का नाम ही इसलिये पता है कि वहीं कहीं के आदेश पर सेना उनकी महिलाओं के स्तन काटने के लिये भेजी जाती है और दो वर्ष के बच्चों की उंगलिया भी, कहीं ये उंगलियाँ बड़ी होकर तीर चलाने लायक हो जाय कि देश का भविष्य इन उंगलियों से असुरक्षित है. आस-पास जब हत्या या हत्या का भय इतना फैला हो जितना जंगल, तो जीने के लिये भूख मिटाने की भी जरूरत कितनी कम होती है. भय से उपजा क्रोध शरीर में सिथिलता नहीं आने देता. भूख से उनके मौत की ख़बर कितनी पीछे छूट गयी है, मलेरिया से हो रही मौतें और सूखे की तबाही दब सी गयी है. शिक्षा के बारे में बात करना कितना हास्यास्पद होगा जबकि स्कूल सेना के कैम्प बन चुके हैं.
२५ साल से एक पूरी आबादी ने इस तथाकथित सभ्य दुनिया से हत्या का दंश ही झेला है. जिस समाज को तुम पिछड़ा कहते हुए उसे मुख्य धारा में शामिल करना चाहते हो उसका पिछड़ापन क्या यही है कि वह अपनी संस्कृति को बचाना चाहता है, बाजार में नहीं ढालना चाहता, जबकि बाजार कोसों दूर रहते हुए उसे अपने दुकान पर ला रहा है. रायपुर की सड़कों पर बस्तर की नकली कलायें सजाइ जा रही हैं. एक महिला अपनी पीठ पर लकड़ी का गट्ठर और कांख में बच्चे को दबाये हुए जा रही है, तीर कमान लिये एक आदिवासी की निगाह कुछ ढूंढ़ रही है. जंगल से उनकी तमाम मुद्रायें तक उठा लाई गयी हैं. रायपुर की सड़कों पर क्या वे सच में इतनी सहज होंगी. यह सहजता उसी वक्त छीन ली गयी थी जब फूलोबाई को जलावन लकड़ी लाने के जुर्म में पीटा गया. जिस समाज के नकलीपन को लाकर राजधानी की सड़क पर खड़ा किया गया है, उसकी असली दुनिया को जलाकर कितना तबाह किया गया पिछले सालों में, कि खुद पता नहीं उन्हें जंगल में कितने ठिकाने बदलने पड़े. शान्ति अभियानों के झूठ शायद अब किसी से छुपे हुए नहीं रहे. वे गाँव, इतिहास लिखे जाने के इंतजार में हैं जिन्हें बार-बार जलाया गया, पहाड़ों में छुपाये गये जिनके अनाजों को इसलिये नष्ट किया गया कि लोगों को मजबूरन सरकारी कैम्पों पर निर्भर होना पड़े. अब जबकि वहाँ सेनायें कूच कर चुकी हैं और जंगलों को घेरा जा रहा है कितने चुप हैं अखबार सिवाय यह कहने के कि अंबानी दुनिया के पाँच सबसे धनी लोगों में शामिल हो गये हैं.
बस्तर के कोंडा, तुरपुरा और कनेरा गाँवों को छोड़कर जलधर, मनकू और पैतू अपनी कमसिन उम्र में ही रायपुर गये हैं, इनकी कुशलता इतनी ही है. बाकी ये इतने अकुशल हैं कि न्यूनतम मजदूरी का एक हिस्सा ही इन्हें मुनासिब हो पाता है. इन्हें न्यूनतम मजदूरी के बारे में कोई जानकारी नहीं यह उनके मजदूर बनने की शायद पहली पीढ़ी है जो इन बड़ी मशीनों के बीच अपने को सहज कर रही है. स्पंज आयरन की फैक्ट्रीयों से उड़ती धूल और जंगलों की हवाओं का फर्क इन्हें कितना सालता है, यह सोचने की मोहलत इन्हें नहीं ही मिल पाती होगी. बड़ी मशीनों के बीच इनके काम के घंटे भी बड़े हैं और बारह घंटे काम करने के बाद वक्त इतना ही बचता है कि उसे नींद साथ ही गुजारा जा सके. अपने रंग और गंध के साथ किसी भी बाहरी आदमी से इन्हें मिलने में संकोच है. सिलतरा की सैकड़ों फैक्ट्रीयों के अहाते के किसी कोने में इनकी झुग्गियाँ बना दी गयी हैं और ठेकेदारों के रहम--करम पर ये सब जीने को मजबूर हैं, बस्तर लौटने का खयाल इन्हें मजदूरी मिलने के साथ हर बार आता है और उनमे से कोई एक जाकर सबके हिस्से का थोड़ा-थोड़ा बस्तर ले आता है. इनके लिये अपना गाँव छोड़कर किसी दूसरे शहर जाना एक नयी शुरुआत है इससे पहले बस्तर ने इन्हें छोड़ा था इन्होंने बस्तर को, सूखे में जब छत्तीसगढ़ दूसरे राज्यों के ईंट भट्ठों पर होता, तब भी इस जिले के आदिवासियों कों जंगलों ने कहीं जाने से बचा लिया. यह आंकड़ा शायद कभी दर्ज नहीं किया जा सकेगा कि देश में बनाये गये कंक्रीट के मकानों में जो ईंट लगी है, देर तक जलने के बावजूद छत्तीसगढ़ी पसीने की महक उसमे बची हुई है.
तथाकथित सभ्य समाज ने अपनी पहचान के खिलाफ लड़ना छोड़ दिया और अब तो इनकी सभ्यता उस देश की सभ्यता में लगभग ढल चुकी है जो बर्बर युद्ध के जरिये दुनिया के तमाम देशों को लकतंत्र का पाठ पढ़ा रहा है. क्या आदिवासियों को सभ्य बनाने के लिये, उनके जमीन पर कब्जेदारी के लिये, देश की फौज द्वारा छेड़े गये गृहयुद्ध में कोई फर्क नजर आता है भले ही स्थानों का नाम इराक, अफगान या बस्तर हों.

