21 जनवरी 2014

राजा के मौत के बाद की ख़बर



राजा की मौतें कई बार हुई और राजशाही धीरे-धीरे मरी. राजा को कभी मरना नहीं था. उसे जिंदा रहना था. वह ईश्वर का दूत था, वह उसका अवतार और उसका पुत्र था. ईश्वर के बच्चे की मौत जब हुई तो यह तयशुदा माना गया कि ईश्वर भी मर सकता है. सैद्धांतिक तौर पर ईश्वर की मौत राजा की मौत के साथ हो गई. यह दो सौ बरस से भी पहले की बात है. यह तब की बात है जब रेलगाड़ी का पहला इंजन पटरियों पर नहीं आया था. यह तब की बात भी है जब इंसान थोड़ा मजबूत हो रहा था और ईश्वर थोड़ा कमजोर. ये पारस्परिक संबंध थे इन्हें इसी तरह विकसित होना था. एक की मजबूती दूसरे की कमजोरी बननी थी. दुनिया में इसके पहले के यकीन और आस्थाएं भिन्न थे. इस आस्था और यकीन की मौत के पहले यह जरूरी था कि दूसरे यकीन और आस्थाएं बनाई जाएं. ऐसी यकीन और आस्थाएं जो प्रचलन में लाई जा सकें. अदृश्य सत्ताओं के सवालों के जवाब अबूझ और अदृश्य ही हुआ करते थे. राजशाही जिन मूल्यों पर खड़ी थी वह विघटित हो गई. वर्तमान में संचालित व्यवस्थाएं इसी विघटन की उपज रहीं. एक नई व्यवस्था और नए मूल्यों में यकीन की प्रक्रियाएं शुरू हुई. सत्ता के ढांचे एकहद तक बदल गए पर इस बदलाव में जो नही बदला वह सत्ता पर कब्जेदारी वाला वर्ग. प्रत्यक्ष राजनैतिक सत्ता के अलावा हर समाज में एक ऐसा वर्ग बना रहा जो सामाजिक हैसियत को विभिन्न रूपों में कायम रखते हुए वर्चस्व बनाए रहा. समाज पहले भी सोपानों में थे और समता, समानता बंधुत्व के नारे के दो सौ साल बाद भी ये सोपानों में ही रह गए. यह एक खोखला नारा साबित हुआ. यह नीचे के सोपानों से ऊपर के सोपानों को वैद्यता हासिल करने का तरीका भर था. ऐसे नारे उस समय की जरूरत थे और ये आज भी जरूरत बने हुए हैं. जो सामाजिक हैसियत और वर्चस्व को कायम रखने में कारगर हुए. राजा, उप-राजा या जमीदार, सेनापति, सिपाही का जैसा सोपान था यदि गौर करें तो लोकतांत्रिक पद्धति में यही बदलाव आया कि इसकी प्रक्रिया बदल गई. ऐसा ही एक नया ढांचा सत्ता ने दूसरी प्रक्रिया के जरिए तलाश लिया. लोगों की भागीदारी ही एक बड़ी गुमराही बनी. यहां फिर से यह कहना जरूरी है कि सामाजिक परिवर्तन की स्थिति में सत्ताएं मोहलत देती हैं. वे टूटती हैं और एक नए रूप में खुद को मजबूत करती हैं. किसी व्यवस्था को टूटने की जरूरत उसके आंतरिक संरचनाओं में निहित होती है. ऐसी कोई भी सत्ता संरचना विवादहीन नहीं हो सकती जिसके भीतर असमानताओं की उपज लगातार बनी हुई हो. इन्हीं असमानताओं, द्वयम व्यवहारों की खि़लाफत भिन्न-भिन्न रूपों में उपजती थी/है और उपजती रहेगी. ऐसे में पैदा हुए क्षोभ, उत्पीड़न और आक्रोश लंबे समय तक दबाए जा सकते हैं पर उन्हें खत्म नहीं किया जा सकता. जब तक कि उसके कारण को खत्म किया जाए. कारणों के विश्लेषण बेहद अहम होते हैं. इन्हें कई-कई रूपों में प्रस्तुत किया जा सकता है. जैसे गरीब होने को काम करने के साथ जोड़ दिया जाए. जैसे भुखमरी के कारण को कम उपज बता दिया जाए. जैसे तूफान, भूकम्प, बाढ़ को महज प्राकृतिक आपदा बता दिया जाए. प्राकृतिक आपदाओं के वैज्ञानिक कारणों पर चर्चाएं की जाएं पर चर्चाओं को वैज्ञानिक प्रक्रियाओं तक समझाने के लिए ही रखा जाए. जबकि बड़े पैमाने पर दुनिया की व्यवस्थागत उत्पादन और प्रक्रियाएं प्राकृतिक आपदाओं का कारण बन रहे हैं. व्यवस्था जनित आपदाओं के चेहरे बदल दिए जाते हैं. इसके स्वरूप यदि बदल दिए जाएं तो यह गुमराही जरूर पैदा कर सकता है. लोग अपने जीवन में कुछ बदलने का इंतजार करते हैं. वे लंबे समय तक सब्र रखते हैं, फिर वे आक्रोशित भी होते हैं और उन्मादित भी. यदि परिस्थितियां समग्रता में राजनैतिक समझ बनाती हैं तो समाज का संक्रमण की स्थिति में जाना संभव बनता है. इसलिए संक्रमण के दौर परिवर्तनकारी भी होते हैं और फासीवादी भी होने की संभावनाएं बनी रहती हैं. परिवर्तन की जरूरत और मसक्कत वही करते हैं जो स्थितियों की विद्रूपताओं में फंसे होते हैं. ऐसे में सत्ता अपनी संभावनाओं के नए गलियारे तलाशती है. वह थोड़ा सा बदलाव करती है और लोगों के आक्रोश से उसे मोहलत मिलती है. सत्ताओं ने असमानता से उपजे आक्रोशों में हमेशा एक मोहलत को तलाशा है.  
वर्तमान में भारतीय राजनीति इन्हीं स्थितियों से गुजर रही है. पूरे देश में छोटे-छोटे आंदोलनो के उभार और आक्रोश हैं. पूरा का पूरा पेड़ सूखते हुए पीलेपन की तरफ बढ़ रहा है. जबकि पूरी चर्चाएं पेड़ के अलग-अलग पत्तों के सूखने और पीले हो जाने पर भिन्न-भिन्न स्वरों में उठ रही हैं और उठाई जा रही हैं. समस्याओं को जब इस तरह से उठाया जाता है तो वह पेड़ को बचा लेने की गुंजाइश का एक हिस्सा होता है. यह बहुत चालाक किस्म से किया जा रहा प्रयोग है जिसमे जड़ों की तरफ बात करना फलदायी नही है. इन वक्तों में बस शब्दों में कुछ नए अर्थ भर दिए जाते हैं और कुछ नए शब्द प्रचलित कर दिए जाते हैं. पूजी केन्द्रित जरूरतों, उसकी पूर्ति के लिए किए जाने वाले तमाम प्रयासों और पूजी जनित विद्रूपताओं को भ्रष्टाचारकह दिया जाता है. फिलवक्त यह एक ऐसा शब्द है जो राजनीति में अवमूल्य बना हुआ है. जिसके बरक्स ईमानदारी को एक मूल्य के रूप में खड़ा किया जा रहा है. इस शब्द के तहत एक नया मूल्य इस तरह गढ़ दिया गया है मानो यही एक खामी है जो हमारी विकट स्थितियों का कारण बनी हुई है. वर्गीय असमानताओं से जो एक खाई बनी थी उसमे आम आदमी दमित हो चुका था और है. तब एक नई पार्टी ही उसके नाम से खड़ी कर दी जाती है. अब आम आदमी, उससे जुड़े सवाल और उससे जुड़े सरोकार की जो सामाजिक स्मृति बनी थी उस पर एक पार्टी की पैठ हो जाती है. देश में आम आदमी पर बात करना एक जुमला बन जाता है.  

