06 मई 2016

JNU: वीसी और संघ के बीच चल क्या रहा है?

- दिलीप ख़ान

बीते दिन-चार दिनों से जेएनयू प्रशासन की तरफ़ से नोटिसों की बौछार हो रही है। रोज़ाना एक नया नोटिस। कभी ‘असंवैधानिक’ भूख हड़ताल ख़त्म करने, कभी ‘बाहरियों’ को नहीं बुलाने तो कभी माइक, स्पीकर नहीं बजाने से जुड़े नोटिस। वीसी जगदेश कुमार की ‘आंदोलन विरोधी’ मंशा इसमें जितनी साफ़ दिख रही है, उसको बाज़ार में बिकने वाले 10 रुपए के खुर्दबीन से देखें तो संघ-विद्यार्थी परिषद के साथ खड़े रहने की मंशा उससे भी ज़्यादा स्पष्ट दिखती है। विद्यार्थी परिषद  ने भी वही काम किया, जो वो लोग कर रहे हैं, जिनको इन दिनों नोटिस से मारने की कोशिश की जा रही है। मिस्टर वीसी और एबीवीपी के कारिंदों की छटपटाहट नौवें दिन की भूख हड़ताल के बाद उनसे ज़्यादा तेज़ है जिनकी अंतड़ियां इन नौ दिनों में लगातार सूखती जा रही है। 10 मई के अकादमिक काउंसिल की बैठक से पहले वीसी सबकुछ सामान्य बनाने की कोशिश में तो जुटे हैं, लेकिन ग़लत रास्ते से। जेएनयू प्रशासन और एबीवीपी के बीच के संबंध सरसरी निगाह में ही पकड़ में आ जाएगा।


स्पीकर इस्तेमाल नहीं करने वाला नोटिस
जो खेल खेला जा रहा है, उसे सब देख-समझ रहे हैं, लेकिन खिलाड़ी गेंद को दर्शकों के बीच उछालकर मुग़ालते में है कि दर्शकों की नज़र सिर्फ़ गेंद पर है। चलिए, बुधवार की रात की घटना देखिए। जब जेएनयू में ABVP वाली जगह पर हलचल बिल्कुल ठुस्स थी तो ठीक बगल में पूर्वोत्तर छात्र मोर्चा जेएनयू के ख़िलाफ़ ज़हरीले डॉजियर का विरोध कर रहे थे। महीनों पुराना ये डॉज़ियर मीडिया में उस वक़्त रिलीज़ किया गया जब जेएनयू चौतरफ़ा संघ के निशाने पर है। डॉज़ियर को बनाने वाले जो लोग हैं उनका संघ की वैचारिकी के साथ संबंध महज एक गूगल सर्च का विषय है। बीजेपी के विधायक ज्ञानदेव आहूजा और जेएनयू की अमिता सिंह के बीच जेएनयू को बदनाम करने के मामले में सैद्धांतिक जुड़ाव है। ज्ञानदेव जेएनयू में कॉन्डोम गिनते रहे और अमिता सिंह जेएनयू को सेक्स रैकेट का अड्डा बताती रहीं। संघ जेएनयू को अलगाववादी तत्वों का अड्डा बताता रहा, अमिता सिंह का डॉज़ियर पूर्वोत्तर और कश्मीरी स्टूडेंट्स को चिह्नित कर अलगाववाद की इस सैद्धांतिकी पर मुहर लगाती रही।


अब ये खोज का विषय है कि ज्ञानदेव आहूजा ने अमिता सिंह से बात कर कॉन्डोम वाला बयान दिया या फिर उस बयान के बाद अमिता सिंह ने डॉज़ियर को मीडिया में लीक करवाया। लेकिन, इनके बीच की मिलीभगत सामान्य अवलोकन भर का मुद्दा है। पूर्वोत्तर छात्र मोर्चा ने इस ज़हरीले और सस्ते डॉज़ियर को जलाने के बाद जब आज़ादी चौक पर कार्यक्रम आयोजित किया तो वहां भाषण देने वालों में वो लोग भी शामिल थे, जिनकी अंतड़ियां सात दिनों की भूख के बाद बैठ चुकी थीं। लेकिन, न तो रामा नागा और न ही उमर ख़ालिद के भाषण में कहीं भी कमज़ोर होते शरीर की कोई छाया दिख रही थी। जैसे-जैसे भाषण आगे बढ़ा, वैसे-वैसे उत्साह और आवाज़ का स्तर ऊंचा होता गया। दो मिनट में ही कोई भी भांप सकता था कि आंदोलन जज़्बे और राजनीतिक प्रतिबद्धता से चलता है। राजनीतिक प्रतिबद्धता अगर शून्य हो तो खा-पीकर भी नारों के लिए कंठ से आवाज़ नहीं फूटती।

डॉज़ियर को लेकर पूर्वोत्तर छात्र मोर्चे का विरोध

वीसी के साथ जिस एबीवीपी की चर्चा शुरू में की गई है वो बेहद ज़रूरी है। ज़रूरी इसलिए क्योंकि भाषण का दौर ख़त्म होने के बाद कबीर का गायन ठीक बगल में चल रहा था और उसे सुनते और दोस्तों से गप्पें मारते हुए मैं एबीवीपी वाले ‘इलाक़े’ के क़रीब बैठा था। एक मिनट के लिए घड़ी देखी तो पाया कि 11.23 बज रहा है। घड़ी से नज़र हटी नहीं थी कि किसी गाली को कान में घुसता पाया। हरे रंग की धारीदार टीशर्ट में एबीवीपी का एक कारिंदा किसी को लगातार तेज़ आवाज़ में गाली दे रहा था। प्रतिक्रिया में सामने वाला उसे मोदीभक्त कहकर आगे निकल गया। मुझे लगा कि एबीवीपी के बाक़ी लोग उस लड़के को भद्दी गालियों के लिए डाटेंगे या कम से कम चुप कराएंगे, लेकिन हुआ उल्टा। एक मोटा सा महंथ टाइप आदमी कुर्सी पर बैठा था, जिसके अगल-बगल क़रीब दसेक लोग बैठकर खींसे निपोड़ रहे थे। वो लड़का जितनी गालियां देता,  ये दर्जन भर लोग उतना ही हंसते। आख़िरकार एक ने उसे चुप कराने की जहमत उठाई तो वो उसी पे फट पड़ा। ये सिलसिला क़रीब 15-20 मिनट तक चलता रहा और आख़िरकार हरी टीशर्ट वाले ने ये पाकर कि उसे सब नज़रअंदाज़ कर रहे हैं, आकर टेबल पर बैठ गया। 

मैं क़रीब दस साल से जेएनयू को जानता हूं, लेकिन पहली बार किसी को बिना किसी शर्म के ऐसी भद्दी गालियां पब्लिकली देते सुना। वहां के लोगों का कहना था कि वो लड़का पहले भी ऐसी हरकत कर चुका है।  बहरहाल, मैंने नज़र दौड़ाई कि क्या इस वक़्त एबीवीपी वाले हिस्से में कोई लड़की है? नहीं मिली। मैं जब भी लड़कियों को एबीवीपी में देखता हूं मुझे हैरत होती है कि ये कैसे इस संगठन में रह लेतीं हैं। जहां गालियों पर चटकारे लिए जाते हों, भारत माता के अलावा असहमत हर व्यक्ति की मां को सैक्सुअल ऑब्जेक्ट में तब्दील करने की छटपटाहट हो, वहां एक लड़की का एबीवीपी के पक्ष में खड़ा होना इस संगठन की सबसे अटपटी बात लगती है। इसलिए मैं मानता हूं कि जो भी लड़की एबीवीपी में है वो सारे सिद्धांतों और मूल्यों को छोड़कर सचमुच एबीवीपी के लिए दिल से समर्पित होगी! कोई गाली, कोई सवाल, कोई मसला और कोई हरकत शायद न उसे डिगा सके और न शायद समझा सके। आस्था किसी भी वैचारिक सवाल से नहीं डिगती!

वीसी की अपील!!
बुधवार को दिन में ही एबीवीपी ने अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल ख़त्म कर दी लेकिन गालियों की दुक़ान खोलकर बैठे लोगों का मंतव्य समझ से परे है कि जब उनके मुताबिक़ प्रशासन ने उनकी मांगे मान लीं, तो धरने पे बैठे किसलिए है? मांग प्रशासन ने मानी या एबीवीपी ने इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि दोनों की रिपोर्टिंग अथॉरिटी एक ही है। सीधे-सीधे अगर कहा जाए तो दोनों के बीच रुठम-रुठाई के बाद समझौता हो गया। अगर एबीवीपी ने मानी तो सात दिनों का ड्रामा किसलिए? अगर प्रशासन ने मानी तो बाक़ी लोगों की क्यों नहीं मानी? बाक़ी लोगों की हड़ताल को 'असंवैधानिक' कैसे क़रार दिया? 