19 अप्रैल 2010

सरकार अपना भरोसा खो चुकी है

जिंदगी की कीमतें रुपयों से नहीं चुकायी जा सकती। चाहे वह 40 लाख हो या उससे भी अधिक। आदिवासियों की जिंदगी की भी और सेना के जवानों की भी। न ही किसी की जिंदगी को कम करके आंका जा सकता है – पर यह होता रहा है। स्थान, व्यक्ति, वर्ग के लिहाज से घटनाओं की महत्ता कम या ज्यादा हो ही जाती है। यही विभेद है। ये वर्गीय विषमता की मानसिकता व वर्गीय संरचना की निष्पत्तियां हैं। जहां एक आदिवासी की जिंदगी, एक जवान की जिंदगी, एक नेता की जिंदगी और एक कॉर्पोरेट की जिंदगी, सबकी जिंदगियां अलग-अलग अहमियत रखती हैं चूंकि इनके काम स्तरीकृत हैं, उच्च और निम्न आधारों पर, कुछ-कुछ चतुर्वर्णीय व्यवस्था जैसा ही लगता है, हमारा लोकतंत्र भी।
ग्रीनहंट ऑपरेशन के दौरान दांतेवाड़ा में “शहीद” हुए 76 जवान और छह महीने में “मारे” गये 170 आदिवासी, जिनमें माओवादी भी शामिल हैं – इसके पीछे की वजह हमें तलाशनी होगी। जबकि इस घटना के बाद सरकार युद्ध की भाषा बोलने लगी है। क्योंकि किन्‍हीं भी आधारों पर यह देश के मानव संसाधन व आर्थिक संसाधन की क्षति का ही मामला बनता है और अपने ही लोगों के खिलाफ युद्ध, जो अघोषित रूप से जारी था, जिसे घोषित करने की मनोदशा में सरकार दिख रही है, अलोकतांत्रिक है।
जब भी यह कहा जाता है कि आदिवासी मारे जा रहे हैं, तो मानवाधिकार कार्यकर्ता व अन्य सामाजिक संगठनों के लोगों की आवाजें सरकार के खिलाफ निश्चित तौर पर बुलंद हो जाती है और आम जनमानस की भी यही धारणा बन चुकी है – पर माओवादियों का मारा जाना सहज है। मीडिया के लिए भी, मानवाधिकार व सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए भी और उन लोगों के लिए भी, जो इन जंगलों से दूर हैं यानी हम सबके लिए। दरअसल इस पूरी प्रक्रिया में माओवादी अछूत की तरह हैं। बीते जमाने के वे अछूत जिन पर किसी तरह की प्रताड़ना, प्रताड़ना के दायरे से बाहर थी। जवानों का मारा जाना दुखद है। आदिवासियों का मारा जाना भी दुखद है। पर अगर आदिवासी ही माओवादी हों तो, जो कि है भी आदिवासियों का सशस्त्रीकरण व राजनीतिकरण ही उनका माओवादी होना है। पर माओवादियों पर जब भी बात होती है तो वह इस रूप में कि वे देश के भूभाग से कहीं बाहर की कोई प्रजाति हैं। जबकि ग्रीनहंट में मारे गये व पिछले कुछ वर्षों में चलाये गये तमाम अभियानों में जिन माओवादियों को निशाना बनाया गया है उनमें अधिकांश आदिवासी ही हैं। तो क्या अंततः आदिवासियों का ही कत्लेआम हो रहा है? यह एक कठिन सवाल है, जिसके उत्तर एक घटना को केंद्र में रख कर नहीं तलाशे जा सकते बल्कि पिछले 60 वर्षों के इतिहास का पन्ना हमें पलटना ही पड़ेगा। यदि इतना पीछे न भी जाएं तो 1990 के बाद जो आर्थिक सुधार हुए, उन सुधारों की खामियां हमे जरूर पहचाननी पड़ेगी। अब सवाल आदिवासियों के मारे जाने का नहीं, माओवादियों के मारे जाने का नहीं बल्कि आदिवासियों के माओवादी बनने की प्रक्रिया का है। क्योंकि माओवादियों का मारा जाना उन आदिवासियों का मारा जाना है जिन्होंने शस्त्र उठा लिये हैं, जिन्होंने अपने क्षेत्र में अपनी सरकारें बना ली हैं, भारत सरकार से अलग, जिन्हें उन लाखों आदिवासियों का समर्थन प्राप्त है जो जंगलों में रहते हैं और मूलभूत सुविधाओं से वंचित रह गये हैं। यह अलग सरकार का चुनाव, अलग संरचना