18 सितंबर 2013

नया बाप कमीना और हिंदुस्तान ज़िंदाबाद है!

-दिलीप ख़ान

(बिनलाल उर्फ़ बिलाल से बातचीत यानी शहर ये दिल्ली है!)

वह कोई पौने पांच फुट का था और जब उससे मेरी मुलाक़ात हुई तो रात के साढ़े ग्यारह से ज़्यादा बज रहे थे। हम उसके सोने वाली जगह पर खड़े थे, लेकिन शायद उसके 'बिस्तर' से दस-बीस कदम इधर-उधर! रोड के डिवाइडर पर खड़े होकर देखने से गाड़ियां कुछ ज़्यादा ही डरावनी लग रही थीं। सायं-सायं करती हुई कारें दोनों तरफ़ से गुजर रही थीं। शायद लोग अपने घर पहुंचने की जल्दी में थे। चलती सड़क में बिना जाम के भी गाड़ियों के हॉर्न ये बता रहे थे कि वो शहर पर अपने दिन भर की थकान छोड़कर गाढ़ी नींद लेने की बेताबी में हैं। कभी-कभी देर रात अपने दफ़्तर से मैं इसी रास्ते घर लौटता हूं। इन्हें पहले भी सड़क पर सोते देखा था। एक उचटे से अफ़सोस और सहानुभूति से देखने का ठीक से मौक़ा भी नहीं मिल पाता कि गाड़ी हमेशा आगे बढ़ जाती! लेकिन इस बार स्टोरी पर काम करने के दौरान इनसे मिलना था। हम दिल्ली में प्रवासियों के मुद्दे पर अपने चैनल के लिए रिपोर्ट कर रहे थे और उसी में एक कड़ी के तौर पर बेघर भी शामिल थे।  

यह आईएसबीटी से राजघाट के बीच की जगह है। फ्लाईओवर से ठीक पहले। यहां तीन टुकड़ों में अलग-अलग जगह डिवाइडर को लोगों ने अपना 'बेडस्पेस' बना लिया है। हमने पहले ही यह तय कर लिया था कि अगर शूटिंग से किसी को परेशानी हो तो हम कैमरा वहीं बंद कर देंगे। थोड़ा सचेत भी थे कि नशे की हालत में कोई कैमरे को क्षति न पहुंचा दे। लिहाजा हमारे एक उत्साही सहकर्मी, जोकि सिर्फ़ रात की इस शूटिंग के लिए अपना काम ख़त्म होने के बाद भी रुक गए थे, कैमरापर्सन के आस-पास चिपककर चल रहे थे। तो कुल जमा हम तीन लोग थे। कैमरापर्सन स्म्रुति, सहकर्मी करमवीर और मैं। जायज़ा लेने के बहाने मैं इधर-उधर दो-एक लोगों से ऐसे ही बात करने लगा। ज़्यादातर लोग दिन भर की थकान और नशे के हल्के डोज के तले नींद में समा रहे थे। मैंने देखा करमवीर के साथ वही लड़का खड़ा है। लंबाई लगभग पौने पांच फुट। 

धीरे-धीरे मैं भी वहां पहुंचा और गप्प को लोक लिया। दो-एक मिनट में ही वो सामान्य होकर बात करने लगा। लेकिन, बीच-बीच में वो अपनी लुंगी के एक खूंट को उठाकर मुंह में भर रहा था। मेरे पूछने पर उसने बताया कि वो 'माल' पी रहा है। उस पूरे इलाके में हर नशेरी को स्मैकिया और चरसी मान लेने का एक नज़रिया है दिल्ली के भीतर। सो, मैंने भी वही समझते हुए पूछा, 'कौन सा माल है?' लड़का बताया-ट्यूबमाल। 

करमवीर वहां से दस कदम आगे बढ़कर स्म्रुति के साथ हो लिए। मैंने उससे 'ट्यूबमाल' देखने की इच्छा जाहिर की। वह पहले हिचकिचाया और मीडियावाला समझकर थोड़ा डरा भी, लेकिन बातचीत के दौरान फिर सामान्य हो गया। उसने लुंगी के नीचे जो जींस पहन रखी थी वह पैरों के पास पांच-छह तह मुड़ी हुई थी और उस मुड़े हुए हिस्से में से एक नया ट्यूब सैंपल की तरह मेरे हाथ में थमा दिया। वहां से सौ मीटर आगे-पीछे की स्ट्रीट लाइट नहीं जल रही थी, लिहाजा मैंने गाड़ियों की आती-जाती रौशनी की बजाय अपने मोबाइल के पास ले जाकर उसे देखा। वह पंक्चर बनाने के दौरान ट्यूब को चिपकाने में इस्तेमाल होने वाला लिक्विड था। ब्रांड का नाम था- ओमनी। क़ीमत 15 रुपए। मैंने पूछा, 'रोज़ पीते हो?'  बांग्ला उच्चारण के साथ वह जो हिंदी बोल रहा था उसमें मुझे उसने बताया कि हर दूसरे दिन वह एक ट्यूब पी जाता है। 