आठवीं रात जितने लोग फिर से एड ब्लॉक पर दिखे उससे शायद समझ में ये तो आया होगा  कि एचएलईसी की फ़र्जी रिपोर्ट की पोलपट्टी जेएनयू ही नहीं, बल्कि बाहर भी खुल चुकी है। मानवीय संवेदना की मैं न तो जगदेश कुमार से उम्मीद करता हू्ं और न ही लगता है कि वो मेरे इस भरोसे को झुठलाएंगे। वीसी ने 'स्वास्थ्य' की परवाह करते हुए भूख हड़ताल पर बैठे छात्र-छात्राओं को डायलॉग के लिए बुलाया और कहा कि एचएलईसी की रिपोर्ट को वे लोग मान लें। चलते-चलते एक सवल वीसी से पूछता हूं कि क्या आप इस फर्जी रिपोर्ट को मानते हैं? रिपोर्ट की सारी पड़ताल में बहत्तर छेद होने के बावजूद और इसके भी बावजूद कि वो आपके पक्ष में जाती है, क्या आपने सज़ा का ऐलान रिपोर्ट के आधार पर किया? रिपोर्ट में जिनका ज़िक्र तक नहीं है उनको किस आधार पर आपने सज़ा सुनाई? कोई तो आधार होगा? आप ये क्यों चाहते हैं कि आंदोलन करने वाले सारे लोग रिपोर्ट को मान लें और इकलौते आप उस रिपोर्ट से बढ़कर सज़ा सुनाए? कहां से ऐसा करने का आदेश मिला है? 
'बाहरियों' से आहत प्रशासन!

अमिता सिंह समेत जो दर्जन भर शिक्षक इस यूनिवर्सिटी को लगातार बदनाम करने में जुटे हैं और जो यहां के छात्र-छात्राओं के बारे में अश्लील और बेहद आपत्तिजनक बातें कहते रहे हैं, उनपर कार्रवाई क्यों नहीं करते आप? क्या इसलिए कि 'ऊपर वाले' ने ऐसा नहीं करने का आदेश दिया है? आप न स्टूडेंट्स की सुनते हैं, न शिक्षकों की और न ही कर्मचारियों की, तो आप सुनते किसकी हैं? जिनको इस वक़्त सुन-सुनकर आपने ये चैम्बर हासिल किया है वो आपकी सीवी ख़राब कर देंगे। इतिहास में आप किस तरह याद किया जाना पसंद करेंगे ये तय करने का आपके पास इस वक़्त एक मौक़ा है। सुधर जाएंगे वीसी साहब तो आपकी सीवी भी थोड़ी ठीक हो जाएगी वरना बीबीसी के एक इंटरव्यू में आरएसएस वाले सवाल पर आपकी जो सहमति भरी हिचकिचाहट थी, उससे हमें ये उम्मीद भी बेमानी लगती है। आप और एबीवीपी मिलकर जेएनयू को जो बनाना चाहते हैं उस आइडिया को वहां के स्टूडेंट्स ख़ारिज करते रहेंगे और एक दिन आपका कार्यकाल ख़त्म हो जाएगा। न यहां के रहेंगे और न वहां के। 

02 मई 2016

जेएनयू, मीडिया ट्रायल और चिंताएं

- दिलीप ख़ान

"प्रशासनिक सच मीडिया में पहुंचाया गया; मीडिया ने आधिकारिक सच को 'मीडिया सच' में तब्दील कर दिया। न्यायपालिका ने आधिकारिक और मीडिया सच को स्वीकार किया और इसे न्यायिक सच में बदल दिया; मीडिया ने सुनवाई में हिस्सा लिए बग़ैर ही न्यायिक सच की प्रशंसा कर दी।" 

- मोहम्मद हामिद अंसारी, उपराष्ट्रपति, 19 मार्च, 2016 [1]  

"आप उम्मीद करेंगे कि पुलिस इनवेस्टिगेशन करेगी और वो मीडिया को सूचना देगी और मीडिया उसे दिखाएगा। लेकिन यहां उल्टा होता है। मीडिया ट्रायल करता है। उसके बाद जाके पुलिस को सूचना देता है और उस आधार पर पुलिस इंटेरोगेट करती है। उसी आधार पर पड़ताल होती है।"

- उमर ख़ालिद, शोधार्थी, जेएनयू, 18 मार्च, 2016  [2]

मोहम्मद हामिद अंसारी ने राज्य सभा टीवी के संगोष्ठी में किसी दूसरे संदर्भ में और उमर ख़ालिद ने जेएनयू मामले में मीडिया और पुलिस की भूमिका को लेकर उपर्युक्त बातें कहीं। दोनों भाषणों में महज कुछ घंटों का ही फर्क था। संदर्भ भले ही अलग हो, लेकिन मीडिया रिपोर्टिंग को लेकर दोनों उद्धरण कई सवाल उठाते हैं। जेएनयू विवाद के दौरान जिस तरह की रिपोर्टिंग मीडिया के एक हिस्से में (खासकर कुछ टीवी चैनलों में) हुईं, उससे न सिर्फ रिपोर्टिंग की बुनियादी नैतिकता बल्कि मीडिया नाम की संस्था की पूरी साख पर सवालिया निशान लगे। कई जानकारों ने इसे हाल के वर्षों की सबसे खराब रिपोर्टिंग में शुमार किया। मीडिया की विश्वसनीयता पर मीडिया के भीतर और बाहर खूब चर्चाएं हुईं। [3]  सवाल ये है कि जेएनयू मामले को क्या मीडिया के भटकाव के तौर पर देखा जाना चाहिए या फिर रिपोर्टिंग का ये ढर्रा भारतीय मीडिया में संरचनात्मक तौर पर पैबस्त हो गया है? क्या मीडिया सच, प्रशासनिक सच और न्यायिक सच के बीच में कोई संबंध है? क्या ये तीनों सच आपस में एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं? 

भारतीय मीडिया पर बात करने से पहले अमेरिका की एक मिसाल लेते हैं। 19 नवंबर 2014 को यूनिवर्सिटी ऑफ वर्जिनिया में सामूहिक बलात्कार की खबर एक लोकप्रिय पत्रिका रॉलिंग स्टोन में छपी। शीर्षक था- ए रेप ऑन कैंपस। [4]  सर्बिना रुबिन एर्डली की इस रिपोर्ट पर सनसनी मच गई। चारों तरफ से प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू हुआ, लेकिन तफ्तीश में पाया गया कि रिपोर्ट की अधिकांश बातें झूठी और मनगढंत हैं। कोलंबिया जर्नलिज्म रिव्यू ने इस रिपोर्ट को 'मीडिया द्वारा साल की हारी गई सबसे बड़ी बाजी' और प्वाइंटर इंस्टीट्यूट ने 'साल की सबसे बड़ी ग़लती' करार दिया। वॉशिंगटन टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट और एबीसी न्यूज ने इस खबर की आलोचना में कई बातें सामने रखीं और आखिरकार रॉलिंग स्टोन को बड़ा सा माफीनामा छापना पड़ा। आज भी इस रिपोर्ट पर अमेरिका समेत पूरी दुनिया में चर्चा हो रही है। ए रेप ऑन कैंपस सर्च करने पर गूगल एक सेकेंड से भी कम समय में साढ़े उनसठ लाख लेख/रिपोर्ट/वीडियो उपलब्ध करा रहा है। अब तो इस ख़बर पर ही कई ख़बरें लिखी जा रही हैं, लेकिन जब तक सच सामने नहीं आया तब तक वर्जिनिया यूनिवर्सिटी की बेहद नकारात्मक तस्वीर लोगों के जेहन में बन गई। रॉलिंग स्टोन ने बाद में खबर की जांच के लिए कोलंबिया यूनिवर्सिटी ऑफ जर्नलिज्म के डीन को मनाया और उन्होंने ए रेप ऑन कैंपस की धज्जियां उड़ाते हुए जो रिपोर्ट दी, उसे छापते समय रॉलिंग स्टोन पत्रिका ने पाठकों से पुरानी रिपोर्ट के लिए माफी मांग ली। [5]  

पाकिस्तान ज़िंदाबाद का नारा लगा नहीं, लेकिन ज़ी न्यूज़ ने गढ़ लिया। (सभी तस्वीरें- गूगल सर्च से)
जेएनयू मामले में रॉलिंग स्टोन की भूमिका भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने अदा की। मीडिया से ही पूरा मामला तना-बना और बाद में एफआईआर दर्ज हुआ। संक्षेप में कुल मामला इतना है कि 9 फरवरी 2016 को अफजल गुरु की फांसी की बरसी में एक सांस्कृतिक आयोजन हुआ जिसमें कथित तौर पर कुछ लोगों ने आपत्तिजनक नारे लगाए। इसके फौरन बाद ज़ी न्यूज ने 'जेएनयू में पढ़ाई या देशद्रोह की पीएचडी' समेत 'देश के खिलाफ बोलना जेएनयू में फैशन' जैसी खबरें चलाकर समूची जेएनयू को देशद्रोह का अड्डा करार दे दिया। [6]  यहां से जो सिलसिला शुरू हुआ वो तकरीबन डेढ़ महीने तक इसी अंदाज में चलता रहा। [7] कुछ चैनल्स अपनी शुरुआती लाइन से अलग हुए, कुछ बीच-बीच में अलग होते रहे और वापस लौटते रहे। लेकिन टीवी चैनलों का एक बड़ा हिस्सा घटना के दिन से ही जज की भूमिका में आ गया और अदालती कार्रवाई से पहले ही टीवी के परदे पर ये फैसला हो गया कि कौन देशद्रोही है और क्यों जेएनयू को बंद कर दिया जाना चाहिए।  [8] शुरुआती हफ्ते में एक-एक करके रोजाना नए-नए वीडियो जारी होते रहे और मामला तूल पकड़ता गया। 