का निर्माण, ठीक वैसा ही है जैसा कि हम संसद को चुनते हैं, जैसा हमारे सांसदों को हमारा समर्थन प्राप्त है, दोनों की प्रणालियां कार्य करने के तरीके में फर्क हो सकता है पर शायद इसमे कोई फर्क नहीं दिखता कि सरकार वही चला रहा है, जिसका जनता समर्थन कर रही है। दंडकारण्य में भी और दिल्ली में भी। बावजूद इसके कि सरकार चलाने के तौर तरीके अलग-अलग हैं। मसलन पानी पीने के लिए वे तालाब खोदते हैं, कुंए खोदते हैं, तो हमारी सरकार एक और बोतलबंद पानी की कंपनी खोल देती है।
ऐसे में समस्या एक संप्रभु राष्ट्र में दो समानांतर सरकारों के होने का है, जो एक दूसरे को अमान्य घोषित कर रही हैं और शायद संघर्ष भी इसी बात का है। यह राज्य की वैधता की लड़ाई बन गयी है। वहां के आदिवासी भारत सरकार को वैध मानने से इनकार कर रहे हैं। भारत सरकार उनके द्वारा बनायी “जनताना सरकार” को। और खतरा इसी बात का है, जिसे सरकार सबसे बड़ा मान रही है कि यदि यही भ्रूण अलग-अलग हिस्सों में निर्मित होता गया, लोग सरकार से असंतुष्ट हो अपनी सरकारें बनाते गये, अपनी संरचना बनाते गये तो यह भारत राष्ट्र और संसदीय लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए खतरा होगा। संसदीय लोकतंत्र के लिए माओवादियों के शस्त्र उठाने से ज्यादा खतरा उस संरचना से है, जो वे निर्मित करते जा रहे हैं या जिसे उन्होंने मुक्त क्षेत्र में निर्मित कर रखा है।
1980 से लेकर अब तक भारत सरकार द्वारा अलग-अलग तरीके से कई प्रयास किये जा चुके हैं, विकास की योजनाएं चलाकर, सैन्य अभियान चलाकर, शांति अभियान “सलवा-जुडुम” के जरिये और अब ग्रीन हंट आपरेशन। ये अभियान एक तरफ तो विफल हुए हैं, दूसरी तरफ आदिवासी और भी सशस्त्रीकृत हुए हैं। भारतीय सेना जितने विकसित तकनीक के शस्त्रों का प्रयोग करती है, उनसे छीनकर ये भी अपने को समृद्ध बनाते गये हैं। आखिर इन अभियानों की विफलताओं के क्या कारण रहे हैं, क्या नये अभियान चलाने से पूर्व इन विफल अभियानों का ठीक-ठीक मूल्यांकन किया गया? शायद नहीं। यदि किया गया होता तो आदिवासियों का सशस्त्रीकरण और न बढ़ता जो सलवा जुड़ुम जैसे बर्बर अभियानों के बाद और भी बढ़ा। इन कार्यवाहियों ने आदिवासियों को और भी असुरक्षित बनाया व सुरक्षित होने के लिए और भी ज्यादा शस्त्रीकृत होने पर मजबूर किया। उन पर की गयी क्रूरताओं ने उनमें और भी ज्यादा असंतोष पैदा किये। अपने ऊपर हुए जुल्मों से वे और भी उग्र हुए। इसी उग्रता को सरकार ने उग्रवादी करार दिया। क्या उनका उग्र होना नाजायज था? अगर किसी आदिवासी परिवार ने किसी माओवादी को खाना खिला दिया, रास्‍ता बता दिया, तो इसके लिए उस परिवार के सदस्‍यों को पीटा जाना या उनके घर जला देना कहां तक जायज है?
यही वे कार्यपद्धतियां रही हैं, जिन्होंने आदिवासियों के मन में सरकार के प्रति असंतोष पैदा किये और माओवादियों से उनकी निकटता बनती गयी। क्योंकि माओवादी उनके जीवन की मूलभूत चीजों, रोजगार और तेंदू पत्ता की कीमतों, खेती की उनकी जमीनों व अन्य संसाधनों को मुहैया कराने व व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए एक संरचना, संघर्ष के साथ विकसित करते गये। उनके लिए एक अलग ढांचा विकसित किया जो सरकार के ढांचे से अलग जंगल की परिस्थितियों के अनुकूल था। न्यायिक व्यवस्था, सुरक्षा समिति, कृषक समिति आदि। इस