पुरानी बहसें भुला दी जाती हैं और सत्ता हमे नई बहसों में गुमराह कर देती है. पुरानी बहसें वह थी जब पानी जैसे प्राकृतिक संपदाओं पर सबके अधिकार की बहस हो रही थी, वह नदी पर सबके बराबर हक़ की बहस थी और अब यह पानी के दाम कम कर दिए जाने या आधे कर दिए जाने तक पहुंची है. जब पानी के साथ खरीदने और बेचने के सरोकार सामाजिक स्मृतियों में बस जाएंगे तो प्राकृतिक संसाधनों के साथ एक नए तरह की बहस शुरू हो जाएगी. यह धीरे-धीरे एक ऐसे रास्ते पर जाना है जहां पुरानी स्मृतियां विलुप्त होती जाएंगी. समाज नई समस्याओं से घिर रहा है और सत्ता के संस्थानों में नए रंगरूट कड़े नियम बनाने की दुहाई दे रहे हैं. उन समस्याओं के समाधान नियमों और कानूनों के जरिए हल किए जा रहे हैं जिनकी जड़ें सांस्कृतिक हैं. कड़े नियम बनने का आशय है कि हम सबको और बांधा जाएगा. समस्याओं के समाधान हम अपनी बंदिशों के रूप में पाएंगे. जहां व्यवस्था से उपजी बीमारियों के इलाज का खर्च हम नई बंदिशों और दमनकारी कानूनों के तहत अदा करेंगे. एक बेहतर व्यवस्था में हमे एक ऐसे समाज की तरफ बढ़ना था जहां किसी भी सत्ता की ताकत से ज्यादा हम खुद को मुक्त कर पाते जबकि यह उस तरफ बढ़ना है जहां हम और भी बंधनों में घिर रहे हैं और घेरे जा रहे हैं.     

