tag:blogger.com,1999:blog-3857696409871553743.post8008325090825009587..comments2024-03-07T17:45:04.957+05:30Comments on दख़ल की दुनिया: पंकज विष्ट कों एक खुला ख़तआलोक श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/08498808385035641834noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-3857696409871553743.post-91654321161687781782010-05-03T14:57:15.901+05:302010-05-03T14:57:15.901+05:30इतना क्यों चिढ गए आलोक जी, आप प्रकाशन के व्यवसाय म...इतना क्यों चिढ गए आलोक जी, आप प्रकाशन के व्यवसाय में है खरीदने बेचने का काम करते है फिर बाज़ार शब्द से इतनी कोफ़्त क्यों है आपको. मै मेले में आपके स्टाल पर आया करीब १०० से ऊपर किताबें निकाली है आपने अच्छा काम किया है. पर जाहिर है बिना मुनाफे के आपने इतनी पूँजी तो नहीं लगाईं होगी. आखिर जब आप इस व्यवसाय में हैं तो इस तरह को शुद्धतावादी स्टैंड क्यों ले रहे हैं कि बाज़ार से आपका कोई वास्ता ही नहीं हैं. और क्या आपको इस बात की कोफ़्त है कि आपके हाथ भी सरकारी खरीद तक नहीं पहुँच पायें हैं. और सच बताऊँ तो सरकारी खरीद भी कोई इतनी बुरी चीज़ नहीं है. आखिर पुस्तकालयों में किताबें कहाँ से आएगी.अभिषेक मिश्राhttps://www.blogger.com/profile/16463722461399982407noreply@blogger.com