ढांचे ने आदिवासियों में माओवादियों के प्रति विश्वास पैदा किया। माओवादी और आदिवासी पानी में मछली इसी तरह हुए, जिसे वे स्वीकार करते हैं। जिसमें सरकार विफल रही क्योंकि सरकार जिस तरह का विकास चाहती थी, उसके पैमाने अलग थे और आदिवासियों को उनकी परिस्थिति के मुताबिक अस्वीकार थे। टाटा और एस्सार के लिए लाखों आदिवासियों को अपने घर से विस्थापित होना अस्वीकार था और सरकार विकास के नाम पर यही कर रही थी। आदिवासी समाज का विकास निश्चित तौर पर इन कंपनियों की स्थापना से नहीं होना है, बल्कि यह उनके शोषण की एक और कुंजी ही बनेगी, उनकी जिंदगी में और भी खलल बढ़ेगा। वर्षों पूर्व की उनकी संस्कृति को यह नष्‍ट ही करेगी और इन सबके लिए आदिवासी समाज तैयार नहीं है।
आदिवासियों का विश्वास जीतने के बजाय उन पर क्रूर कार्यवाहियां की जा रही हैं। जिस दिन दंतेवाड़ा में 76 जवानों को मारा गया, उसके एक दिन पहले ही दंतेवाड़ा के तोंगपाल थाना के सिदुरवाड़ा गांव में 26 आदिवासी महिलाओं को जगदलपुर से आये कोबरा बटालियन के 200 जवानों ने पीटा, जिसमें महिलाओं के हाथ तक टूट गये। जबकि इन महिलाओं का दोष यह था कि जब कुछ ग्रामीणों को नक्सली समर्थक बताकर जवान ले जाने लगे तो इसका इन महिलाओं ने विरोध किया। क्या इन कार्यप्रणालियों से सरकार आदिवासियों में विश्वास पैदा कर सकती है। दमित बनाकर वह उन पर शासन जरूर कर सकती है पर यह गैरलोकतांत्रिक संरचना का ही हिस्सा होगा बल्कि यह आदिवासियों को सरकार के खिलाफ ही खड़ा करेगा। वहीं दूसरी तरफ माओवादियों ने आदिवासियों में इस विश्वास को इस हद तक अर्जित किया कि उन्होंने जिस मुक्त क्षेत्र का निर्माण किया, उसकी सुरक्षा के लिए आदिवासी शस्त्र लेकर अवैतनिक कार्य करने लगे। जैसे यह उनके अपने राज्य, उनकी अपनी जमीन व जमीन की रक्षा का मसला हो। निश्चित तौर पर यह एक सामुदायिक चेतना के तहत ही संभव था।
भारत सरकार रक्षा बजट पर सर्वाधिक खर्च करती है और आज भी यह स्थिति नहीं है कि वह अवैतनिक सेवा देश की जनता से ले सके। कारण कि जनता को यह महसूस होना ही चाहिए कि देश उसका उतना ही अपना है, जितना किसी नेता का। जितना प्रधानमंत्री का। जितना व्यवसायियों का। पर क्या उन्हें यह महसूस हो पाता है? क्या न्यायिक व्यवस्था में उन्हें बराबरी का न्याय मिल पता है? शायद नहीं। लिहाजा यह मामला सरकार की कार्यपद्धति के साथ उसकी संरचना से निर्मित हो रहा है। जहां सरकार एक बड़े वर्ग को बेहतर संरचना देने में असफल हुई है।
ग्रीनहंट जैसे ऑपरेशन या वायुसेना के प्रयोग से इस समस्या का समाधान संभव नहीं दिखता। सिवाय इसके कि बड़ी और बड़ी संख्या में आदिवासियों का कत्लेआम ही होगा, और प्रतिरोध के तौर पर सेना के जवानों के भी क्षत-विक्षत होने की संभावना बनती है। इस तरह की दमनपूर्ण कार्यवाहियों के बजाय सरकार को आदिवासियों की मूल समस्या को उनकी जमीनी हकीकत के मुताबिक चिन्हित करना होगा और वहां पर विकास की उन योजनाओं को चलाना होगा जो आदिवासियों के जीवन से सीधे तौर पर जुड़ी हुई हैं। मसलन वहां की स्वास्‍थ्‍य सेवाओं को बहाल करना होगा, स्कूल को सेना का कैंप बनाने के बजाय वहां शिक्षकों की नियुक्ति कर शिक्षा का बेहतर प्रबंध करना होगा ताकि वह विश्वास आदिवासियों में अर्जित किया जा सके जो कि माओवादियों ने अर्जित किया है। ♦ चंद्रिका