लेकिन जल्द ही ये पर्दाफाश हुआ कि उनमें कई वीडियोज़ फर्जी हैं और उन्हें तोड़-मरोड़कर पेश किया गया।  [9] वीडियो से छेड़छाड़ की जब फॉरेंसिक लैब ने रिपोर्ट जारी की, उसके बाद से जितनी चर्चा जेएनयू पर हुई, उतनी ही मीडिया की भूमिका को लेकर भी। लेकिन भारतीय मीडिया ने रॉलिंग स्टोन की तरह माफी मांगना तो दूर, अपनी रिपोर्ट में आक्रामकता के पुट तक को धीमा नहीं किया। द वायर नाम की वेबसाइट ने जब टाइम्स नाऊ पर फर्जी वीडियो चलाने का आरोप लगाया तो बदले में टाइम्स नाऊ ने द वायर और इसके संपादक सिद्धार्थ वरदराजन पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। आरोपों का ये सिलसिला दो दिनों तक चला और आखिरकार टाइम्स नाऊ इस बहस से अलग हो गया। [10] 

कई चैनलों पर फर्जी वीडियो का भंडाफोड़ हुआ
मीडिया ने कई स्तरों पर इस मामले में ट्रायल चलाया। आयोजन पर, आयोजन में लगे आपत्तिजनक नारों पर, आयोजकों की मंशा और देश के प्रति उनके लगाव पर, आयोजकों के अलावा जेएनयूएसयू अध्यक्ष कन्हैया कुमार, रामा नागा, अनंत प्रकाश नारायण और आशुतोष कुमार जैसे राजनीतिक रूप से सक्रिय अन्य स्टूडेंट्स पर और कुल मिलाकर समूची जेएनयू और वाम विचारधारा पर। विचारधारा के स्तर पर स्टेट और सरकार को जेएनयू से मिलने वाली चुनौती के चलते वर्चस्वशाली विचारधारा के निशाने पर यह संस्थान पहले से रहा है। पूरी घटना से हफ़्तों पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंद्ध पांचजन्य ने जेएनयू पर जो आरोप लगाए, कमोबेश उन्हीं आरोपों का दोहराव 9 फ़रवरी की घटना के बाद टीवी चैनलों में देखने को मिला। [11]  जेएनयूएसयू अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ़्तारी के बाद जब उमर ख़ालिद, अनिर्बान भट्टाचार्य भूमिगत थे, उस वक़्त टीवी और अख़बारों में तरह-तरह की ख़बरें चलीं। तथ्यों, अफ़वाहों और अटकलों के बीच फर्क करना मुश्किल हो गया। हाफिज सईद की फर्जी ट्वीट मीडिया में जिस गति से नमूदार हुई, उसके बाद गृहमंत्री राजनाथ सिंह तक ने उस पर टिप्पणी दे दी, बाद में पता चला कि ट्वीट नकली है।  [12] 

उमर ख़ालिद का जैश-ए-मोहम्मद से संपर्क तलाशा जाने लगा। फोन डिटेल्स की ख़बरें आनी लगीं। आहत उमर ने कहा को वो जेएनयू में बीते सात साल से राजनीतिक रूप से सक्रिय है और ख़ुद को मुस्लिम पहचान के रूप में कभी नहीं देखा। लेकिन मीडिया ने जिस तरह का ट्रायल इस मामले चलाया उससे पहली बार मुस्लिम पहचान सतह पर दिखने लगी है। [13] क्या उमर ख़ालिद की मुस्लिम पहचान के चलते उन्हें मास्टरमाइंड के रूप में स्थापित करने में मीडिया को आसानी हुई? क्या भारतीय मीडिया संरचनात्मक तौर पर अल्पसंख्यक विरोधी है? भारतीय प्रेस परिषद के पूर्व अध्यक्ष मार्कंडेय काट्जू ने इस बात को कई बार दोहराया कि भारतीय मीडिया अपने स्वभाव से मुस्लिम, दलित और आदिवासी विरोधी है। [14]   काट्जू के मुताबिक़ आतंकवाद जैसे मसले पर मीडिया मुस्लिमों की प्रोफाइलिंग करने में उत्साही भूमिका निभाता है। भारतीय मीडिया के भीतर सांप्रदायिकता की पहचान कई मौकों पर देखने को मिली है। [15]   

राष्ट्रवाद की जैसी बहस जेएनयू की घटना और उससे पहले से चल रही है उसमें सांप्रदायिक उग्रता और देश पर इकहरी विचारधारा की दावेदारी का मामला साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। मीडिया रिपोर्टिंग में भी राष्ट्रीयता की पूरी अवधारणा 'मुसलमान बराबर पाकिस्तान' के सिरे से साफ़-साफ़ जुड़ी हुई है। यही वजह है कि राष्ट्र पर दावेदारी के क्रम में सरकार-संरक्षित वर्चस्वशाली हिंदू दक्षिणपंथ की तरफ़ बार-बार राष्ट्रवाद की उनकी परिभाषा से अलग सोचने वालों को पाकिस्तान भेजने की धमकी या सलाह देने का चलन तेज़ हुआ है। [16]   संरचनात्मक तौर पर भारत का मीडिया इसे चुनौती देने के बजाए इस एजेंडे को आगे बढ़ाने का काम करता दिखता है। [17]  जेएनयू के छात्र-छात्राओं ने मीडिया के इस चलन के खिलाफ आवाज उठाई और जेएनयूएसयू ने बयान जारी कर उमर खालिद को उनकी धार्मिक पहचान के चलते मास्टरमाइंड जैसे शब्दों से संबोधित करने के मीडिया के व्यवहार की निंदा की। [18]  

आयोजकों में 10 नाम थे और आयोजकों के अलावा भी तीन और लोगों (रामा नागा, आशुतोष कुमार और अनंत प्रकाश नारायण) का नाम मीडिया में उछलता रहा कि इन्हें पुलिस तलाश रही है, लेकिन मास्टरमाइंड के तौर पर उमर ख़ालिद के नाम पर मीडिया और पुलिस ने जिस तरह की समहति दिखाई उस पर कई लोगों ने सवाल खड़े किए।  [19] कई पुराने फॉर्मूले जेएनयू मामले में फिर से दोहराए गए। एक समय में अजमल कसाब के बारे में मीडिया में बार-बार ये खबरें छपतीं थीं कि उसे जेल में बिरयानी खिलाई जा रही है। बाद में सरकारी वकील उज्जवल निकम ने सार्वजनिक तौर पर ये बयान दिया कि कसाब ने जेल में कभी बिरयानी नहीं खाई, लेकिन देश में उसके ख़िलाफ़ माहौल बनाने के लिए उन्होंने ऐसी स्टोरीज़ प्लांट की। [20]  उज्जवल निकम को इस साल सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया। अजमल कसाब के वक्त से ही बिरयानी और कैदी को लेकर एक खास तरह की छवि लोगों के दिमाग में घर कर गई। उमर खालिद और अनिर्बान भट्टाचार्य के बारे में भी मीडिया में ये खबरें दिखाई गईं कि ये लोग हिरासत में बिरयानी, मोमोज और सिगरेट्स मांग रहे हैं।  [21]

सोशल मीडिया में इस बाबत लगातार कमेंट्स आते रहे जिनमें बिरयानी और मोमोज के आधार पर उमर और अनिर्बान को अजमल कसाब के बराबर तौला जा रहा था और ऐसे पेश किया जा रहा था गोया ये लोग दुर्दांत और बेहद दुस्साहसी आतंकवादी हैं जो पुलिस हिरासत में भी फरमाइश करना नहीं भूल रहे। दिलचस्प ये है कि बिरयानी को लेकर कसाब और उमर दोनों के मामले में ख़बरें झूठी थीं, लेकिन लोगों के जेहन में ये सच की तरह टंग गई।