15 जनवरी 2014

जो बचा है वह एक दुः स्वप्न है

पूरे शहर में नए वर्ष की शुभकामनाओं के होर्डिंग लगा दिए गए हैं. अलग-अलग राजनैतिक पार्टियों के बड़े और छोटे होर्डिंग. होर्डिंग में लिखा है कि नया साल शुभ हो. यह शहर मुज़फ्फर नगर है. पिछले बरस के सितम्बर माह में हुई साम्प्रदायिक हमले की सारी घटनाएं बीत चुकी हैं जो दुर्घटनाएं भी ती और शुभ-अशुभ की भाषा में ‘अशुभ भी. तब यह नए साल में संसद की राजनैतिक पार्टियों की तरफ से शुभकामनाएं आस्वाशन सी लगती हैं. जैसे यह सबकुछ उनके चाहने और न चाहने पर निर्भर रहा हो. फ्लाईओवर के ऊपर बड़ा सा बोर्ड लगा है. भगवा रंग के बोर्ड पर मोदी का हंसता हुआ चेहरा, जिस पर लिखा है ‘सुरक्षा नहीं सम्मान देंगें, दंगा नही विकास देंगे. मानो दंगा तो पिछले बरस की योजना में था. जबकि यह इस बरस के लोकसभा चुनाव की उद्घोषणा और तैयारी है. जब भी किसी राजनैतिक पार्टी के द्वारा विकास की बात की जाती है तो यह एक ऐसी अवधारणा है जिसका कोई स्वरूप नहीं दिखता. मुज़फ्फर नगर में साम्प्रदायिक हमले के जो पीड़ित हैं उनके विकास की कहानी सच्चर कमेटी के किसी दस्तावेज में कई वर्षों से दबी पड़ी है. जिसमे देश में उनके हालात क्या हैं यह भी दर्ज है और इसे ठीक किए जाने के कुछ सुझाव भी दर्ज हैं. मुज़फ्फर नगर में चार महीने पहले हुए साम्प्रदायिक हमले में हजारों घर उजड़ चुके हैं और मुस्लिम समुदाय की एक बड़ी आबादी बेघर हो चुकी है. राज्य का मुख्यमंत्री हमले में मारे गए लोगों को मुआवजा देकर अपनी जिम्मेदारी निभा चुका है. इसके बावजूद हजारों की संख्या में मुस्लिम समुदाय के लोगों ने सड़कों के किनारे झुग्गियां बना रखी हैं. वे साम्प्रदायिकों और उन्मादियों की असुरक्षा और भय के कारण अपने गांव और घर नहीं लौटना चाहते. मुख्यमंत्री उन लोगों को भाजपा और कांग्रेस के समर्थक लोग कहते हुए उन पर गांव लौटने का लगातार दबाव बना रहा है. झुग्गियों के लोग कहते हैं कि कोई इस ठंड के मौसम में क्यों खुले आसमान के नीचे रहना चाहेगा. उनके घर, जिसे वे छोड़कर चले आए इन झुग्गियों से बड़े थे. उनके गांव जहां वे वर्षों से, कई पीढ़ियों से रहते आए वहां रहने की यादें बहुत बड़ी हैं. जब वे झुग्गियों में रहने आए हैं, जब उन्होंने वहां न लौटने का फैसला किया है तो यह सब उन्हें अपनी पुरानी स्मृति का हिस्सा बनाना है. उन्हें यह सब अपने जीवन के इतिहास में बीती एक दुर्घटना की तरह याद रखना है. इस इलाके में मुस्लिम समुदाय के पास जमीन उतनी ही बड़ी है जितना बड़ा उनका घर था. पर घर एक स्थायित्व था एक आस्वाशन की तरह जहां वे दिन भर की दिहाड़ी या किन्ही और कामों के बाद बेफिक्री से रहने के लिए लौट आते थे. अब उनके लिए घर का न होना जानवर होना हो गया है. हजारों झुग्गियों के बीच गंदगी पसर सी गई है और उसी के बीच अपने दिनचर्या के लिए उन सबको थोड़ी सी सुरक्षित जगह ढूंढ़ लेनी होती है. राज्य द्वारा पुलिस दबाव के चलते कई लोगों को इस ठंड में अपनी झुग्गियां हटानी पड़ी हैं. वे संझाक के कब्रिस्तान में आ गए हैं. कब्रिस्तान में उन्होंने झुग्गियां बना ली हैं. जिले के अधिकारी उन्हें वहां से भी हटाने की तैयारी कर रहे हैं. ऐसे में वे ऐसी जगह ढूढ़ रहे हैं जहां वे सरकार और हमलावरों दोनों को न दिखाई दें. पर ऐसा करना एक समुदाय के लिए संभव नहीं है.