12 अप्रैल 2010

दंतेवाड़ा से भोथरी होती संवेदना

दंतेवाड़ा में ऑपरेशन ग्रीन हंट को अंजाम देने निकले सीआरपीएफ के 75जवानों का माओवादी हमले में मारा जाना माओवादियों पर भारी पड़ने वाला है. गृहमंत्री पी चिदंबरम अब सवाल करने पर यह बता रहे हैं कि वे छत्तीसगढ़ के उस हिस्से में वायु सेना का इस्तेमाल नहीं करने के बारे में पुनर्विचार करेंगे.

इससे घटना से दो दिन पहले लालगढ़ में जब पी चिदंबरम माओवादियों को कायर बता रहे थे ठीक उसी दिन माओवादियों ने उड़ीसा में सुरक्षा बल के दस जवानों को मार डाला. अब इस बड़े हमले को कई लोग चिदंबरम के कहे का जवाब मान रहे हैं. लेकिन ऐसा मान लेना मुश्किल लगता है कि माओवादियों ने सीआरपीएफ के एक बटालियन को इसलिए उड़ाया क्योंकि उन्हें गृहमंत्री का जवाब देना था. सवाल-जवाब की स्थिति तब बनती है जब एक प्लेटफार्म पर बैठकर बात की जाए. लालगढ़ के इस घोषणा से गृहमंत्रालय राजनीतिक लाभ की स्थिति में आना चाहती थी कि उसने अपनी तरफ से बातचीत की छूट दे रखी है और माओवादी कायर की तरह दुबके हुए है और यह भी कि कायरता के मारे दुबकना किसी डर का परिणाम नहीं है बल्कि वे लोकतांत्रिक स्पेस का उपयोग करना ही नहीं चाहते. पिछले कुछ दिनों में गृहमंत्रालय की तरफ़ से बातचीत करने की घोषणा को तमाम जगहों से दोहराया गया है. ख़बर यहां तक आई थी कि माओवादी महाश्वेता देवी और अरुंधति राय की मध्यस्थता में बातचीत करने को तैयार है. फिर ये उपक्रम पार्श्व में चले गए और कहीं पुलिस ने माओवादियों को गोली मारी तो कहीं माओवादियों ने पुलिस कैंप को जलाया और रेल की पटरी उड़ाई. ऐसे में गृहमंत्री ने लालगढ़ से पुनः बातचीत का प्रस्ताव रखा. माओवादियों ने बातचीत के लिए सरकार से यह अपील की थी कि पहले उन इलाकों से सशस्त्र बल हटाएं जाए जहां माओवादी सक्रिय है ताकि वे आश्वस्त हो सके कि यह वाकई एक ईमानदार पहल है. इस घोषणा के बाद दो-तीन दिनों के लिए युद्धविराम की स्थिति बनी थी लेकिन अर्धसैनिक बलों और पुलिस को उन इलाकों से नहीं हटाया गया जिसकी मांग की जा रही थी. इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता कि दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के जवान माओवादी उन्मूलन के लिए ही गए थे. गृहमंत्री एक तरफ बातचीत की पहल करते है और दूसरी तरफ अर्धसैनिक बल की टुकड़ियों को जंगल में भेजते है कि जिनसे बातचीत करनी है उनकी संख्या को न्यून कर दिया जाए. सीआरपीएफ पर हुए हमले के बाद गृहमंत्री कह रहे हैं कि बातचीत अब बेमानी है. माओवादियों की यह स्पष्ट मांग है कि बातचीत तब तक नहीं की जा सकती जब तक पुलिस की तरफ से हमला (या हमले का प्रयास) बंद नहीं किया जाता. सरकार ने माओवादियों के इस मांग को नहीं माना. ऑपरेशन ग्रीन हंट पर सरकार पहले चुप्पी साधे रही लेकिन जब धीरे-धीरे मामला स्पष्ट होने लगा तो कई जगहों पर ऐसे संभावित ऑपरेशन को आंतरिक सुरक्षा के लिए ज़रूरी बताते हुए कुछ सरकारी नुमाइंदों ने इसके पक्ष में सहमति जताई.

दंतेवाड़ा में अगर सीआरपीएफ के जवानों को माओवादी नहीं मारते तो बहुत संभव है कि ख़बर इसके उलट होती और देश भर में ’आंतरिक सुरक्षा के सबसे बड़े ख़तरे’ को निपटाने को लेकर जश्न मनाई जाती. हालांकि इस घटना के बाद माओवादियों के इस दुस्साहस को भारतीय अर्धसैनिक बल चुनौती के बतौर ले रही है और अगले कुछ दिनों में दंतेवाड़ा, जगदलपुर और बस्तर के इलाके में भीषण जनसंहार देखने को मिल सकता है. सेना की तरफ़ से त्वरित कार्रवाई की बात की जा रही है. पी चिदंबरम यह आश्वासन दे रहे हैं कि दो-तीन सालों के भीतर नक्सलियों का सफाया कर दिया जाएगा. ’जंगल वारफेयर स्कूल’ में पहले से इसकी कड़ी ट्रेनिंग चल रही है जिसमें यह बताया जाता है कि कैसे गुरिल्ला तरीके से गुरिल्लों को परास्त करना है? लिट्टे का अनुभव दक्षिण एशियाई देशों के सैनिकों में उन्माद भर रहा है. यह अलग बात है कि सेनाओं के बहुत सारे जवानों को यह मालूम नहीं होगा कि श्रीलंका में लिट्टे को ’ख़त्म’ करने के क्रम में बीस लाख से अधिक तमिलों को सुनियोजित तरीके से मार डाला गया.