फिर थोड़ी देर बाद उसने मुझे ये भी बताया कि आज चूंकि उसने रात में खाना नहीं खाया इसलिए माल पी लेने से नींद अच्छी आएगी। मुझे एकबारगी ग़ुस्सा आया..लेकिन मैं उसे बेहद संजीदगी से समझाने की कोशिश करने लगा कि 15 रुपए ख़र्च करके अगर वो माल ख़रीद सकता है तो इतने ही पैसे में खाना क्यों नहीं खाता। मैं उसे उसके स्वास्थ्य, बेहतर जीवन के संभावित रास्ते सहित कई मसलों पर समझाता रहा और इस दौरान वो अपने चेहरे पर स्थाई मुस्कुराहट के साथ मेरी बात सुनता रहा। बीच-बीच में सहमति में वो अपना सिर हिला देता था। इस दरम्यांन उसने अपना जो नाम बताया उसे मैंने 'बिनलाल' सुना। 

अब बारी उसकी थी। बिनलाल ने बताया कि मंगलवार को वह ख़रीदकर नहीं खाता और नियम के मुताबिक़ बगल वाले हनुमान मंदिर में ही पेट भर आता है, लेकिन आज वो लेट हो गया और मंदिर का सारा खाना ख़त्म हो गया। लिहाजा रात के इस पहर माल से ही वो काम चलाएगा। फिर बड़ी चमक के साथ मुझसे पूछा कि अगर मुझे पुड़िया (चरस) चाहिए तो आगे से मैं लेफ़्ट ले लूं और 100 मीटर अंदर जाने पर पांच-छह सौ रुपए में मुझे वो मिल जाएगी। मैंने इनकार किया और अपना बैग टटोला, जिसमें कुछ नहीं था, सिवाय आधे डब्बे बिस्कुट के, उसने बड़े प्यार से उसे लुंगी में बांध लिया। 
बिनलाल ने बताया कि वो कलकत्ते का है और काफ़ी कम उम्र में ही दिल्ली आ गया था। उसकी नज़र में कलकत्ता बेहद घटिया शहर है जबकि दिल्ली के भीतर दम है। आगे वह मुंबई जाना चाहता है क्योंकि सारे हीरो-हीरोइन उसी शहर में रहते हैं। बोला, 'मुंबई तो एक बार जाकर रहूंगा....स्स्साला वहां की ज़िंदगी ही कुछ और है।' फिर अचानक अपने शरीर को लेकर सचेत हो गया और सफाई देने लगा कि मैं कहीं ये न समझूं कि आज खाना नहीं खाया तो अपने शरीर के साथ वो रोज़ाना ऐसे ही जुल्म करता है। फिर भी मेरी नज़र में सहमति का भाव नहीं देखते हुए उसने कहा कि वो हर दूसरे दिन नॉन वेज खाता है और वो भी अपने पैसों से। अब चौंकने की बारी मेरी थी क्योंकि थोड़ी देर पहले उसने मुझसे कहा था कि वो कूड़ा बीनने का काम करता है और इससे रोज़ाना उसकी कमाई सौ रुपए तक की हो जाती है। ऐसे में वो दो वक़्त खाना और उसमें भी नियमित अंतराल पर नॉन वेज के साथ-साथ नशे की सामग्रियां और बाकी ज़रूरत की चीज़ें कैसे मैनेज करता है! 
इसके बाद जो उसने मुझे बताया वो सुनकर मैं सन्न रह गया। बिनलाल ने कहा, 'आगे जो आप पुल देख रहे हैं वहां से राइट लेने पर मार्केट है, जहां पर हम बीस रुपए में नॉनवेज थाली खाते है, दमभर।' मैंने क़ीमत पर हैरत जताई। तो बिनलाल ने भेद खोला। उस इलाके में जो मुर्गे-मुर्गियां मर जाते हैं उसी से यह 20 रुपए में दमभर वाली थाली तैयार होती है! लेकिन बिनलाल की ज़्यादा रुचि माछ-भात में रहती है। विकल्प रहने पर वो माछ-भात पर ही हाथ आजमाता है। 
चूंकि मैं स्टोरी प्रवासियों पर कर रहा था, तो बीच-बीच में अपनी ज़रूरत की चीज़ भी उससे पूछने की कोशिश करने लगा। मैंने उसके परिवार के बारे में पूछा और साथ में यह सवाल भी चिपका दिया कि वो घर कितने अंतराल पर जाता है। बिनलाल ने कहा कि तीन साल पहले एक बार गया था जब उसकी उम्र 15 साल थी। घर में मन नहीं लगता और घरवाले उसको प्यार नहीं करते। बिनलाल ने माना कि उसका दिल दिल्ली में इसलिए लगता है क्योंकि घर में बिनलाल के लिए जगह नहीं है। मैं कई बार स्टोरी में घुसता और फिर उस लाइन से बाहर निकल जाता। लड़के से मैंने कहा कि क्यों नहीं वह अपने शहर में मेहनत करता है, कम कमाई के बावजूद अपने समाज में रहने का उसे एहसास होगा। 