मलकपुर, नूरपुर खुरगान, मदरसा कैम्प सड़कों के किनारे बसे हुए हैं. ४ जनवरी वह आखिरी तारीख थी जिस दिन लोगों को यह कैम्प छोड़ देना था पर लोगों ने तय कर लिया कि गांव जाकर साम्प्रदायिक ताकतों के हाथों मरने से बेहतर है कि यहीं मरे. अपने लोगों के बीच ही मरें. लोगों को भय इसलिए बना हुआ था कि कुछ लोग सितम्बर हमले के बाद गांव की तरफ अपना घर देखने गए और वे आज तक नहीं लौटे. लोगों को पता है कि उनके न लौटने का कारण क्या है. उन्हें यह भी पता है कि वे कभी नहीं लौटेंगे. मलकपुर कैम्प में रहने वाले अनवर के भाई कासिम भी इनमे से एक हैं. वे बूढ़े जो हमले के वक्त नहीं भाग पाए उनकी लाश बाद में घर के किसी कोने मं टंगी हुई मिली. यही वह वजह है जो लोगों के अपने गांव न लौटने का भय बना रही है. कैम्पों में कुल ८० से अधिक बच्चे ठंड में मर चुके हैं. इनमे से ज्यादातर बच्चियां हैं. कई नवजात अभी निमोनिया से ग्रसित हैं पर यह सब कैम्पों में रह रहे लोग सहन कर ले रहे हैं क्योंकि उन्हें एक हद तक सुरक्षा है. एकजुट रहने की सुरक्षा. यह पीड़ितों की एकजुटता है जो सरकार तक से लड़ने के लिए तैयार है. वहां के लोग सवाल करते हैं कि जब एक मुल्क दूसरे मुल्क के लोगों को पनाह दे देता है तो हमारे ही राज्य की सरकार हमे कैम्पों तक में क्यों नही रहने दे रही है. वे हर रोज सुबह आने वाली पार्टियों के नेताओं, एन.जी.ओ. के फोटोग्राफरों और उनके दुख व सदमे की गर्मी पर रोटियां सेंकने वालों से रू-ब-रू होते हैं. उन्होंने सब कुछ अस्थायी बना रखा है. अस्थायी मदरसे खोले गए हैं, अस्थाई मस्ज़िदें बनाई गई हैं और अस्थाई चौकियां जिस पर कपड़े धुले जा रहे हैं. मुश्किल हालातों में जिंदगियां विकल्प की तलाश कर ही लेती हैं. पालीथीन की चौकी और घर और बिस्तर. सरकार की तरफ से शुरुआती दौर में राहत शिविरों में कम्बल बांटे गए थे बस वही हैं. आसपास और पड़ोस के अलावा समुदाय के लोगों ने दूर-दूर से राहत भेजी है जो आधी-अधूरी ही उन तक पहुच पा रही है. मुस्लिम समुदाय के ये लोग बेहद गरीब लोग हैं जिनका सच्चर कमेटी ने कई साल पहले एक व्यापक स्थिति का आंकड़ा जुटाया था. तब से अब तक सरकार और सरोकार दोनों बदले. साल और बरस के बाद सरकार के वायदे भी बदले पर उनकी स्थिति एकदम न बदली. अब जबकि एक बड़ा बदलाव आया है तो वह उजाड़ और विस्थापन के रूप में. मुज़फ्फर नगर के इस हमले में अन्य साम्प्रदायिक हमलों से एक बड़ी भिन्नता इसी आधार पर देखी जा सकती है कि इसके पहले हुए लगभग सभी हमलों में लोगों की जाने ज्यादा गई. ज्यादा से ज्यादा लोगों को मारा और जला दिया गया था. मुज़फ्फर नगर में एक संरचनात्मक हिंसा है जो सरकार की तरफ से जारी है और हमले में बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ है. विस्थापन एक ऐसी घटना है जिससे उबरने में किसी परिवार को पीढ़ियां लग जाती हैं. इस लिहाज से मुज़फ्फर नगर का हमला एक समुदाय पर तात्कालिक ही नहीं एक लंबे समय तक फर्क डालने वाला हमला है. जबकि किसानी रूप से समृद्ध यह क्षेत्र अपने लिए सस्ते मजदूर बना पाएगा. यह ऐसा क्षेत्र है जहां ज्यादातर बड़े किसान जाट हैं जिन्हें अपने खेतों के लिए सस्ते मजदूरों की जरूरत है. हमला करने वाला समुदाय भी यही है. जब विस्थापित मुस्लिम समुदाय फिर से अपने को बसाने की कोशिशें करेगा तो उसे वह सबकुछ इकट्ठा करना होगा जो अपने पुस्तैनी जमीन पर उसे मिली हुई थी. इसे इकट्टा करने के लिए वह सस्ता मजदूर भी बनने को तैयार हो जाएगा. इस तरह से यह लंबे समय के लिए एक आर्थिक आधार वहां के समृद्धशाली और वर्चस्व बनाए हुए लोगों के लिए मुहैया कराएगा. जबकि हमले में पीड़ित लोगों को फिर से अपना एक घर बनाने में पीढ़ियां लग जाएंगी. संभव यह भी है कि वे कई पीढ़ियों तक उजड़ कर ही रह जाएं.     
चन्द्रिका