जंगलों का सही ज्ञान नहीं होना और सुरक्षा (सतर्कता) में हुई चूक को कई बार सरकार की तरफ से चिंता का कारण बताया गया. इसको ख़त्म करने के लिए ’ट्राइबल बटालियन’ बना ली गई है. गुरिल्ले को गुरिल्ले की तरह मारो. आदिवासियों को आदिवासियों से लड़ाओ. सल्वा जुडूम का कार्यक्रम जब फ्लॉप होने लगा और दुनिया भर में इसकी तीखी आलोचना हुई तो सरकार ने इसको ’सब्सटीट्यूट’ कर ’ट्राइबल बटालियन’ बना डाला. यह उसी तरह है जैसे ’नगा बटालियन’, ’गोरखा बटालियन’, ’सिख रेजीमंट’, ’राजपुताना राइफल्स’. इस प्रयास में यह बात अंतर्निहित है कि जब इन बटालियनों की आलोचना नहीं हो रही है तो इसके बीच एक और बटालियन घुस जाने से उसकी आलोचना क्योंकर होगी? तो क्या इन तमाम उपक्रमों के बाद छत्तीसगढ़ के मानचित्र के दक्षिणी हिस्से से आदिवासियों की पूरी क़ौम ख़त्म हो जाएगी? हिटलर के समय जर्मनी में साठ लाख यहूदियों को मार डाला गया था. यूरोप और अमेरिका मे धनी यहूदियों द्वारा अपनी धार्मिक अस्मिता का देश बनाने के क्रम में पश्चिमी एशिया के फिलीस्तीन में लाखों मुसलमान ख़त्म हो गए. उनकी कई पीढ़ियां कैंप में ही पलकर जवान हुईं और उन्होंने स्वाभाविक तौर पर विद्रोह का रास्ता चुना. छत्तीसगढ़ में भी आदिवासियों की एक पीढ़ी कैंप में पल रही है. यह सरकारी कैंप लोगों के असंतोष को किस सीमा तक बांध के रखती है यह भविष्य की राजनीतिक परिदृश्य तय करेगी.

हालिया घटना के बाद माओवाद को लोगों के बीच क़ानून व्यवस्था की समस्या के बतौर समझाने में अब सरकार ज़्यादा आसानी महसूस करेगी. लोगों में ऐसे तत्त्वों को लेकर नकार और घृणा का भाव और अधिक तीखा होगा. सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद का नारा देने वाली शक्तियां इस पूरी जंग में सत्ता पक्ष के साथ है. मीडिया ऐसी ख़बरों को सनसनीख़ेज तरीके से परोस कर माओवादियों को देश के आंतरिक भाग में ’बाहरी हमलावर’ बता रहा है. ऐसे में लोगों का इस बात में निश्चित तौर पर यक़ीन गहरा होगा कि इस समस्या पर क़ाबू पाया जा सकता है जैसे अफ़गानिस्तान में तालीबान पर पाया गया या फिर इराक में अब तक छिट-पुट तरीके से ’इस्लामी आतंकवाद’ पर पाया जा रहा है. लालगढ़ का हेलीकॉप्टर अब दंडकारण्य का रुख अधिक जनाधार और अधिक आक्रामकता के साथ कर सकेगा.

इस पूरी जंग मे लोग जिस तरह मारे जा रहें है और मारे जाने के बाद प्रत्येक दूसरे पक्ष में जिस तरह का उन्माद पसर रहा है वह बेहद ख़तरनाक हैं. इसमें तर्क-बुद्धि कम और एक-दूसरे को दुश्मन समझ लेने की प्रवृत्ति अधिक हावी हो रही है. ऐसी घटनाओं पर प्रतिक्रिया करने वाले लोग अधिक टुकड़ों में बंट रहे हैं. जो टुकड़ा इन घटनाओं से अपने को अधिक जुड़ा हुआ महसूस करता है वही इसके बारे में सोच रहा है वरना अधिकतर प्रतिक्रियाएं तात्कालिक शैली की है जो मुख्य तौर पर समाचार चैनल के प्रभाव के कारण व्यक्य हो रही हैं. हमारे सामने जिस अंदाज़ में ख़बरें पहुंच रहीं है और ख़त्म हो रहीं है उसने पूरी मानसिकता को ही बदल दिया है. बगदाद में ईरानी दूतावास के पास बम विस्फोट में तीस लोगों का मारा जाना या फिर रूस की मेट्रो बम विस्फोट और दागिस्तान में बम विस्फोट में सौ से अधिक लोगों का मारा जाना हमारी जमी हुई संवेदना को कुरेद नहीं पाता. ऐसा लगता है कि इराक में तो कई वर्षों से लोग मारे जा रहे हैं. मेट्रो मे बम फटना भी कोई नया नहीं हैं. माओवादियों और पुलिसों की आपस में ठनी है और इसमें कभी एक तो कभी दूसरा पक्ष एक-दूसरे को मारते ही रहते है. चार लोगों का मारा जाना और चार सौ लोगों का मारा जाना लोगों पर अलग-अलग असर नहीं डालती. लाश और घटनास्थल की विभीषिका पृष्ठभूमि में चले जाते हैं और सामने महज संख्या भर रह जाती है. संख्य़ा के साथ कोई संवेदना को कैसे महसूस कर सकता है? युद्ध, बम विस्फोट और मुठभेड़ों ने हमारी चेतना में नियमित चलने वाली प्रक्रिया के रूप में स्थान पा लिया है. इसमें कुछ भी अलग नहीं है. इसने हमारी संवेदनशीलता को भोथरा बना दिया है. सामाजिक प्रभुत्व वाले वर्ग के लिए यह सबसे आनंद और निश्चिंतता का क्षण होता है जब लोग ऐसी घटनाओं में प्रतिक्रिया करना बंद कर दे या फिर वैसी ही प्रतिक्रिया दें जैसा वे चाहते हैं. धीरे-धीरे यह आदत सवाल करने की प्रवृत्ति को बंद कर देगी.