एक-दूसरे से भयानक प्रतिस्पर्धा के बावजूद ऐसे मौके बहुत कम आते हैं जब भारतीय मीडिया एक-दूसरे की पोल खोले या एक-दूसरे की आलोचना में खबरें चलाएं। आम तौर पर आलोचना तब होती है जब किसी खबर से किसी मीडिया घराने के हित का टकराव हो, लेकिन जेएनयू मामले में 24 घंटे ब्रेकिंग न्यूज के बावजूद दर्शकों तक परस्परविरोधी खबरें पहुंच रही थीं। एक जगह एक ही बात को जिस तरह पेश किया जा रहा था, दूसरी जगह वही बात गलत साबित होती दिख रही थी। जेएनयू की मुकम्मल तस्वीर टीवी में लाख रिपोर्टिंग के बावजूद दर्ज नहीं हो पा रही थी। आखिरकार, जब न्यूज एक्स और इंडिया न्यूज ने कन्हैया कुमार को लेकर 'नया वीडियो' जारी किया तो फॉरेन्सिक लैब से पहले ही एबीपी न्यूज और इंडिया टुडे ने उस वीडियो को फर्जी करार दे दिया।  [22] एडिटिंग मशीन पर ये दिखाया गया कि किस तरह दो अलग-अलग भाषणों की आवाजों को एक खास वीडियो के साथ मिलाकर वो वीडियो बनाया गया।  [23]
रिहाई के बाद उमर ख़ालिद

सवाल कई हैं। इंडिया न्यूज और न्यूज एक्स ने पत्रकारिता के किस उसूल के तहत फर्जी वीडियो बनाकर दर्शकों को दिखाया या फिर अगर उसने वीडियो तैयार नहीं किया तो क्यों नहीं वीडियो पहुंचाने वालों के नाम उसने उजागर किए? अगर वीडियो तैयार किया गया तो किसके इशारे पर और किनके हितों की रक्षा के लिए जेएनयू को बदनाम करने की लगातार कोशिश की गई? क्यों गलत साबित होने के बाद भी दर्शकों से माफी नहीं मांगी गई? मीडिया के ऐसे कदमों की आलोचना भी खूब हुई। एनडीटीवी इंडिया पर प्राइम टाइम में जेएनयू की घटनाओं पर बातचीत के बहाने मीडिया की भूमिका की कड़ी आलोचना देखने को मिली। [24]  बाद में ख़बर ये भी आई कि केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री की सहयोगी रह चुकीं शिल्पी तिवारी ने जेएनयू मामले में फर्जी वीडियो बनाने का काम किया। लेकिन न तो मीडिया और न ही सरकार ने इसमें कोई दिलचस्पी दिखाई। [25]

द वायर और टाइम्स नाऊ विवाद के बाद टाइम्स नाऊ ने जेएनयू पर खबरें चलानी कम कर दीं। यहां तक कि जिस दिन कन्हैया कुमार जमानत पर बाहर आए उस दिन शुरुआती आधे घंटे तक टाइम्स नाऊ पर इस बाबत कोई खबर नहीं दिखी। उमर खालिद और अणिर्बान भट्टाचार्य के जमानत पर भी यही कहानी दोहराई गई। जी न्यूज वैसे तो रोजाना खबरें दिखाता था, लेकिन जमानत की खबर उस चैनल पर भी आधे घंटे बाद ही दिख पाई। ज़ी न्यूज़ की भूमिका पूरे मामले में ख़ासकर बेहद संदिग्ध रही। दिल्ली हाईकोर्ट ने जब कन्हैया कुमार की जमानत याचिका सुनाई तो उसमें ज़ी न्यूज़ का ज़िक्र था, लेकिन जिस नारे को शुरुआती दिनों में ज़ी न्यूज ने सबसे बड़े मुद्दे के तौर पर प्रचारित किया उस नारे को न तो पुलिस ने सच माना और न ही अदालत ने। नारा 'पाकिस्तान ज़िंदाबाद' का था। [26]  

जी न्यूज ने शुरुआती हफ़्ते में बार-बार ये ख़बर चलाई कि जेएनयू में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगे। बाद में ज़ी न्यूज के एक प्रोड्यूसर ने चैनल की भूमिका को देखते हुए वहां से इस्तीफ़ा दे दिया। [27] इस्तीफे के वक्त जो चिट्ठी प्रोड्यूसर ने लिखी उसमें साफ तौर पर इस बात का ज़िक्र है कि 'भारतीय कोर्ट ज़िंदाबाद' के नारे को ज़ी न्यूज ने पाकिस्तान जिंदाबाद बताकर पेश किया। [28] ज़ी न्यूज के परदे पर समूचा जेएनयू ग़ैर-कानूनी और देशद्रोही गतिविधियों के अड्डे के तौर पर दिखाया गया। आलम ये था कि जेएनयूएसयू के पूर्व उपाध्यक्ष अनंत प्रकाश नारायण ने इसकी शिकायत राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग से की और ज़ी न्यूज़ के खिलाफ कार्रवाई की मांग की। अनंत प्रकाश उन छह लोगों में एक थे, जिनपर राजद्रोह का आरोप लगाया गया। एनसीएससी को लिखी चिट्ठी में अनंत प्रकाश ने ये साफ़ किया कि ज़ी न्यूज़ के मीडिया ट्रायल के चलते उनकी ज़िंदगी ख़तरे में पड़ गई है। अनंत प्रकाश ने ये भी साफ़ किया कि 9 फरवरी के आयोजन से उनका कोई वास्ता नहीं था। ज़ी न्यूज़ ने जिन ख़बरों में अनंत प्रकाश को देशद्रोही बताया उनको संलग्नक के तौर पर अपनी चिट्ठी में लगाकर उन्होंने अनुसूचित जाति आयोग को सौंपा। [29]

हैदराबाद विश्वविद्यालय के रिसर्च स्कॉलर रोहित वेमुला को भी इसी तरह देशद्रोही कहकर संबोधित किया गया था। वेमुला पर भी लगभग वैसे ही आरोप मढ़े गए जैसे जेएनयू के छात्रों पर लगाए गए। रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भले ही उन्हें ‘मां भारती का लाल’ करार दिया, लेकिन मीडिया और एक ख़ास राजनीतिक तबके की नज़र में उन्हें देशद्रोही के तौर पर ही देखा गया। जेएनयू मामले में मीडिया ने जो सवाल उठाए उनमें एक बात बेहद महत्वपूर्ण है। मीडिया ने बार-बार अभिव्यक्ति की आज़ादी के दायरे को ख़ास स्तर से ज़्यादा नहीं बढ़ाने की वकालत की। यानी एक लकीर मीडिया ने खींची जिसको पार करना अभिव्यक्ति की आजादी का ग़लत इस्तेमाल करार दिया गया। 

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"मीडिया अफ़वाहों, अनुमानों और मंसूबों को तथ्य की तरह रिपोर्ट कर देता है। ऐसा यह कैसे कर लेता है? कुछ 'विशेषज्ञों' का उद्धरण लेकर...किसी भी बात पर इस तरह के बयान देने वाले ऐसे विशेषज्ञ आपको हमेशा मिल जाएंगे।"  - पीटर मैकविलियम्स, लेखक

"मैं तमाम ख़तरों के बावजूद नियंत्रित प्रेस के बजाए पूरी तरह आज़ाद प्रेस के पक्ष में हूं।" - जवाहर लाल नेहरू, भारत के पहले प्रधानमंत्री

सैद्धांतिक तौर पर मीडिया और न्यायपालिका दोनों को सच्चाई सामने लाने वाली संस्था के तौर पर लोग देखते हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों और न्याय के पक्ष में बात करने के साथ-साथ सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं पर गंभीरता से ये दोनों संस्थाएं नज़र रखतीं हैं और उनमें हस्तक्षेप करती हैं। इसी चलते मीडिया को कई लोगों ने लोकतंत्र का ज़रूरी अंग करार दिया, एडमंड बर्क के शब्दों में लोकतंत्र का चौथा खंभा। लेकिन क्या ये इसी रूप में काम करता है? क्या मीडिया और न्यायपालिका के बीच लोकतांत्रिक मूल्यों को मज़बूत करने वाला रिश्ता है? क्या लोकतांत्रिक संरचना के भीतर न्यायपालिका की भूमिका को मीडिया सही, निष्पक्ष और ईमानदारी से अदा करने में सहयोग करता है? जेएनयू के आयोजन में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश की आलोचना एक ऐसा मुद्दा है जिसे भारतीय मीडिया ने बार-बार ये कहते हुए पेश किया कि ये सुप्रीम कोर्ट की आलोचना है। यानी सैद्धांतिक तौर पर मीडिया अदालत, अदालती कार्यवाही और न्यायपालिका के साथ सहयोग और प्रशंसात्मक भूमिका में ख़ुद को देख रहा है। लेकिन, मीडिया एथिक्स में बेहद बुनियादी तौर पर ये बात बताई जाती है कि किसी भी आरोपी को अपराध साबित होने से पहले अपराधी करार देना अनैतिक और पत्रकारीय आचरण के उलट है। [30] 