09 जनवरी 2014

दिल्ली में संसदीय वामपंथियों का ‘आप’ राग !

रूपेश कुमार सिंह

अब जबकि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बन गई है और दिल्ली के 7वें मुख्यमंत्री के तौर पर अरविंद केजरीवाल ने गद्दी संभल ली है, तो इस पूरे चुनावी परिदृश्य में संसदीय वामपंथी पार्टियों की भूमिका का विश्लेषण एक बार फिर से जरूरी कार्यभार बन जाता है! हम थोड़ा सा पीछे लौटकर अन्ना आंदोलन की याद को अगर ताजा करें तो उस समय भी उस भ्रष्टाचार विरोधी उभार को हथियाने के लिए भाजपा से लेकर तमाम संसदीय वामपंथी पार्टियों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। अन्ना के मंच से भाषण देने के लिए लालायित कॉमरेडों ने उस समय अपना पूरा जोर लगाया। जब राजघाट के मंच पर ये भाषण देने आए, इन्हें तब वहां जुटे अन्ना के अनुयायियों ने उन्हें हूट किया और उन्हें भाषण तक नहीं देने दिया गया! जब केजरीवाल ने पार्टी बनाई तो अन्य पार्टियों के तरह संसदीय वाम दलों ने भी कहा कि ‘ये पार्टी नहीं चलनेवाली!’ जब दिल्ली में केजरीवाल ने सभी 70 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए और अपना लम्बा-चौड़ा घोषणापत्र जनता के बीच रखा तो इसे भी उन्होंने बकवास ही करार दिया और 5 वामपंथी पार्टियों (भाकपा, माकपा, भाकपा-माले लिबरेशन, फॉरवर्ड ब्लॉक, एसयूसीआई (सी)) ने अलग-अलग 20 सीटों से अपने उम्मीदवार भी खड़े किये! स्वाभाविक है, जिस क्षेत्र से इन्होंने अपने उम्मीदवार खड़े किये थे, वहां इन्होंने आप का विरोध भी किया होगा, लेकिन चुनाव परिणाम आते ही इनके सुर-ताल बदल गये !