लेखक म.गां.अं.हिं.वि. में मीडिया के जनपक्षधर छात्र हैं पिछले कुछ दिनों से लगातार लेखन व विश्लेषण कर रहे हैं इनसे dilipk.media@gmail.com या मो.- 9561513701 पर सम्पर्क किया जा सकता है

07 अप्रैल 2010

जब देश की सरकार बर्बर हो जाय.

छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा में माओवादीयों द्वारा किया गया हमला अब तक का सबसे बड़ा हमला है, कुछ महीने ही बीते हैं राजनांद गांव के उस हमले को जिसे सबसे बड़ा हमला माना गया था, उसके पहले गड़चिरौली में हुआ हमला सबसे बड़ा हमला था और उससे पहले बिहार का जहानाबाद जेल ब्रेक..........शायद हम इस तरह से १९६७ के उस अप्रैल माह तक पहुंच सकते हैं, अब शायद हम स्थान के लिहाज से सिलीगुड़ी के नक्सलवाड़ी गाँव तक पहुंच सकते हैं और शायद तेलंगाना से उसकी भी इसकी शुरुआत कर सकते हैं या फिर वहाँ से जब आदिवासी बंदूकों और बारूदों से अनभिज्ञ रहे होंगे, जब संसद में भगत सिंह द्वारा बम फेंका गया था, शायद भारत में यह वामपंथ का पहला हमला था, जो हताहत करने के लिहाज से नहीं बल्कि किसान-मजदूर के खिलाफ बन रहे कानून का विरोध था जो अब आसानी से हर साल बनाये जाते हैं. सबसे बड़ा और सबसे पहला...... इसका चुनाव हम आप पर छोड़ते हैं, पर सवाल सबसे बड़े हमले या सबसे छोटे हमले का नहीं है, यह भाषा बोलते हुए हम सिर्फ व्यवसायिक मीडिया की बात अपनी जुबान में डाल लेते हैं इसके अलावा और कुछ नहीं, जब ये घटनायें घट चुकती हैं और सनसनी की आवाजें हमारे कानों में दस्तक देती है तो हम स्तब्ध रह जाते हैं “साक्ड” हमारे गृहमंत्री पी. चिदम्बरम की तरह, हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तरह, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह की तरह जो हर बार कम-अज-कम मुंह से संवेदना और अफसोस जरूर जाहिर करते हैं. खेद प्रकट करना, श्रद्धांजलि देना, यह हमारे सरकार की रस्म अदायगी है, मौत के बाद की रस्म अदायगी और इस रस्म अदायगी में शामिल होते हैं हम सब लोग.
दिल्ली व अन्य शहरों में बैठकर हमारी भूमिका दूसरे दिन सब कुछ भूल जाने वाले दर्शक से ज्यादा और कुछ नहीं होती कि हम भूल चुके हैं कल की घटनाओं को और आज शोएब और सानिया की शादी को लेकर चिंतित हैं, कल ये चिंतायें किन्ही और चीजों में सुमार होंगी और इतने बड़े देश में परसों तक कोई और घटना तो घटित ही हो जायेगी, न भी हो तो समाचार चैनल घटित करवा ही देते हैं और ईश्वर व प्रेत अन्त्ततः हमारे देश के समाचार-चैनलों की रीढ़ हैं ही. कि इन पर प्रतिबंध इसलिये लग जाना चाहिये कि ये चैनल घटना घटित होने के बाद मारे गये लोगों की संख्या गलत बताते हैं और बाबाओं को बैठाकर एक वर्ष पहले लोगों का भविष्य अलबत्ता नापते रहते हैं.
बहरहाल, यह युद्ध है “ग्रीन हंट आपरेशन” पिछले ६ महीनों से जारी युद्ध किसी और देश में नहीं हमारे ही देश के उन जंगलों में जहाँ के आदिवासी माओवादी बन गये हैं, लालगढ़, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उड़ीसा के पहाड़ो और जंगलों में, चलाया जा रहा एक अघोषित युद्ध. शुक्र है कि आप महफूज हैं, इतने महफूज की इनकी खबरें भी आप तक नहीं पहुंचती, शुक्र है कि आप इन जंगलों में नहीं पैदा हुए कि इस युद्ध का अभिषाप आपको भी झेलना पड़ता कि जब इन ६ महीनों में मारे गये सैकड़ो लोगों के चेहरे आपके सपनों में आते और उनके घायल होने की खबरें बिना अखबारों के पहुंचती. खबर मिलती की अभिषेक मुखर्जी, जो लड़का जादवपुर विश्वविद्यालय से आया था, जिसे १३ भाषाओं और बोलियों की जानकारी थी, जिसने आई.ए.एस. का इन्टरव्यू देकर देश का प्रतिष्ठित आधिकारी बनने का रास्ता छोड़ दिया था, उसे ग्रीनहंट आपरेशन में पुलिस ने मार दिया कि पिछले कई दिनों से उसके अध्यापक पिता अपने बच्चे का फोटो लेकर थाने में घूम रहे हैं कि वे पूछ रहे हैं अगर वह मारा गया हो तो उसकी लाश सौंप दी जाय, इस लोकतंत्र में एक पिता को उसके बेटे की लाश पाने का अधिकार होना ही चाहिये, एक माओवादी के पिता को भी. आखिर वह माओवादी बना ही क्यों? हमारे समय का यह अहम सवाल है शायद इसे उस तरह नहीं भूलना चाहिये जैसे चुनाव के बाद नेताओं के जेहन से लोग भुला दिये जाते हैं, जैसे सुबह भुला दी जाती हैं रात सोने के पहले देखी गयी खबरें.