क्या जेएनयू मामले में ऐसा हुआ? क्या सुप्रीम कोर्ट की इस मान्यता को मीडिया ने माना? क्या सुप्रीम कोर्ट के चुनिंदा फैसलों, चुनिंदा निर्देशों को मीडिया आक्रामक ढंग से पेश करता है और खुद पर लागू होने वाले गाइडलाइंस को पार्श्व में रखकर चलता है? मीडिया ट्रायल को लेकर देश में एक बार नहीं, बल्कि अनेक बार चर्चा हुई और सुप्रीम कोर्ट तक ने इसे ग़लत करार दिया। क्या सुप्रीम कोर्ट के पक्ष में आवाज़ बुलंद करने वाले मीडिया ने इसे फॉलो किया? पूरी दुनिया में मीडिया ट्रायल की शुरुआत अमेरिका में 1807 के केस एरोन बर के केस से मानी जाती है। भारत में ठीक-ठीक ये कब शुरू हुआ, इसको लेकर कोई निश्चित तथ्य नहीं है, लेकिन निजी टीवी न्यूज़ चैनलों के बाद इसकी तादाद अचानक बहुत बढ़ गई। तमाम आलोचनाओं के बावजूद इसमें कमी के कोई आसार नजर नहीं आ रहे।

पत्रकारों पर हुए हमले के बाद पत्रकारों का विरोध-प्रदर्शन
मीडिया ट्रायल को सुप्रीम कोर्ट के कई न्यायधीशों ने निष्पक्ष सुनवाई के लिए ख़तरा करार दिया।  [31]  यह बात सैंकड़ों लेखों, सेमिनारों और भाषणों में हज़ारों बार दोहराई गई होंगी, लेकिन इसके बावजूद न तो किसी आरोपी के लिए मीडिया ने ट्रायल बंद किया और ही इसमें कोई कमी ही दर्ज हुई। मीडिया ट्रायल के लिहाज से अगर जेएनयू मामले को देखे तो मीडिया ने दो स्तरों पर मौलिक अधिकार को क्षति पहुंचाई। पहला, तब जब अभिव्यक्ति की आजादी के लिए खुद मीडिया ने कोई लकीर खींची, जबकि कानूनी तौर पर सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले की आलोचना करना न तो न्यायिक अवमानना है और न ही संविधान की धारा 19 (2) के किसी उपधारा का ही उल्लंघन। दूसरा, मीडिया ट्रायल के ज़रिए आरोपियों को कानून के सामने बराबरी का अधिकार और न्याय के बुनियादी सिद्धांत, जिसमें आरोप साबित होने तक अपराधी नहीं मानने की बात कही गई है, उसको कमजोर किया। लेकिन, इसके साथ बड़ा सवाल ये है कि अभिव्यक्ति की आजादी पर लगाम कसने का इच्छुक मीडिया खुद क्यों नहीं मीडिया ट्रायल के दौरान अपनी अभिव्यक्ति पर लगाम कसता है, जबकि अदालत समेत विधि आयोग तक ने इसे न्यायिक व्यवस्था के लिए बड़ा अड़चन करार दिया? भारत में कई बार अदालत में गंभीरता से मीडिया ट्रायल को लेकर बहस हुई और यहां तक कहा गया कि अंडर-ट्रायल आपराधिक मामलों की रिपोर्टिंग से मीडिया को वंचित कर दिया जाएगा।  [32]  

तत्कालीन मुख्य न्यायधीश आर एस लोढ़ा, कूरियन जोसेफ और रोहिंगटन एफ नरीमन वाली खंडपीठ ने मीडिया ट्रायल को लेकर गंभीर चिंताएं जताईं। खंडपीठ ने कहा, "यह बहुत गंभीर मसला है। जांच-पड़ताल की गोपनीयता को चोट नहीं पहुंचाई जानी चाहिए। संविधान की धारा 21 की रक्षा के लिए इस पर लगाम होनी चाहिए।" खंडपीठ ने आगे कहा, "क्या मीडिया द्वारा एक समानांतर सुनवाई जायज़ है जब मामला पहले से अदालत में हो? हमारे खयाल से यह पूरी सुनवाई प्रक्रिया और आरोपी के अधिकारों का उल्लंघन है। जांच एजेंसियों द्वारा केस के बीच में मीडिया ब्रीफिंग बंद होनी चाहिए।"  [33] इंग्लैंड में मीडिया ट्रायल की गंभीरता को देखते हुए क़ानून पास किया गया। न्यायिक अवमानना क़ानून 1981 के तहत अदालत ऐसी सूचना प्रसारित करने वालों के खिलाफ कार्रवाई कर सकती है जिससे अदालती कार्रवाई पर कोई विपरीत असर पड़ता हो।   [34]

राजेन्द्र जवानमल गांधी बनाम महाराष्ट्र सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मीडिया ट्रायल या जनाक्रोश असल में कानून के लिए प्रतिपक्ष की तरह हैं। इससे न्याय की हत्या हो जाती है। एक जज को हमेशा इन दबावों से खुद को मुक्त रखने के लिए जोर लगाना पड़ता है ताकि वो कानूनसम्मत तरीके से फैसला सुना सके।  [35] मनु शर्मा केस में भी मीडिया के रवैये पर सुप्रीम कोर्ट ने सख़्त ऐतराज जताया। कोर्ट ने कहा कि अगर मीडिया को अभिव्यक्ति की अबाध आजादी रही तो वो अदालत की निष्पक्षता को प्रभावित करता है। सवाल ये है कि जेएनयू मामले में अभिव्यक्ति की सीमा और अदालतों के सम्मान की बहस छेड़ने वाला मीडिया खुद को क्यों नहीं इसी पैमाने पर खरा उतारता है? क्या अदालत की चिंता और मीडिया की चिंता में हितों का टकराव है और क्या इससे मीडिया के हिस्से की शक्ति अदालत में जाकर मिल जाएगी? देश में मीडिया का ऐसा कोई संस्थागत ढांचा नहीं है जहां से पूरे मीडिया को एक इकाई मानी जा सके। 

मीडिया के भीतर कोई ऐसी संस्था नहीं है जहां से निर्देश जारी हो तो सारा मीडिया उसका पालन करे। प्रिंट मीडिया की नियामक संस्था भारतीय प्रेस परिषद ने पत्रकारिता के लिए जो कायदे बनाए, उनमें निष्पक्षता और सच्चाई को बरतने के अलावा ये भी कहा गया है कि प्रेस को ग़लत, भ्रमित करने वाली, आधारहीन, अशिष्ट और तोड़ी-मरोड़ गई सामग्री नहीं पेश करना चाहिए। अफवाहों और अटकलों को तथ्य के तौर पर नहीं पेश करना चाहिए।  [36] प्रेस काउंसिल ने ये भी कहा है कि किसी भी रिपोर्ट में भाषा संतुलित, मर्यादित और शिष्ट रखनी चाहिए और गैरजरूरी तरीके से हमलावर और आक्रामक नहीं होना चाहिए।

खुले-आम पिटाई करता वकीलों का गुट
यह बिंदु खासकर महत्वपूर्ण है क्योंकि प्रेस काउंसिल ने उन मामलों के संदर्भ में पत्रकारों को ये नियम समझाया है जिनमें वो किसी ऐसे व्यक्ति की रिपोर्टिंग कर रहा हो, जिनकी कथित गतिविधि जांच के दायरे में है। काउंसिल ने ये भी कहा है कि आपराधिक मामले में कथित तौर पर शामिल व्यक्ति की सुनवाई जब अदालत में चल रही हो तो उससे पहले ही उसके बारे में कोई फैसला नहीं सुना देना चाहिए। 17वें विधि आयोग की 200वीं रिपोर्ट में मीडिया ट्रायल के ख़तरों के बारे में गिनाते हुए लिखा गया है कि इससे न सिर्फ़ संदिग्ध, आरोपी, गवाह बल्कि जजों के ऊपर भी ऐसा प्रभाव पड़ता है जिससे उनकी निष्पक्षता बाधित होती है। आयोग ने कहा कि ऐसे मामलों में अदालत मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी पर एक निश्चित पाबंदी लगा सकती है और इस पाबंदी को वैध मानी जानी चाहिए।   [37]

मीडिया हमेशा ऐसे मामलों में अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में खड़ा हो जाता है। नियमन के मुद्दे पर ऐसी सैंकड़ों बहसें हुई हैं जब मीडिया ने आत्म-नियमन की वकालत की। प्रिंट मीडिया के लिए भारतीय प्रेस परिषद जैसी संस्था नियमन का काम करती है, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए ऐसी कोई सांविधिक संस्था नहीं है। न्यूज ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी नाम की संस्था टीवी समूहों की खुद की संस्था है, जो आत्म-नियमन का दावा करती है। हालांकि ये कितना कारगर है इसे एक उदाहरण से समझा सकता है। इंडिया टीवी को एक मामले में एनबीएसए ने जुर्माना भरने को कहा तो इंडिया टीवी एनबीएसए से अलग हो गया। बाद में एनबीएसए ने खुद मनाकर इंडिया टीवी को इसकी जद में लाया।  [38]  यानी टीवी चैनल की मर्जी पर ये निर्भर करता है कि वो एनबीएसए की बात को माने या न माने। मीडिया ने अपनी रिपोर्टिंग के ज़रिए कई दफा नकारात्मक माहौल खड़ा किया। मिसाल के लिए नेपाल में भूकंप जैसी बड़ी आपदा के वक़्त जिस तरह भारतीय टीवी मीडिया ने वहां रिपोर्टिंग की, उससे नेपाल में भारत-विरोधी माहौल बन गया।  [39]