वो बोला कि घर जाना उसके लिए आसान नहीं है। थोड़ी चुप्पी के बाद बिनलाल ने मुझसे कहा, 'आपको एक बात मैं सच-सच बताऊं, मेरा घर कलकत्ता नहीं बांग्लादेश है। मेरा बाप मर गया तो मां ने दूसरी शादी कर ली और नया बाप मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं करता...इसलिए मैं ढाका नहीं जाऊंगा।' तो बिनलाल बांग्लादेश से आया है, मेरी दिलचस्पी थोड़ी और बढ़ी। मैंने पूछा कि क्या वहां पर विधवा महिलाओं की शादी इतना आम है...और चूंकि वह नाम से हिंदू साउंड कर रहा था इसलिए मेरे मन में ये भी बात आई कि हो सकता है कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यक होने के नाते इसके भारत आने की कोई और कहानी हो।  

लेकिन बांग्लादेश वाला राज खोलने के बाद बिनलाल थोड़ा रक्षात्मक हो गया और कहने लगा कि बांग्लादेश से कहीं ज़्यादा प्यार वो हिंदुस्तान को करता है और लगे हाथों इसे दर्शाने के लिए बिना किसी आग्रह के तीन-चार बार 'भारत माता की जय' और 'हिंदुस्तान ज़िंदाबाद' के नारे लगा दिए। उसने आगे मेरी जिज्ञासाओं को विराम देते हुए कहा कि वो हिंदू नहीं मुसलमान है। अगला सवाल मैंने दागा, 'फिर नाम तुम्हारा बिनलाल कैसे है?' उसने इतनी बातचीत के बाद भी अपने नाम के गफ़लत को देखते हुए ज़ोर से ठहाका लगाया, 'अरे भई बिनलाल नहीं बीलाल (बिलाल)।' 

अच्छा! तो कहानी ये है कि बिलाल 8 साल की उम्र में बांग्लादेश से भारत आ गया और फिर कलकत्ते के रास्ते दिल्ली। बिलाल ने बताया कि दिल्ली में सैंकड़ों की तादाद में उनके जैसे लोग हैं जो बांग्लादेशी हैं, मजबूर है, हिंदुस्तान ज़िंदाबाद के नारे वाले हैं और अलग-अलग कारणों से अपने मुल्क़ नहीं लौटना चाहते हैं। सीमा पार करने में ज़्यादा दिक़्क़त अब तक नहीं आई...शायद अब बड़ा होने के बाद उसे परेशानी आए, लेकिन बिलाल मानता है कि अगर कभी बांग्लादेश जाने की उसने कोशिश की भी, और दोनों में से किसी देश की पुलिस या सेना ने उसे धड़ लिया तो जेल में समय गुजारना बहुत पीड़ादायक नहीं होगा! 

मैंने पूछा, 'अब शादी-वादी का इरादा है क्या?' बिलाल थोड़ा शर्माते हुए कहा, 'अरे भाई, नहीं..' फिर थोड़ी सांस लेकर अपनी बात में एक वाक्य और जोरा, 'लेकिन जब चाहूंगा शादी कर लूंगा...चांदनी चौक में मेरी ही तरह कई लड़कियां हैं..जो खुले में सोती है, कूड़ा बीनती है, उनमें से कोई सही बंदी ढूंढ़ लिया तो कर सकता हूं,.लेकिन दिक़्क़त ये है कि वो 'धंधा' करती है।' बिलाल को फिर भी, 'धंधे' से कोई ख़ास परेशानी नहीं है..बस मन मिलने की बात पर लाकर उसने मुझे छोड़ दिया। स्म्रुति और करमवीर ने सामने से आवाज़ मारी..मैं वहीं दस कदम दूर उन दोनों के पास पहुंचा और बमुश्किल तीन-चार मिनट में ही जब वापस लौटा, बिलाल के पास, तो वह कहीं ग़ायब हो गया था। लोगों की कतार में पता नहीं कहां दुबककर सो गया। हमने उसे ढूंढा-हेरा लेकिन वो नहीं दिखा। जाते-जाते जो उसने कहा था वो मेरी कानों में गूंज रहा था, "मां मेरी बहुत अच्छी है, नया बाप ही कमीना है। वो अगर मुझे प्यार करता तो मैं यहां दिल्ली के इस फुटपाथ पर नहीं होता भाई।'

1 टिप्पणी:

  1. दिलीप खान जी, आपका लेख पढ़ कर ये सीखा कि तथ्यों से बगैर छेड़छाड़ किए और बात के मूल को कायम रखते हुए उसे किस तरह रोचक बनाया जा सकता है, लेख मे मुझ जैसे नादान को स्थान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद....

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