शांति अभियानों के नाम पर सलवा-जुडुम का सच निश्चित तौर पर आप तक पहुंच चुका होगा, ६ लाख लोगों का बार-बार विस्थापन, उनके घरों का जलाया जाना, उनकी स्त्रीयों के स्तन का काटा जाना और वे पाँच साल के बच्चे जिनकी उंगलियाँ इसलिये काट ली गयी कि ये तीर-कमान पकड़ने लायक हो जायेंगी, फिर तो यह देशद्रोह होगा. यह हमारे सरकार की क्रूरता थी, हमारे उस लोकतांत्रिक सरकार कि जिसने समता, समानता, बन्धुत्व को एक मोटी किताब में दर्ज कर ६० साल पहले रख दिया और जिसकी मूल प्रस्तावना को शायद दीमक चाट चुके हैं. आदिवासियों ने इसे अपनी सरकार मानना बंद कर दिया और अपने लोगों की एक सरकार बना ली “जनताना सरकार”. “एक देश में दो सरकारें” यह देश की सम्प्रभुता को खण्डित करना था लिहाजा देशद्रोह भी, पर भला ऐसे देश से कोई देशप्रेम क्यों करेगा, जो जीवन जीने के मूलभूत अधिकार तक छीनता हो, यकीनन आप भी नहीं और गृहमंत्री, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री भी नहीं, बशर्ते वे गृहमंत्री, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री न होकर उन जंगलों के आदिवासी होते जिनके घरों को १२ बार जलाया गया, जिनके बेटों का कत्ल उनके सामने इसलिये कर दिया गया कि उन्होंने माओवादियों को रास्ता बताया.
कुछ वर्ष पूर्व तक यह कायास लगाये जाते रहे कि माओवादियों के पास १०००-१५०० या उससे कुछ अधिक सशस्त्र कार्यकर्ता होंगे पर सलवा-जुडुम की क्रूर हरकतों से इनमे कई गुना इजाफा हुआ क्योंकि मुख्यमंत्री रमन सिंह का बयान था जो सलवा-जुडुम के कैम्प में नहीं हैं वे माओवादी हैं. अब जंगल के आदिवासियों को जीने के लिये माओवादी होना जरूरी था और वे सब जो कैम्पों में नहीं आये माओवादी बन गये, शायद सब नहीं भी बने हों पर मुख्यमंत्री ने यही माना और उनपर कहर जारी रहा. धीरे-धीरे कैम्प भी खाली होते गये और कैम्पों से भागकर भी आदिवासी जंगलों में और अंदर चले गये. यह सरकारी संरक्षण से भागकर आदिवासियों का माओवादी बनना था. पर यह सब हुआ क्यों? क्यों उन्हें कैम्पों में लाया जाता रहा? क्यों उन्हें विस्थापित होने के लिये मजबूर किया जाता रहा? क्योंकि टाटा, एस्सार और जिंदल को उन जमीनों पर कब्जा करना था, छत्तीसगढ़ की सरकार ने उनसे समझौते किये थे. सिर्फ जमीन देने के नहीं, आदिवासियों को विस्थापित करने के भी, इन समझौतों में लाखों आदिवासियों की जिंदगी के जुल्म और बेघरी लिखी गयी थी, स्याही से नहीं सरकारी बंदूकों से, बारूद और बंदूक की पहचान आदिवासियों को यहीं से हुई, ये तीर-कमान के परिवर्धित रूप थे, अपनी सुरक्षा के लिये और अपनी सरकार के लिये. जैसा कि हर बार होता है जीत या हार सरकारों की होती है, सिपाही सिर्फ मरने के लिये होते हैं, बस तंत्र का फर्क है.
ग्रीनहंट ऑपरेशन में मारे गये सैकड़ो आदिवासियों और माओवादियों, हमले में मारे गये सैकड़ों जवानों जो इनके विस्थापन के लिये लगाये गये थे किसके लिये मर रहे थे. क्या इसे इस रूप में देखना गलत होगा कि इन दोनों की मौत के जिम्मेदार टाटा, एस्सार, जिंदल के साथ सरकार है. क्या सरकार के लिये देश का मतलब टाटा, एस्सार, जिंदल हैं? क्या इन तीनों के लिये लाखों आदिवासियों को उनकी जंगलों से विस्थापित किया जाना चाहिये? और उस विस्थापन के लिये युद्ध छेड़ देना चाहिये जिसमे सैकड़ो आदिवासी और जवान मारे जायें. यदि अपनी जमीनों से विस्थापन के खिलाफ लड़ना देशद्रोह है तो देश की जनगणना में इन्हीं तीनों को देशप्रेमी के तौर पर शामिल कर लिया जाना चाहिये और देश का नाम पुराना पड़ चुका है इसे बदल देना चाहिये, टाटा, एस्सार और जिंदल, इनमे से कुछ भी रख देना चाहिये, इस देश का नाम. चन्द्रिका