मीडिया का नजरिया न्यायपालिका को लेकर बेहद चयनात्मक रहा है। जेएनयू समेत ऐसी कई घटनाएं हैं जब अदालती फैसले की आलोचना को लेकर मीडिया आक्रामक हुआ है, लेकिन यही मामले मीडिया के लिए सवाल भी खड़े करते हैं। मिसाल के लिए मनु शर्मा का केस लड़ने की जब राम जेठमलानी ने जिम्मेदारी ली तो मीडिया ने उन्हें खलनायक की तरह पेश किया, तो क्या किसी अभियुक्त का केस लड़ना न्यायव्यवस्था का अपमान है या फिर राम जेठमलानी को केस में शामिल होते देख मीडिया का न्यायव्यवस्था से भरोसा उठ गया?  [40] अगर मीडिया न्यायव्यवस्था को लेकर इतना ही चिंतित है तो आख़िरकार न्यायव्यवस्था के लिहाज से राम जेठमलानी का कोई केस लड़ना मीडिया के लिए क्यों चिंता का विषय हो सकता है?

आरके आनंद केस में सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया ट्रायल को परिभाषित करते हुए कहा था, "टीवी या अखबारी कवरेज का किसी व्यक्ति की साख पर पड़ने वाला व्यापक असर, जिससे अदालत में लंबित फैसले से पहले ही उसे दोषी मान लिया जाए। मीडिया कई बार जनाक्रोश का वातावरण पैदा करता है जिससे भीड़ द्वारा पीटकर मार दिए जाने तक की नौबत पैदा हो जाती है और ऐसे माहौल में निष्पक्ष न्याय न सिर्फ़ लगभग नामुमकिन हो जाता है, बल्कि अदालत ने क्या फैसला दिया इससे इतर लोगों के जेहन में आरोपी हमेशा के लिए अपराधी बनकर पैठ जाता है।"  [41]

जेएनयू मामले को मीडिया रिपोर्टिंग की नजर से देखें तो क्या बिल्कुल ऐसी ही तस्वीरें नहीं उभरतीं? जेएनयू में जिस अफजल गुरु की याद में 9 फरवरी को कार्यक्रम का आयोजन हुआ था, उसकी गिरफ़्तारी के बाद भी मीडिया की भूमिका पर कई सवाल उठे थे, जोकि आज तक उठ रहे हैं। यानी जेएनयू मीडिया ट्रायल में जो पात्र केंद्र में है वो पात्र खुद मीडिया ट्रायल से गुजरा। 2001 में संसद भवन पर हमले के ठीक बाद मीडिया का ट्रायल शुरू हुआ और संयोग से उसमें भी जी समूह का बड़ा हाथ था। सिर्फ अफजल गुरु ही नहीं, बल्कि पुलिस द्वारा आरोपी करार दिए गए दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व सहायक प्रोफेसर एसएआर गिलानी को भी मीडिया ने आतंकवादी के तौर पर पेश किया। निचली अदालत ने तो गिलानी को फांसी तक की सजा सुना दी। [42]  बाद में सुप्रीम कोर्ट से वो बरी हुए। क्या निचली अदालत पर मीडिया का वही दबाव काम किया जिसकी चर्चा ऊपर की गई है? संयोग ये है कि अफजल गुरु पर ही प्रेस क्लब में आयोजित एक दूसरे कार्यक्रम में एसएआर गिलानी पर भी वही आरोप लगे, जो जेएनयू के छात्रों पर लगे। लेकिन मीडिया ने इस बार गिलानी पर कम और जेएनयू पर ज्यादा हमलावर रवैया दिखाया।

एनडीटीवी का टीवी चैनलों के व्यवहार पर किया गया चर्चित शो
मोटे तौर पर बात करें तो मीडिया सेक्स, सेलीब्रेटी, राष्ट्रवाद, आतंकवाद और रोमांचक घटनाओं में ऐसे ट्रायल चलाता है। इन ट्रायल्स में मूल मुद्दे के साथ कई ऐसी बातें जुड़ जाती हैं जो घटना को रोमांचक बनाने का काम करतैं हैं और कई बार मीडिया इन्हीं बातों के पीछे ज़्यादा समय खपा देता है। मूल मुद्दा पार्श्व में चला जाता। मसलन, शीना बोरा हत्याकांड में इंद्राणी मुखर्जी की शादी और पूर्व पतियों की तलाश मीडिया के लिए सनसनीखेज, रोमांचक और चटपटा मामला था, लिहाजा मीडिया में हत्या के समानांतर इंद्राणी मुखर्जी का अतीत बराबर जगह पा रहा था। अतीत के क़िस्से किसी व्यक्ति की प्रोफाइलिंग में मदद पहुंचाती है और उस प्रोफाइलिंग के आधार पर मीडिया एक जजमेंट पास कर देता है। जेएनयू में उमर ख़ालिद की प्रोफाइलिंग की भी बहुत कोशिशें हुईं। दो बार पाकिस्तान जाने की बात बार-बार मीडिया में छपी और दिखीं। मीडिया ने सच्चाई जानने की कोशिश तक नहीं कि उमर खालिद के पास पासपोर्ट ही नहीं है। [43]  यानी मंसूबों और अटकलों को मीडिया ने तथ्य बनाकर न सिर्फ़ पेश किया बल्कि करोड़ों लोगों के लिए उसे सच्चाई के रूप में ढाल दिया। 

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"धरती पर सबसे शक्तिशाली सत्ता मीडिया है। इसके पास बेगुनाह को दोषी और दोषी को बेगुनाह बनाने की शक्ति है, क्योंकि यह बड़ी आबादी के दिमाग़ को नियंत्रित करता है।" - मैल्कम एक्स, मानवाधिकार कार्यकर्ता और नेता

"ज़ी न्यूज़ जेल में नहीं आता था, तो मेंटल स्टेबैलिटी रहती थी।" - उमर ख़ालिद, शोधार्थी, जेएनयू

ज़ी न्यूज़ की भूमिका पूरे मामले में सनसनीखेज तरीके से इकहरी और उग्र राष्ट्रवाद को परोसने वाली रही। आलम ये था कि जेएनयू मामले से अफ़ज़ल गुरु पर शुरू हुए विमर्श के सिरे को हर जगह ज़ी न्यूज़ ने एक खास तरीके से लागू करने की कोशिश की। इसी क्रम में प्रसिद्ध वैज्ञानिक और शायर ग़ौहर रज़ा को भी ज़ी न्यूज़ ने देशद्रोही करार दे दिया। शंकर-शाद मुशायरे में पढ़े गए उनके एक शेर के हवाले से ज़ी न्यूज़ ने पूरे कार्यक्रम को ‘अफ़ज़ल प्रेमी गैंग का मुशायरा’ करार दिया। गौहर रजा ने इसके बाद ज़ी न्यूज को सार्वजनिक माफी मांगने और एक करोड़ रुपए का हर्जाना भरने को कहा। [44]  ज़ी न्यूज़ को लिखी चिट्ठी में उन्होंने ये भी सवाल उठाए कि न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी के अंतर्गत आने वाले ज़ी न्यूज़ को एनबीएसए के दिशानिर्देश को मानना चाहिए। 

एनबीएसए की नीति संहिता और प्रसारण मानक के खंड-1 (मौलिक या बुनियादी सिद्धांत) के छठे बिंदु के मुताबिक़, “सभी प्रसारणकर्ताओं को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी भी समाचार को संपूर्ण निष्पक्ष रूप से प्रस्तुत किया जाए क्योंकि प्रत्येक समाचार चैनल की बुनियादी ज़िम्मेदारी एक जैसी ही होती है। लोकतंत्र में सभी प्रकार के दृष्टिकोणों को प्रस्तुत करने की अहमियत को महसूस करते हुए प्रसारणकर्ताओं को यह सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेनी चाहिए कि विवादित विषयों को बिना किसी पक्षपात के पेश किया जाएगा और उसमें प्रत्येक दृष्टिकोण के लिए पर्याप्त समय दिया जाए। इसके अलावा समाचार सामग्री के चयन के समय भी जनहित को सबसे ऊपर रखा जाए और किसी भी लोकतंत्र में उन समाचार सामग्रियों के महत्व के आधार पर उन्हें चुना जाए।”  [45]