वैसे अगर कहा जाये तो इस तरह का बदलाव कोई पहली घटना नहीं थी, इनका इतिहास ही अवसरवादिता का रहा है! ये बिहार में कभी लालू का विरोध करते हैं तो कभी समर्थन और नीतीश कुमार के साथ भी यही सलूक है इनका। यूपी में कभी मुलायम सिंह से गलबहियाँ करते हैं तो कभी इनके खिलाफ सड़क पर प्रदर्शन! खैर यहाँ हम दिल्ली के बारे में बात कर रहे हैं, दिल्ली में इनका गिरगिट क़ी तरह रंग बदलने का कारण, इन पार्टियों को मिले वोट से भी पता चलता है। माकपा को द्वारका, करावल नगर और शाहदरा में क्रमशः 684, 1199 और 121 वोट मिले, भाकपा को बाबरपुर, छतरपुर, मंगोलपुरी, नरेला, ओखला, पालम, पटपड़गंज, सीमापुरी, तीमारपुर और त्रिलोकपुरी में क्रमशः 794, 745, 789, 643, 660, 498, 362, 699, 637 और 476 वोट मिले, भाकपा-माले लिबरेशन को कॉन्डली, नरेला, पटपड़गंज और वजीरपुर में क्रमशः 203, 338, 146 और 172 वोट मिले, फॉरवर्ड ब्लॉक को किरारी और मुंडका में क्रमशः 173 और 175 वोट मिले और एसयूसीआई(सी) को बुराड़ी में 325 वोट मिले ! अब अगर हम इन सभी वोटों को एक साथ भी मिला दें तो वह संख्या आप को किसी एक सीट पर मिले वोटों की बराबरी भी नहीं कर सकेगी! इसलिए जैसे ही चुनाव का रुझान आप के पक्ष में आना शुरू हुआ, संसदीय वामपंथी पार्टियों के नेता और विचारकों का मूल्यांकन भी बदलने लगा! चुनाव परिणाम आने के बद तो हद ही हो गई, जब इनके महासचिवों ने प्रेस बेयान जारी कर केजरीवाल को भ्रष्टाचार विरोधी नायक के रूप में स्थापित करने की बेशर्मी भरी कोशिश शुरू कर दी, फिर क्या था, इनके विचारकों ने भी इनको आप से सीख लेते हुए अपनी नीतियों में तब्दीली लाने की सिफारिश की और सोशल साइटों पर आप के कशीदे काढ़ने शुरू कर दिए!

जबकि असलियत सभी जानते हैं कि केजरीवाल प्रसिद्ध एनजीओ कर्मी रहे हैं और आरक्षण विरोधियों के समर्थक भी! एनजीओ किस तरह से जनता को बरगलाता है, ये किसी से छुपा नहीं है और आप का पूरा घोषणापत्र या एजेंडा एक एनजीओ के तरह ही सुधारवादी घोषणाओं से भरा पड़ा है! आप आर्थिक नीतियो या फिर राज्य दमन के सवाल पर कुछ नहीं बोलती!

अंत में कुछ सवाल

भाकपा-माले लिबरेशन के दिल्ली राज्य सचिव संजय शर्मा ने 28 दिसम्बर को प्रेस बयान जारी कर कहा है ‘दिल्ली में शक्तिशाली तीसरी ताकत के रूप में ‘आप’ का उभार और आम लोगों के बुनियादी सवालों का राजनीति में केन्द्रीय एजेण्डा बन जाना स्वागत योग्य परिघटना है। ‘आप’ के उदय ने आन्दोलन आधारित राजनीति के महत्व को पुर्नस्थापित किया है, साथ ही यथास्थितिवादी राजनीति के पैरोकारों, खासकर कांग्रेस और भाजपा, के विकल्प के लिए आम जनता की तलाश को महत्वपूर्ण रूप से रेखांकित किया है। ‘आप’ के घोषणापत्र में दिल्ली के मेहनतकशों के बहुत से सवाल शामिल हैं, जिस कारण उन्हें इस तबके से महत्वपूर्ण समर्थन भी मिला."

ये बयान कई सवाल खड़े करता है:

1)    अगर ‘आप’ ने आम लोगों के बुनियादी सवालों को राजनीति के केन्द्रीय एजेंडे में ला दिया, तो अब तक आप क्या कर रहे थे कॉमरेड?

2) अगर "आप" ने आन्दोलन आधारित राजनीति के महत्व को पुनर्स्थापित किया है तो आपलोग आन्दोलन कर रहे हैं या नौटंकी?

3) "आप" की चुनावी सफलता की ओट में सुधारवादी कार्यनीति आपका प्रमुख एजेंडा तो नहीं बन जाएगा?