एनबीएसए इसी संहिता के दूसरे खंड में आत्मनियंत्रण के लिए कई बिंदुओं का ज़िक्र किया है जिसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि किसी भी अपराध की रिपोर्टिंग के वक़्त सभी पक्षों की राय को जानना मीडिया की ज़िम्मेदारी है। [46]  ज़ी न्यूज ने वस्तुनिष्ठता के बुनियादी सिद्धांतों को इस मामले में दरकिनार किया। जिन कार्यक्रमों में उसने ‘दूसरा पक्ष’ जानने की कोशिश भी की, उनमें अपनी आवाज़ के सामने ‘दूसरी आवाज़’ को दबाना मुख्य उद्देश्य के तौर पर सामने आया। इंडिया न्यूज़ और टाइम्स नाऊ ने भी इसी परिपाटी पर कार्यक्रम पेश किए। उमर ख़ालिद के पिता एसक्यूआर इल्यास ने कहा, “मैं पहली बार तब डरा जब अर्णब गोस्वामी को उमर पर चीख़ते देखा। उसी वक़्त मुझे लग गया कि उमर मुश्किल में है।”  [47]

जेएनयू में मानव श्रृंखला बनाए स्टूडेंट

क्या मीडिया में उठाए गए सवाल प्रशासन को उसी रूप में कार्रवाई करने को उकसाता है और क्या मीडिया का सच ख़ास रास्ता पार करते हुए न्यायपालिका के सच में तब्दील हो जाता है? टाइम्स नाऊ और जी न्यूज का ग़लतियों का पुराना रिकॉर्ड रहा है। 2011 में जस्टिस पीबी सावंत ने टाइम्स नाऊ पर 100 करोड़ रुपए की मानहानि का मुकदमा किया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने सही माना। [48] यही नहीं, जिस दौरान जेएनयू का पूरा मामला मीडिया में चल रहा था उसी दौरान एनबीएसए ने टाइम्स नाऊ को जसलीन कौर मामले में ग़लत रिपोर्टिंग के लिए जुर्माना और माफी मांगने को कहा। [49] बाद में टाइम्स नाऊ को प्राइम टाइम में माफी मांगनी पड़ी। मीडिया क्यों राष्ट्रवाद जैसे गंभीर मुद्दे को सनसनीखेज तरीके से पेश करता है ये एक बड़ा सवाल है। कई जानकारों का मानना है कि ऐसा टीआरपी और आगे निकलने की होड़ में होता है। [50]

मीडिया की अभिव्यक्ति की आज़ादी बनाम न्यायपालिका को लेकर कई न्यायविदों ने गंभीर चिंताएं जताई हैं। न्यायाधीश जोसेफ़ कूरियन ने निर्भया बलात्कार कांड के बाद बार काउंसिल की मीटिंग को संबोधित करते हुए कहा था, “जब तक सुनवाई पूरी न हो, मीडिया को ट्रायल बंद करना चाहिए। इससे न्यायाधीशों पर दबाव बढ़ता है, आख़िरकार वो भी मनुष्य ही हैं।” निर्भया मामले की सुनावाई कर रहे एक सहयोगी जज ने जस्टिस कूरियन को कहा था, “अगर मैं सजा नहीं देता तो वे लोग मुझे फांसी पर टांग देते। मीडिया ने पहले ही फैसला सुना दिया।” [51] सत्यवीर सिंह बनाम ज़ी टेलीविजन लिमिटेड मामले की सुनवाई में न्यायाधीश कामिनी लाऊ ने मीडिया की भूमिका पर कई टिप्पणियां कीं। 

असल में ज़ी टीवी पर ‘इंडियाज़ मोस्ट वांटेड’ नाम के एक शो में सत्यवीर सिंह को जिस तरह पेश किया गया उसको कोर्ट में उन्होंने चुनौती दी और इस केस की सुनवाई में ज़ी समूह को न सिर्फ़ 10 लाख रुपए हर्जाना भरने को कहा, बल्कि ज़ी टीवी को फटकार भी लगाई गई। कोर्ट ने ज़ी टीवी और इस शो के एंकर शोएब इल्यासी को मिलकर इस हर्जाने को भरने का फैसला सुनाया। इस फैसले में लोकतंत्र के चौथे खंभे के रूप में मीडिया की भूमिका को अस्वीकार किया गया। [52]  कोर्ट ने ठीक इसी मामले में ज़ी समूह को आदेश दिया कि वो अशोक सिंह राणा को भी 10 लाख रुपए का हर्जाना दे। अशोक सिंह राणा का मामला भी एक ही अदालत में ठीक उसी “इंडियाज़ मोस्ट वांटेड’ शो के ख़िलाफ दायर था। दोनों मामलों में ज़ी समूह को फटकार मिली। दिलचस्प ये है कि ये दोनों फ़ैसले 13 जनवरी 2016 को अदालत ने सुनाए, यानी जेएनयू विवाद से लगभग महीने भर पहले। 

क्या मीडिया ने अदालत का सम्मान किया? क्या ज़ी समूह ने ठीक उसी तरह की ग़लतियां जेएनयू मामले में नहीं दोहराई? क्या ज़ी न्यूज़ ने उमर ख़ालिद समेत बाक़ी आरोपियों की प्रोफाइलिंग में वैसी ही तत्परता नहीं दिखाई जैसी इंडियाज़ मोस्ट वांटेड शो में दिखाई गई थी? क्या अदालत की टिप्पणियों को जी समूह ने संज्ञान में लिया? ऐसे दर्जनों मामले हैं जब आरोप लगते ही पुलिस ने किसी भी आरोपी को अपराधी कहना शुरू कर दिया। जेएनयू मामले में इंडिया न्यूज़ के पत्रकार दीपक चौरसिया ने जिस तरह देशद्रोह, आतंकवाद और देशविरोधी गतिविधियों जैसे शब्दों को टीवी के परदे पर उचारा, वही दीपक चौरसिया कभी आजतक की तरफ़ से इफ़्तिख़ार गिलानी को भी अपराधी बताने की ग़लती कर चुके हैं। 9 जून 2002 को पत्रकार इफ्तिखार गिलानी को ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट के तहत गिरफ़्तार किया गया था और उस वक्त दीपक चौरसिया ने गिलानी के घर के बाहर से लाइव रिपोर्टिंग करते हुए कहा था, “पुलिस को बड़ी सफलता मिली है। 

इफ्तिखार गिलानी के घर से लैपटॉप बरामद हुआ है।” गिलानी के मुताबिक़ उस वक्त उनके पास लैपटॉप था ही नहीं। [53] बाद में इफ्तिखार गिलानी पर कोई भी दोष साबित नहीं हुआ और वो बाइज्ज़त बरी हुए। लेकिन उस दौरान कई टीवी चैनलों और अखबारों ने पाठकों/दर्शकों के सामने उन्हें अपराधी साबित कर दिया। इफ़्तिखार गिलानी इस वक्त जी समूह के ही अखबार डीएनए में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं। क्या अदालत के फैसले से पहले मीडिया का फैसला अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे में फिट होता है? जो मीडिया जेएनयू में अभिव्यक्ति की आजादी में कतरब्योंत के पक्ष में लगातार खड़ा रहा, वो अदालती कार्रवाई पर असर डालने वाली अपनी इस भूमिका को क्यों नहीं करतना चाहता?

सुप्रीम कोर्ट ने कई बार मीडिया ट्रायल पर चिंता जताई
कन्हैया कुमार के जमानती जजमेंट में क़ानूनी तौर पर कन्हैया के खिलाफ कोई भी बिंदु नजर नहीं आता, लेकिन फैसले में मीडिया का दबाव साफ झलकता है। जज ने जिस ‘देशभक्ति गाने’ से जजमेंट की शुरुआत की, वहां से लेकर कई बिंदुओं में उन्हीं बातों को दोहराया गया जो बातें मीडिया में उठती रहीं। जजमेंट के बिंदु संख्या 39 में कहा गया है, “अभिव्यक्ति की आजादी देश में उन्हें इसलिए हासिल है क्योंकि सीमा पर सुरक्षा बल तैनात हैं। हमारे सैनिक सियाचिन और कच्छ के रण जैसे दुर्गम युद्धक्षेत्र में तैनात हैं।” [54] संवैधानिक लिहाज से अभिव्यक्ति की आजादी और सीमा की सुरक्षा के बीच कोई संबंध सीधे तौर पर कहीं नहीं दिखता, लेकिन ऐसे सवाल मीडिया ने उठाए थे। जी न्यूज और टाइम्स नाऊ ने सियाचिन और वहां विपरीत मौसम में मारे गए लांस नायक हनुमनथप्पा का बार-बार जिक्र किया कि वे लोग देश को बचाने के लिए जान दे रहे हैं और जेएनयू के छात्र देश को बर्बाद करने की कोशिश में जुटे हैं। क्या यही बातें अदालती फैसले में जाहिर नहीं होता? हालांकि इस टिप्पणी की कानूनी तौर पर न कोई जरूरत थी और न ही कोई अहमियत, लेकिन मीडिया की भाषा और जजमेंट की भाषा के बीच की समानता से ये जाहिर होता है कि जस्टिस कूरियन की टिप्पणी बहुत हद तक सटीक है कि मीडिया रिपोर्टिंग का न्यायाधीशों पर दबाव होता है।

(मूल रूप से जन मीडिया के मई 2016 अंक में प्रकाशित)
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संदर्भ

 [1] http://vicepresidentofindia.nic.in/contents.asp?id=579 
 [2]  https://www.youtube.com/watch?v=XChGhQ44Mr4 
 [3] JNU row: Perfect case study to show how media is losing its credibility, Viju Cherian, Hindustan  Times, New Delhi, Updated: Feb 23, 2016 11:56 IST (वेब लिंक-  http://www.hindustantimes.com/opinion/jnu-row-perfect-case-study-to-show-how-media-is-losing-    its-credibility/story-cPwk9WhMAuEZMuqQMUjTtO.html)

[4] http://web.archive.org/web/20141119200349/http://www.rollingstone.com/culture/features/a-rape-on-campus-20141119
[5] Rolling Stone and UVA: The Columbia University Graduate School of Journalism Report (Original Report- A rape on campus: what went wrong?) web link- http://www.rollingstone.com/culture/features/a-rape-on-campus-what-went-wrong-20150405

[6]   https://www.youtube.com/watch?v=bqoYtCvpSv4
[7]  https://www.youtube.com/watch?v=N971zEq_16I
[8]  https://www.youtube.com/watch?v=oGN2KOJMaeM 

[9] http://www.hindustantimes.com/india/two-out-of-seven-videos-on-jnu-were-doctored-says-forensic-test/story-DT4jVdL4AUDSGdPI1cOq8N.html
http://www.ndtv.com/india-news/2-videos-of-jnu-event-manipulated-finds-forensic-probe-sources-1283105

[10]  http://thewire.in/2016/02/20/times-nows-first-denies-airing-doctored-video-then-concedes-it-did-22148/
[11]  पांचजन्य, 8 नवंबर, 2015 का पूरा अंक
[12]  http://www.firstpost.com/india/if-rajnath-singh-got-misled-by-fake-tweet-on-jnu-only-khuda-is-indias-hafiz-2626732.html
[13]  https://www.youtube.com/watch?v=G9K8ZM_6Tc4
[14]  http://timesofindia.indiatimes.com/india/Media-demonising-Muslim-community-Markandey-Katju/articleshow/19429993.cms 
[15]   http://www.dailyo.in/politics/narendra-modi-donald-trump-indian-media-new-york-daily-post-the-huffington-post-india-tv-rajat-sharma/story/1/8950.html और http://dakhalkiduniya.blogspot.in/2015/12/blog-post.html 
[16]  ‘Modi critics should go to Pakistan’ remark: BJP leader Giriraj Singh files application for bail, Apr 24, 2014, PTI
http://indianexpress.com/article/india/politics/modi-critics-should-go-to-pakistan-remark-bjp-leader-giriraj-singh-files-application-for-bail/

 Hindu nationalists are gaining power in India - and silencing enemies along the way, Sunny Hundal, 27 February 2014,  The Independent  http://www.independent.co.uk/news/world/asia/hindu-nationalists-are-gaining-power-in-india-and-silencing-enemies-along-the-way-9155591.html 

Those who cannot live without eating beef should go to Pakistan, says Naqvi; ArunJaitley disapproves, May 23, 2015, INDIAN EXPRESS, http://indianexpress.com/article/india/india-others/arun-jaitley-snubs-mukhtar-abbas-naqvi-for-beef-remark/ )

[17]  मीडिया के सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों की सैद्धांतिकी, दिलीप ख़ान, जनवरी 2016, जनमीडिया, वेब लिंक- http://dakhalkiduniya.blogspot.in/2015/12/blog-post.html 
[18]  The student body also condemned the “witch-hunt and media trial that has particularly targeted Umar Khalid based on his immediate religious identity.” वेब लिंक- 
http://indianexpress.com/article/india/india-news-india/jnusu-condemns-divisive-slogans-media-trial-against-umar-khalid/
[19]  Umar Khalid, My son, Apoorvanand, 23, Ferbruary 2016, The Indain Express वेब लिंक- http://indianexpress.com/article/opinion/columns/umar-khalid-my-son/ 
[20]  Kasab never asked for biryani, we fabricated it, public prosecutor Ujjwal Nikam says, Time of India, 20 March 2015 वेब लिंक- http://timesofindia.indiatimes.com/india/Kasab-never-asked-for-biryani-we-fabricated-it-public-prosecutor-Ujjwal-Nikam-says/articleshow/46639254.cms 
[21]  JNU row: Umar Khalid, Anirban demanded Biryani, Momos, cigarettes in police custody, Zee News, 27 Feb 2016 वेब लिंक- http://zeenews.india.com/news/india/jnu-row-umar-khalid-anirban-demanded-biryani-momos-cigarettes-in-police-custody_1859971.html 
[22]  https://www.youtube.com/watch?v=5M5PGcNN1no 
[23]  https://www.youtube.com/watch?v=BKa3lbUKQA0 
[24]  http://www.ndtv.com/video/player/prime-time/prime-time-that-we-can-hear-what-we-say/404451 
[25]   http://economictimes.indiatimes.com/news/politics-and-nation/jnu-videos-doctored-forensic-report-smriti-iranis-aide-shilpi-tewari-under-lens/articleshow/51232360.cms 
[26]  https://www.youtube.com/watch?v=QEG4pI2cRE8 
[27]  http://scroll.in/article/803943/my-conscience-has-started-to-revolt-a-zee-news-producer-quits-over-channels-handling-of-jnu-row 
[28]  वही 
[29]   http://indianexpress.com/article/india/india-news-india/jnu-row-students-scheduled-caste-panel-media-trial/
[30]  http://www.presscouncil.nic.in/OldWebsite/NORMS-2010.pdf 
[31]  Trial by Media: An International Perspective - by Justice R.S. Chauhan, (2011), वेब लिंक- http://www.supremecourtcases.com/index2.php?option=com_content&itemid=1&do_pdf=1&id=22062
[32]  http://www.livemint.com/Politics/1HBjoaQKjqEd4wgPnnYBbJ/SC-wont-frame-news-reporting-guidelines-across-the-board.html और http://www.thehindu.com/news/national/supreme-court-to-frame-norms-for-media-on-reporting-court-proceedings/article3251747.ece 
[33]  http://indianexpress.com/article/india/india-others/media-trial-sc-expresses-concern-may-frame-norms/ 
[34]  http://www.legislation.gov.uk/ukpga/1981/49 
[35]  Trial by Media: An International Perspective - by Justice R.S. Chauhan, (2011) 
[36]  http://www.presscouncil.nic.in/OldWebsite/NORMS-2010.pdf 
[37]  Trial by Media, Free Speech and Fair Trail Under Criminal Procudure Code 1973, August 2006, 200th Report of Law Commission of Indai, वेब लिंक – http://lawcommissionofindia.nic.in/reports/rep200.pdf 
[38]  Media cannot reject regulation, Markandey Katju, The Hindu, 2 May 2012 वेब लिंक- http://www.thehindu.com/opinion/lead/media-cannot-reject-regulation/article3374529.ece 
[39] http://www.bbc.com/news/world-asia-india-32579561 
[40]  http://www.rmlnlu.ac.in/notice_pdf/devesh_article.pdf  
[41]  https://indiankanoon.org/doc/176781894/

[42]  A perfect day for democracy, Arundhati Roy, 10 February 2013, The Hindu वेब लिंक- http://www.thehindu.com/opinion/lead/a-perfect-day-for-democracy/article4397705.ece 
[43]  http://scroll.in/article/803988/full-text-my-name-is-umar-khalid-certainly-but-i-am-not-a-terrorist 
[44]  http://thewire.in/2016/03/18/gauhar-raza-seeks-apology-compensation-from-zee-news-25124/
[45]  http://nbanewdelhi.com/pdf/final/NBA_code-of-ethics_Hindi.pdf
[46]  वही
[47]  http://www.thecitizen.in/index.php/NewsDetail/index/2/7016/I-First-Realised-Umar-Khalid-Was-in-Trouble-When-I-Saw-Arnab-Goswami-Shouting-At-Him
[48]  http://timesofindia.indiatimes.com/india/SC-asks-Times-Now-to-deposit-Rs-100-crore-before-HC-takes-up-its-appeal-in-defamation-case/articleshow/10734614.cms
[49]  http://www.firstpost.com/india/times-now-told-to-apologise-for-jasleen-kaur-story-all-media-houses-should-take-note-2677810.html
[50]  http://www.thehindu.com/opinion/lead/media-and-issues-of-responsibility/article2559712.ece
[51]   https://indiankanoon.org/doc/176781894/
[52]   वही
[53]   http://www.thehoot.org/media-watch/law-and-policy/iftikhar-gilani-no-safeguards-in-the-official-secrets-act-651
[54]  कन्हैया कुमार बनाम दिल्ली सरकार का जमानती फैसला, पेज संख्या 20